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भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५५
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय – ५५
भगवान् सूर्य का अभिषेक एवं उनकी रथयात्रा

रुद्रने पूछा — ब्रह्मन् ! भगवान् सूर्य की रथयात्रा कब और किस विधि से की जाती है ? रथयात्रा करने वाले, रथ को खींचने वाले, रथ को वहन करने वाले, रथके साथ जाने वाले और रथके आगे नृत्य-गान करने वाले एवं रात्रि जागरण करने वाले पुरुषों को क्या फल प्राप्त होता है ? इसे आप लोक-कल्याण के लिये विस्तारपूर्वक बताइये।

ब्रह्माजी बोले — हे रुद्र ! आपने बहुत उत्तम प्रश्न किया है । अब मैं इसका वर्णन करता हूँ, आप इसे एकाग्र मन से सुनें ।
om, ॐ
भगवान् सूर्य की रथयात्रा और इन्द्रोत्सव – ये दोनों जगत् के कल्याण के लिये मैंने प्रवर्तित किये हैं । जिस देश में ये दोनों महोत्सव आयोजित किये जाते हैं, वहाँ दुर्भिक्ष आदि उपद्रव नहीं होते और न चोरी आदि का कोई भय ही रहता है । इसलिये दुर्भिक्ष, अकाल आदि उपद्रवों की शान्ति के लिये इन उत्सवों को मनाना चाहिये । मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को घृत के द्वारा भगवान् सूर्य को श्रद्धापूर्वक स्नान कराना चाहिये । ऐसा करनेवाला पुरुष सोनेके विमान में बैठकर अग्निलोक को जाता है और वहाँ दिव्य भोग प्राप्त करता है । जो व्यक्ति शर्करा के साथ शालि-चावल का भात, मिष्टान्न और चित्रवर्ण के भात को भगवान् सूर्य को अर्पित करता है, वह ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है । जो प्रतिदिन भगवान् सूर्य को भक्तिपूर्वक घृत का उबटन लगाता है, वह परम गतिको प्राप्त करता है ।

पौष शुक्ल सप्तमी को तीर्थों के जल अथवा पवित्र जल से वेद-मन्त्रों के द्वारा भगवान् सूर्य को स्नान कराना चाहिये । सूर्यभगवान् के अभिषेक के समय प्रयाग, पुष्कर, कुरुक्षेत्र, नैमिष, पृथूदक (पेहवा), शोण, गोकर्ण, ब्रह्मावर्त, कुशावर्त, बिल्वक, नीलपर्वत, गङ्गाद्वार, गङ्गासागर, कालप्रिय, मित्रवन, भाण्डीरवन, चक्रतीर्थ, रामतीर्थ, गङ्गा, यमुना, सरस्वती, सिन्धु, चन्द्रभागा, नर्मदा, विपाशा (व्यासनदी), तापी, शिवा, वेत्रवती (वेतवा), गोदावरी, पयोष्णी (मन्दाकिनी), कृष्णा, वेण्या, शतद्रु (सतलज), पुष्करिणी, कौशिकी (कोसी) तथा सरयू आदि सभी तीर्थों, नदियों और समुद्रों का स्मरण करना चाहिये

यजेद्धि तीर्थनामानि मनसा संस्मरन् बुध: । प्रयागं पुष्करं देवं कुरुक्षेत्रं च नैमिषम् ॥
पृथुदकं चन्द्रभागां शोण गोकर्णमेव च । ब्रह्मावर्त कुशावर्त बिल्वकं नीलपर्वतम् ॥
गंङ्गाद्वारं तथा पुष्यं गङ्गासागरमेव च । कालप्रियं मित्रवनं शुण्डीरस्वामिनं तथा ॥
चक्रतीर्थं तथा पुण्यं रामतीर्थं तथा शिवम् । वितस्ता हर्षपन्था वै तथा वै देविका स्मृता ॥
गङ्गा सरस्वती सिन्धुश्चन्द्रभागा सनर्मदा । विपाशा यमुना तापी शिवा क्षेत्रवती तथा ॥
गोदावरी पयोष्णी च कृष्णा वेण्या तथा नदी । शतरुद्रा पुष्करिणी कौशिकी सरयूस्तस्था ॥
तथान्ये सागराशऽचैव सांनिध्यं कल्पयन्तु वे ॥ तथाश्रमाः पुण्यतमा दिव्यान्यायतनानि च ॥ (ब्राह्मपर्व ५५ । २४-३०)

दिव्य आश्रमों और देवस्थानों का भी स्मरण करना चाहिये । इस प्रकार स्नान कराकर तीन दिन, सात दिन, एक पक्ष अथवा मासभर उस अभिषेक के स्थान में ही भगवान् का अधिवास करे और प्रतिदिन भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करता रहे ।

