भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५२ से ५३
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय – ५२ से ५३
सूर्यदेव के रथ एवं उसके साथ भ्रमण करनेवाले देवता-नाग आदि का वर्णन

राजा शतानीक ने पूछा – मुने ! सूर्यनारायण की रथयात्रा किस विधानसे करनी चाहिये । रथ कैसा बनाना चाहिये ? इस रथयात्रा का प्रचलन मृत्युलोक में किसके द्वारा हुआ ? इन सब बातों को आप कृपाकर मुझे बतलायें ।

सुमन्तु मुनि बोले – राजन् ! किसी समय सुमेरु पर्वतपर समासीन भगवान् रूद्र ने ब्रह्माजी से पूछा – ‘ब्रह्मन् ! इस लोक को प्रकाशित करनेवाले भगवान् सूर्य किस प्रकार के रथ में बैठकर भ्रमण करते हैं इसे आप बतायें ।’

ब्रह्माजी ने कहा – त्रिलोचन ! सूर्यनारायण जिस प्रकार के रथ में बैठकर भ्रमण करते हैं, उसका मैं वर्णन करता हूँ, आप सानन्द सुनें ।om, ॐ

एक चक्र, तीन नाभि, पाँच अरे तथा स्वर्णमय अति कान्तिमान् आठ बन्धों से युक्त एवं एक नेमि से सुसज्जित – इस प्रकार के दस हजार योजन लम्बे-चौड़े अतिशय प्रकाशमान स्वर्ण-रथ में विराजमान भगवान् सूर्य विचरण करते रहते हैं । रथ के उपस्थ से ईषा-दण्ड तीन-गुना अधिक हैं । यहीं उनके सारथि अरुण बैठते हैं । इनके रथ का जुआ सोने का बना हुआ हैं । रथ में वायु के समान वेगवान् छन्दरूपी सात घोड़े जुते रहते हैं । संवत्सर में जितने अवयव होते हैं, वे ही रथ के अङ्ग हैं । तीनों काल चक्र की तीन नाभियाँ हैं । पाँच ऋतुएँ अरे हैं, छठी ऋतु नेमि हैं । दक्षिण और उत्तर – ये दो अयन रथ के दोनों भाग हैं । मुहूर्त रथ के इषु, कला, शम्य, काष्ठाएँ रथ के कोण, क्षण अक्षदण्ड, निमेष रथ के कर्ण, ईषा-दण्ड लव, रात्रि वरूथ, धर्म रथ का ध्वज, अर्थ और काम धुरी का अग्रभाग, गायत्री, त्रिष्टुप्, जगती, अनुष्टुप्, पंक्ति, बृहती तथा उष्णिक् – ये सात छन्द सात अश्व हैं । धुरी पर चक्र घूमता है । इस प्रकार के रथ में बैठकर भगवान् सूर्य निरन्तर आकाश में भ्रमण करते रहते हैं ।

देव, ऋषि, गन्धर्व, अप्सरा, नाग, ग्रामणी और राक्षस सूर्य के रथ के साथ घूमते रहते हैं और दो-दो मासों के बाद इनमें परिवर्तन हो जाता है ।

धाता और अर्यमा – ये दो आदित्य, पुलस्त्य तथा पुलह नामक दो ऋषि, खण्डक, वासुकि नामक दो नाग, तुम्बुरु और नारद ये दो गन्धर्व, क्रतुस्थला तथा पुञ्जिकस्थला ये अप्सराएँ, रथकृत्स्त्र तथा रथौजा ये दो यक्ष, हेति तथा प्रहेति नाम के दो राक्षस ये क्रमशः चैत्र और वैशाख मास में रथ के साथ चला करते हैं ।

मित्र तथा वरुण नामक दो आदित्य, अत्रि तथा वसिष्ठ ये दो ऋषि, तक्षक और अनन्त दो नाग, मेनका तथा सहजन्या ये दो अप्सराएँ, हाहा-हूहू दो गंधर्व, रथस्वान और रथचित्र ये दो यक्ष, पौरुषेह और बध नामक दो राक्षस क्रमशः ज्येष्ठ तथा आषाढ़ मास में सूर्यरथ के साथ चला करते हैं ।

