December 10, 2018 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४७ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – ४७ सप्तमी-कल्प में भगवान् सूर्य के परिवार का निरूपण एवं शाक-सप्तमी – व्रत सुमन्तु मुनि ने कहा – राजन् ! अब मैं सप्तमी-कल्प का वर्णन करता हूँ । सप्तमी तिथि को भगवान् सूर्य का आविर्भाव हुआ था । ये अण्ड के साथ उत्पन्न हुए और अण्ड में रहते हुए ही उन्होंने वृद्धि प्राप्त की । बहुत दिनों तक अण्ड में रहने के कारण ये ‘मार्तण्ड’ के नाम से प्रसिद्ध हुए । जब ये अण्ड में ही स्थित थे तो दक्ष प्रजापति ने अपनी रुपवती कन्या रूपा को भार्या के रूप में इन्हें अर्पित किया । सूर्य कि पत्नी ‘रूपा’ का दूसरा नाम ‘संज्ञा’ हैं । अन्य पुराणों में संज्ञा को विश्वकर्मा की पुत्री कहा गया है । दक्ष कि आज्ञा से विश्वकर्मा ने इनके शरीर का संस्कार किया, जिससे ये अतिशय तेजस्वी हो गये । अण्ड में स्थित रहते ही इन्हें यमुना एवं यम नाम की दो संताने प्राप्त हुईं । भगवान् सूर्य का तेज सहन न कर सकने के कारण उनकी स्त्री व्याकुल हो सोचने लगी – इनके अतिशय तेज के कारण मेरी दृष्टि इनकी ओर ठहर नहीं पाती, जिससे इनके अङ्गों को मैं देख नहीं पा रही हूँ । मेरा सुवर्ण-वर्ण कमनीय शरीर इनके तेज से दग्ध हो श्यामवर्ण का हो गया है । इनके साथ मेरा निर्वाह होना बहुत कठिन है । यह सोचकर उसने अपनी छाया से एक स्त्री उत्पन्न कर उससे कहा – ‘तुम भगवान् सूर्य के समीप मेरी जगह रहना, परंतु यह भेद खुलने न पाये ।’ ऐसा समझाकर उसने उस छाया नाम की स्त्री को वहाँ रख दिया तथा अपनी संतान यम और यमुना को वहीँ छोडकर वह तपस्या करने के लिये उत्तरकुरु देशमें चली गयी और वहाँ घोड़ी का रूप धारणकर तपस्या में रत रहते हुए इधर-उधर अनेक वर्षों तक घुमती रही । भगवान् सूर्य ने छाया को ही अपनी पत्नी समझा । कुछ समय के बाद छाया से शनैश्चर और तपती नाम की दो संताने उत्पन्न हुईं । छाया अपनी संतान पर यमुना तथा यम से अधिक स्नेह करती थी । एक दिन यमुना और तपती में विवाद हो गया । पारस्परिक शाप से दोनों नदी हो गयी । एक बार छाया ने यमुना के भाई यम को ताडित किया । इस पर यम ने क्रुद्ध होकर छाया को मारने के लिये पैर उठाया । छाया ने क्रुद्ध होकर शाप दे दिया – ‘मूढ़ ! तुमने मेरे ऊपर चरण उठाया है, इसलिये तुम्हारा प्राणियों का प्राण-हिंसक रूपी यह बीभत्स कर्म तब तक रहेगा, जब तक सूर्य और चन्द्र रहेंगे । यदि तुम मेरे शाप से कुलषित अपने पैर को पृथ्वी पर रखोगे तो कृमिगण उसे खा जायेंगे ।’ यम और छाया का इस प्रकार विवाद हो ही रहा था कि उसी समय भगवान् सूर्य वहाँ आ पहुँचे । यम ने अपना पिता भगवान् सूर्य से कहा – ‘पिताजी ! यह हमारी माता कदापि नही हो सकती, यह कोई और स्त्री हैं । यह हमें नित्य क्रूर भाव से देखती है और हम सभी भाई-बहनों में समान दृष्टि तथा समान व्यवहार नहीं रखती । यह सुनकर भगवान् सूर्य ने क्रुद्ध होकर छाया से कहा – ‘तुम्हें यह उचित नहीं हैं कि अपनी संतानों में ही एकसे प्रेम करो और दुसरे से द्वेष । जितनी संताने हो सबको समान ही समझना चाहिये । तुम विषम-दृष्टि से क्यों देखती हो ? ‘ यह सुनकर छाया तो कुछ न बोली, पर यम ने पुनः कहा – ‘पिताजी ! यह दुष्टा मेरी माता नहीं हैं, बल्कि मेरी माता की छाया है । इसीसे इसने मुझे शाप दिया है ।’ यह कहकर यम ने पूरा वृत्तान्त उन्हें बतला दिया । इसपर भगवान् सूर्य ने कहा – ‘बेटा ! तुम चिन्ता न करो । कृमिगण मांस और रुधिर लेकर भूलोक को चले जायेंगे, इससे तुम्हारा पाँव गलेगा नहीं, अच्छा हो जायगा और ब्रह्माजी की आज्ञा से तुम लोकपाल – पद को भी प्राप्त करोगे । तुम्हारी बहन यमुना का जल गङ्गाजल के समान पवित्र हो जायगा और तपती का जल नर्मदाजल के तुल्य पवित्र माना जायगा । आजसे यह छाया सबके देहों में अवस्थित होगी ।’ ऐसी व्यवस्था और मर्यादा स्थिर कर भगवान् सूर्य दक्ष प्रजापति के पास गये और उन्हें अपने आगमन का कारण बताते हुए सम्पूर्ण वृतान्त कह सुनाया । इसपर दक्ष प्रजापति ने कहा – ‘आपके अति प्रचण्ड तेज से व्याकुल होकर आपकी भार्या उत्तरकुरु देश में चली गयी है । अब आप विश्वकर्मा से अपना रूप प्रशस्त करवा लें ।’ यह कहकर उन्होंने विश्वकर्मा को बुलाकर इनसे कहा – ‘विश्वकर्मन् ! आप इनका सुंदर रूप प्रकाशित कर दें ।’ तब सुर्य की सम्मति पाकर विश्वकर्मा ने अपने तक्षण-कर्म से सूर्य को खरादना प्रारम्भ किया । अङ्गों के तराशने के कारण सूर्य को अतिशय पीड़ा हो रही थी और बार-बार मूर्च्छा आ जाती थी । इसीलिये विश्वकर्मा ने सब अङ्ग तो ठीक कर लिये, पर जब पैरों कि अङ्गुलियों को छोड़ दिया तब सूर्य भगवान् ने कहा – ‘विश्वकर्मन ! आपने तो अपना कार्य पूर्ण कर लिया, परंतु हम पीड़ा से व्याकुल हो रहे हैं । इसका कोई उपाय बताइये ।’ विश्वकर्मा ने कहा –‘ भगवन् ! आप रक्त-चंदन और करवीर के पुष्पों का सम्पूर्ण शरीर में लेप करें, इससे तत्काल यह वेदना शान्त हो जायगी ।’ भगवान् सूर्य ने विश्वकर्मा के कथनानुसार अपने सारे शरीर में इनका लेप किया, जिससे उनकी सारी वेदना मिट गयी । उसी दिन से रक्तचन्दन और करवीर के पुष्प भगवान् सूर्य को अत्यन्त प्रिय हो गये और उनकी पूजा में प्रयुक्त होने लगे । सूर्य भगवान् के शरीर के खरादने से जो तेज निकला, उस तेज से दैत्यों के विनाश करनेवाले वज्र का निर्माण हुआ । भगवान् सूर्य ने भी अपना उत्तम रूप प्राप्तकर प्रसन्न-मन से अपनी भार्या के दर्शनों की उत्कण्ठा से तत्काल उत्तरकुरु कि ओर प्रस्थान किया । वहाँ उन्होंने देखा कि वह घोड़ी का रूप धारणकर विचरण कर रही है । भगवान् सूर्य भी अश्व का रूप धारण कर उससे मिले । पर-पुरुष कि आशंका से उसने अपने दोनों नासापुटों से सूर्य के तेज को एक साथ बाहर फेंक दिया, जिससे अश्विनीकुमारों की उत्पत्ति हुई और यही देवताओं के वैद्य हुए । तेज के अंतिम अंश से रेवन्त कि उत्पत्ति हुई । तपती, शनि और सावर्णि – ये तीन संतानें छाया से और यमुना तथा यम संज्ञा से उत्पन्न हुए । सूर्य को अपनी भार्या उत्तरकुरु में सप्तमी तिथि के दिन प्राप्त हुई, उन्हें दिव्य रूप सप्तमी तिथि को ही मिला तथा संतानें भी इसी तिथि को प्राप्त हुई, अतः सप्तमी तिथि भगवान् सूर्य को अतिशय प्रिय हैं । जो व्यक्ति पञ्चमी तिथि को एक समय भोजन कर षष्ठी को उपवास करता है तथा सप्तमी को दिन में उपवास कर भक्ष्य-भोज्यों के साथ विविध शाक-पदार्थों को भगवान् सूर्य के लिये अर्पण कर ब्राह्मणों को देता है तथा रात्रि में मौन होकर भोजन करता है, वह अनेक प्रकार के सुखों का भोग करता है तथा सर्वत्र विजय प्राप्त करता एवं अन्त में उत्तम विमान पर चढकर सूर्यलोक में कई मन्वन्तरों तक निवास कर पृथ्वी पर पुत्र-पौत्रों से समन्वित चक्रवर्ती राजा होता है तथा दीर्घकालपर्यन्त निष्कण्टक राज्य करता है । राजा कुरु ने इस सप्तमी-व्रत का बहुत काल तक अनुष्ठान किया और केवल शाक का ही भोजन किया । इसीसे उन्होंने कुरुक्षेत्र नामक पुण्यक्षेत्र प्राप्त किया और इसका नाम रखा धर्मक्षेत्र । सप्तमी, नवमी, षष्ठी, तृतीया और पञ्चमी – ये तिथियाँ बहुत उत्तम हैं और स्त्री-पुरुषों को मनोवाञ्छित फल प्रदान करनेवाली है । माघ की सप्तमी, आश्विन की नवमी, भाद्रपद की षष्ठी, वैशाख की तृतीया और भाद्रपद मास कि पञ्चमी – ये तिथियाँ इन महीनों में विशेष प्रशस्त मानी गयी हैं । कार्तिक शुक्ल सप्तमी से इस व्रत को ग्रहण करना चाहिये । उत्तम शाक को सिद्ध कर ब्राह्मणों को देना चाहिये और रात्रि में स्वयं भी शाक ही ग्रहण करना चाहिये । इस प्रकार चार मास तक व्रतकर व्रत का पहला पारण करना चाहिये । उस दिन पञ्चगव्य से सूर्य भगवान् को स्नान कराना चाहिये और स्वयं भी पञ्चगव्य का प्राशन करना चाहिये, अनन्तर केशर का चन्दन, अगस्त्य के पुष्प, अपराजित नामक धूप और पायस का नैवेद्य सूर्यनारायण को समर्पित करना चाहिये । ब्राह्मणों को भी पायस का भोजन कराना चाहिये । दूसरे पारण में कुशा के जलसे भगवान् सूर्यनारायण को स्नान कराकर स्वयं गोमय का प्राशन करना चाहिये और श्वेत चन्दन, सुगन्धित पुष्प, अगरुका धूप तथा गुड के अपूप नैवेद्य में अर्पण करना चाहिये और वर्ष के समाप्त होने पर तीसरा पारण करना चाहिये । गौर सर्षप का उबटन लगाकर भगवान् सूर्य को स्नान कराना चाहिये । इससे सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं । फिर रक्तचन्दन, करवीर के पुष्प, गुग्गुल का धूप और अनेक भक्ष्य भोज्यसहित दही-भात नैवेद्य में अर्पण करना चाहिये तथा यही ब्राह्मणों को भी भोजन कराना चाहिये । भगवान् सूर्यनारायण के सम्मुख ब्राह्मण से पुराण-श्रवण करना चाहिये अथवा स्वयं बाँचना (उच्चारणपूर्वक पढ़ना) चाहिये । अन्त में ब्राह्मण को भोजन कराकर पौराणिक को वस्त्र-आभूषण, दक्षिणा आदि देकर प्रसन्न करना चाहिये । पौराणिक के संतुष्ट होनेपर भगवान् सूर्यनारायण प्रसन्न हो जाते हैं । रक्त चन्दन, करवीर के पुष्प, गुग्गुल का धूप, मोदक, पायस का नैवेद्य, घृत, ताम्रपत्र, पुराण-ग्रन्थ और पौराणिक – ये सब भगवान् सूर्य को अत्यंत प्रिय हैं । राजन् ! यह शाक-सप्तमी-व्रत भगवान् सूर्य को अति प्रिय हैं । इस व्रत करनेवाला पुरुष भाग्यशाली होता है । (अध्याय ४७) See Also :- 1. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १-२ 2. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय 3 3. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४ 4. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५ 5. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ६ 6. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ७ 7. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ८-९ 8. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १०-१५ 9. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १६ 10. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १७ 11. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १८ 12. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १९ 13. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २० 14. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१ 15. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २२ 16. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २३ 17. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २४ से २६ 18. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २७ 19. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २८ 20. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २९ से ३० 21. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३१ 22. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३२ 23. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३३ 24. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३४ 25. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३५ 26. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३६ से ३८ 27. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३९ 28. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४० से ४५ 29. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४६ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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