माघ मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी को मङ्गल कलशों तथा वितान आदि से सुशोभित चौकोर एवं पक्के ईंटों से बनी वेदी पर सूर्यनारायण को भली-भाँति स्थापित कर हवन, ब्राह्मण-भोजन, वेद-पाठ और विभिन्न प्रकारके नृत्य, गीत, वाद्य आदि उत्सवों को करना चाहिये । अनन्तर माघ शुक्ला चतुर्थी को अयाचित व्रत करे, पञ्चमी को एक बार भोजन करे, षष्ठी को रात्रि के समय ही भोजन करे और सप्तमी को उपवास कर हवन, ब्राह्मण -भोजन आदि सम्पन्न करे। सबको दक्षिणा देकर पौराणिक की भली-भाँति पूजा करे । तदनन्तर रत्नजटित सुवर्ण के रथ में भगवान् सूर्य को विराजित उस रथ को उस दिन मन्दिर के आगे ही खड़ा करे । रात्रि में जागरण करे और नृत्य-गीत चलता रहे । माघ शुक्ला अष्टमी को रथयात्रा करनी चाहिये । रथ के आगे विविध बाजे बजते रहें, नृत्य-गीत और मङ्गल वेदध्वनि होती रहे । रथयात्रा प्रथम नगर के उत्तर दिशा से प्रारम्भ करनी चाहिये, पुनः क्रमशः पूर्व, दक्षिण और पश्चिम दिशा में भ्रमण कराना चाहिये । इस प्रकार रथयात्रा करने से राज्यके सभी उपद्रव शान्त हो जाते हैं। राजा को युद्ध में विजय मिलती है तथा उस राज्य में सभी प्रजाएँ और पशुगण नीरोग एवं सुखी हो जाते हैं। रथयात्रा करने वाले रथ को वहन करने वाले और रथ के साथ जाने वाले सूर्यलोक में निवास करते हैं ।

रुद्र ने कहा — हे ब्रह्मन् ! मन्दिर में प्रतिष्ठित प्रतिमा को किस प्रकार उठाना चाहिये और किस प्रकार रथ में विराजमान करना चाहिये । इस विषय में मुझे कुछ संदेह हो रहा है, क्योंकि वह प्रतिमा तो स्थिर अर्थात् अचल प्रतिष्ठित है । अतः उसे कैसे चलाया जा सकता है ? कृपाकर आप मेरे इस संशय को दूर करें ।

ब्रह्माजी बोले — संवत्सर के अवयवों के रूप में जिस रथ का पूर्व में मैंने वर्णन किया है, वह रथ सभी रथों में पहला रथ है, उसको देखकर ही विश्वकर्मा ने सभी देवताओं के लिये अलग-अलग विविध प्रकार के रथ बनाये हैं । उस प्रथम रथ की पूजा के लिये भगवान् सूर्य ने अपने पुत्र मनु को वह रथ प्रदान किया । मनु ने राजा इक्ष्वाकु को दिया और तब से यह रथयात्रा पूजित हो गयी और परम्परा से चली आ रही है । इसलिये सूर्य की रथयात्रा का उत्सव मनाना चाहिये । भगवान् सूर्य तो सदा आकाश में भ्रमण करते रहते हैं, इसलिये उनकी प्रतिमा को चलाने में कोई भी दोष नहीं है । भगवान् सूर्य के भ्रमण करते हुए उनका रथ एवं मण्डल दिखायी नहीं पड़ता, इसलिये मनुष्यों ने रथयात्रा के द्वारा ही उनके रथ एवं मण्डल का दर्शन किया है । ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि देवों की प्रतिमा के स्थापित हो जाने के बाद उनको उठाना नहीं चाहिये, किंतु सूर्यनारायण की रथयात्रा प्रजाओं की शान्ति के लिये प्रतिवर्ष करनी चाहिये । सोने-चाँदी अथवा उत्तम काष्ठ का अतिशय रमणीय और बहुत सुदृढ़ रथका निर्माण करना चाहिये । उसके बीच में भगवान् सूर्य की प्रतिमा को स्थापित कर उत्तम लक्षणों से युक्त अतिशय सुशील हरितवर्ण के घोड़ों को रथ में नियोजित करना चाहिये । उन घोड़ों को केसर से रँगकर अनेक आभूषणों, पुष्प-मालाओं और चँवर आदि से अलंकृत करना चाहिये । रथके लिये अर्घ्य प्रदान करना चाहिये । इस प्रकार रथ को तैयार कर सभी देवताओं की पूजा कर ब्राह्मण- भोजन कराना चाहिये । दक्षिणा देकर दीन, अंधे, उपेक्षितों तथा अनाथों को भोजन आदि से संतुष्ट करना चाहिये । उत्तम, मध्यम अथवा अधम किसी भी व्यक्ति को विमुख नहीं होने देना चाहिये। रथयात्रा स्वरूप इस सूर्यमहायाग में भूख से पीड़ित बिना भोजन किये यदि कोई व्यक्ति भग्न आशावाला होकर लौट जाता है तो इस दुष्कृत्य से उसके स्वर्गस्थ पितरों का अधःपतन हो जाता है । सूर्यक्रतौ तु वितते एवमाहुर्मनीषिणः ॥ यश्चिन्यति भग्राशः क्षुधावातप्रपीडितः। अदातुहिं स्वर्गस्थानपि पातयेत् ॥ (ब्राह्मपर्व ५५ । ६५-६६)
अतः सूर्यभगवान् के इस यज्ञ में भोजन और दक्षिणा से सबको संतुष्ट करना चाहिये, क्योंकि बिना दक्षिणा के यज्ञ प्रशस्त नहीं होता तथा निम्नलिखित मन्त्रों से देवताओं को उनका प्रिय पदार्थ समर्पित करना चाहिये —
बलिं गृह्णन्तु मे देवा आदित्या वसवस्तथा ॥
मरुतोऽथाश्विनौ रुद्राः सुपर्णाः पन्नगा ग्रहाः ।
असुरा यातुधाना रथस्था यास्तु देवताः ॥
दिक्पाला लोकपालायश्च ये च विघ्नविनायकाः ।
जगतः स्वस्ति कुर्वन्तु ये च दिव्या महर्षयः ॥
मा विघ्नं मा च मे पापं मा च मे परिपन्थिनः ।
सौम्या भवन्तु तृप्ताश्च देवा भूतगणास्तथा ॥ (ब्राह्मपर्व ५५ । ६८-७१)