श्रावण तथा भाद्रपद में इन्द्र तथा विवस्वान् नामक दो आदित्य, अङ्गिरा तथा भृगु नामक दो ऋषि, एलापर्ण तथा शङ्खपाल ये दो नाग, प्रम्लोचा और दूंदूका नामक दो अप्सराएँ, भानु और दुर्दुर नामक गन्धर्व, सर्प तथा ब्राह्म नामक दो राक्षस, स्त्रोत तथा आपूरण नामके दो यक्ष सूर्यरथ के साथ चलते रहते हैं ।

आश्विन और कार्तिक मास में पर्जन्य और पूषा नाम के दो आदित्य, भारद्वाज और गौतम नामक दो ऋषि, चित्रसेन तथा वसुरूचि नामक दो गन्धर्व, विश्वाची तथा घृताची नाम की दो अप्सराएँ, ऐरावत और धनञ्जय नामक दो नाग और सेनजित् तथा सुषेण नामक दो यक्ष, आप एवं वात नामक दो राक्षस सूर्यरथ के साथ चला करते हैं ।

मार्गशीर्ष तथा पौष मास में अंशु तथा भग नामक दो आदित्य, कश्यप और क्रतु नामक दो ऋषि, महापद्म और कर्कोटक नामक दो नाग, चित्राङ्गद और अरणायु नामक दो गन्धर्व, सहा तथा सहस्या नामक दो अप्सराएँ, तार्क्ष्य तथा अरिष्टनेमि नामक यक्ष, आप तथा वात नामक दो राक्षस सूर्यरथ साथ चला करते हैं ।

माघ-फाल्गुन में क्रमशः पूषा तथा जिष्णु नामक दो आदित्य, जमदग्नि और विश्वामित्र नामक दो ऋषि, काद्रवेय और कम्बलाश्वतर ये दो नाग, धृतराष्ट्र तथा सुर्यवर्चा नामक दो गन्धर्व तिलोत्तमा और रम्भा ये दो अप्सराएँ तथा सेनजित् और सत्यजित् नामक दो यक्ष, ब्रह्मोपेत तथा यज्ञोपेत नामक दो राक्षस सूर्यरथ के चला करते हैं ।
(ये नाम विष्णु आदि अन्य पुराणों में कुछ भेद से मिलते हैं।)
ब्रह्माजी ने कहा – रुद्रदेव ! सभी देवताओं ने अपने अंशरूप से विविध अस्त्र-शस्त्रों को भगवान् सूर्य की रक्षा के लिये उन्हें दिया है । इस प्रकार सभी देवता उनके रथ के साथ-साथ भ्रमण करते रहते हैं । ऐसा कोई भी देवता नहीं है जो रथ के पीछे न चले । इस सर्वदेवमय सूर्यनारायण के मण्डल को ब्रह्मवेत्ता ब्रह्मस्वरूप, याज्ञिक यज्ञस्वरूप, भगवद्भक्त विष्णुस्वरूप तथा शैव शिवस्वरूप मानते हैं । ये स्थानाभिमानी देवगण अपने तेज से भगवान् सूर्य को आप्यायित करते रहते हैं, देवता और ऋषि निरन्तर भगवान् सूर्य की स्तुति करते रहते हैं, गन्धर्व-गण गान करते हैं तथा अप्सराएँ रथके आगे नृत्य करती हुई चलती रहती हैं । राक्षस रथ के पीछे-पीछे चलते हैं । साठ हजार बालखिल्य ऋषिगण रथ को चारों ओर से घेरकर चलते हैं । दिव्यस्पति और स्वयम्भू रथके आगे, भर्ग दाहिनी ओर, पद्मज बायीं ओर, कुबेर दक्षिण दिशा में, वरुण उत्तर दिशा में, वीतिहोत्र और हरि रथ के पीछे रहते हैं । रथ के पीठ में पृथ्वी, मध्य में आकाश, रथ की कान्ति में स्वर्ग, ध्वजा में दण्ड, ध्वजाग्र में धर्म, पताका में ऋद्धि – वृद्धि और श्री निवास करती हैं । ध्वजदण्ड के ऊपरी भाग में गरुड़ तथा उसके ऊपर वरुण स्थित हैं । मैनाक पर्वत छत्र का दण्ड, हिमाचल छत्र होकर सूर्य के साथ रहते हैं । इन देवताओं का बल, तप, तेज, योग और तत्त्व जैसा है वैसे ही सूर्यदेव तपते हैं । ये ही देवगण तपते हैं, बरसते हैं, सृष्टि का पालन-पोषण करते हैं, जीवों के अशुभ-कर्म को निवृत्त करते हैं, प्रजाओं को आनन्द देते हैं और सभी प्राणियों की रक्षा के लिये भगवान् सूर्य के साथ भ्रमण करते रहते हैं । अपनी किरणों से चन्द्रमा की वृद्धि कर सूर्य भगवान् देवताओं का पोषण करते हैं । शुक्ल पक्ष में सूर्य-किरणों से चन्द्रमा की क्रमशः वृद्धि होती है और कृष्ण पक्ष में देवगण उसका पान करते हैं । अपनी किरणों से पृथ्वी का रस-पान कर सूर्यनारायण वृष्टि करते हैं । इस वृष्टि से सभी ओषधियाँ उत्पन्न होती हैं तथा अनेक प्रकार के अन्न भी उत्पन्न होते हैं, जिससे पितरों और मनुष्यों की तृप्ति होती है ।

एक चक्रवाले रथमें भगवान् सूर्यनारायण बैठकर एक अहोरात्र में सातों द्वीप और समुद्रों से युक्त पृथ्वी के चारों ओर भ्रमण करते हैं । एक वर्षमे ३६० बार भ्रमण करते हैं । इन्द्र की पुरी अमरावती में जब मध्याह्न होता है, तब उस समय यम की संयमनी पुरी में सूर्योदय, वरुण की सुखा नाम की नगरी में अर्धरात्रि और सोम की विभा नाम की नगरी में सूर्यास्त होता है । संयमनी में जब मध्याह्न होता है, तब सुखा में उदय अमरावती में अर्धरात्रि तथा विभा में सूर्यास्त होता हैं । सुखा में जब मध्याह्न होता हैं, उस समय विभा में उदय, अमरावती में आधी रात और संयमनी में सूर्यास्त होता है । विभा नगरी में जब मध्याह्न होता है, तब अमरावती में सूर्योदय, संयमनी में आधी रात और सुखा नाम की वरुण की नगरी में सूर्यास्त होता है । इस प्रकार मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा करते हुए भगवान् सूर्य का उदय और अस्त होता है । प्रभात से मध्याह्न तक सूर्य-किरणों की वृद्धि और मध्याह्न से अस्त तक ह्रास होता है । जहाँ सूर्योदय होता है वह पूर्व दिशा और जहाँ अस्त होता है वह पश्चिम दिशा है । एक मुहूर्त में भूमि का तीसवाँ भाग सूर्य लाँघ जाते हैं । सूर्यभगवान् के उदय होते ही प्रतिदिन इन्द्र पूजा करते हैं, मध्याह्न में यमराज, अस्त के समय वरुण और अर्धरात्रि में सोम पूजन करते हैं ।

विष्णु, शिव, रूद्र, ब्रह्मा, अग्नि, वायु, निर्ऋति, ईशान आदि सभी देवगण रात्रि की समाप्ति पर ब्राह्मवेला में कल्याण के लिये सदा भगवान् सूर्य की आराधना करते रहते हैं ।
(अध्याय ५२-५३)

See Also :-

1. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १-२

2. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय 3

3. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४

4. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५

5. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ६

6. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ७

7. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ८-९

8. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १०-१५

9. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १६

10. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १७

11. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १८

12. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १९

13. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २०

14. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१

15. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २२

16. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २३

17. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २४ से २६

18. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २७

19. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २८

20. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २९ से ३०

21. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३१

22. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३२

23. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३३

24. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३४

25. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३५

26. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३६ से ३८

27. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३९

28. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४० से ४५

29. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४६

30. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४७

31. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४८

32. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४९

33. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५० से ५१

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