इन मन्त्रों से बलि देकर ‘वामदेव्य०’, ‘पवित्रo’, ‘मानस्तोकo’ तथा ‘रथन्तर०’ इन ऋचाओं का पाठ करे । अनन्तर पुण्याहवाचन और अनेक प्रकार के मङ्गल वाद्यों की ध्वनि कर सुन्दर एवं समतल मार्ग पर रथ को चलाये, जिससे कहीं पर धक्का न लगे । घोड़े के अभाव में अच्छे बैलों को रथ में लगाना चाहिये या पुरुषगण ही रथ को खींचें । तीस या सोलह ब्राह्मण जो शुद्ध आचरण वाले हों तथा व्रती हों, वे प्रतिमा को मन्दिर से उठाकर बड़ी सावधानी से रथ में स्थापित करें । सूर्यप्रतिमा के दोनों ओर सूर्यदेव की राज्ञी (संज्ञा) एवं निक्षुभा (छाया) नामक दोनों पत्नियों को स्थापित करे । निक्षुभा को दाहिनी ओर तथा राज्ञी को बायीं ओर स्थापित करना चाहिये। सदाचारी वेदपाठी दो ब्राह्मण प्रतिमाओं के पीछे की ओर बैठे और उन्हें सँभालकर स्थिर रखें । सारथि भी कुशल रहना चाहिये । सुवर्णदण्ड से अलंकृत छत्र रथ के ऊपर लगाये, अतिशय सुन्दर रत्नों से जटित सुवर्णदण्ड से युक्त ध्वजा रथ पर चढ़ाये, जिसमें अनेक रंगों की सात पताकाएँ लगी हों । रथ के आगे के भाग में सारथि के रूप में ब्राह्मण को बैठना चाहिये । श्रद्धारहित व्यक्ति को रथ के ऊपर नहीं चढ़ना चाहिये, क्योंकि जो श्रद्धारहित व्यक्ति रथपर आरूढ़ होता है, उसकी संतति नष्ट हो जाती है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को ही रथ के वहन करने का अधिकार है ।

अपने स्थान से चलकर सर्वप्रथम रथ को उत्तरद्वार पर ले जाना चाहिये । वहाँ एक दिन तक पूजा करे, विविध नृत्य-गीतादि-उत्सव, वेदपाठ तथा पुराणों की कथा होनी चाहिये । वहाँ ब्राह्मण भोजन भी कराना चाहिये । नवमी के दिन रथ चलाकर पूर्वद्वार पर ले जाय, एक दिन वहाँ रहे । तीसरे दिन दक्षिणद्वार पर रथ ले जाय तथा चौथे दिन पश्चिमद्वार पर रथ ले जाय । वहाँ से नगर के मध्य में रथ ले जाय, वहाँ पूजन और उत्सव करे, दीपमालिका प्रज्वलित करे, ब्राह्मणों को दान दे और भोजन कराये । अनन्तर वहाँ से मन्दिर में रथ को लाना चाहिये । वहाँ नगर के सभी लोग मिलकर पूजन और उत्सव करें । एक दिन-रात रथ में ही प्रतिमा रहे । दूसरे दिन भगवान् सूर्य की प्रतिमा को रथ से उतारकर बड़ी धूमधाम से मन्दिर में स्थापित करे। इस प्रकार सप्तमी से त्रयोदशी तक रथयात्रा होनी चाहिये और चतुर्दशी को प्रतिमा पूर्व स्थान में स्थापित कर दे । इस रथयात्रा के करने से सभी विघ्न-बाधाएँ निवृत्त हो जाती हैं ।
(अध्याय ५५)
See Also :-

1. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १-२

2. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय 3

3. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४

4. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५

5. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ६

6. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ७

7. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ८-९

8. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १०-१५

9. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १६

10. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १७

11. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १८

12. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १९

13. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २०

14. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१

15. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २२

16. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २३

17. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २४ से २६

18. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २७

19. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २८

20. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २९ से ३०

21. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३१

22. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३२

23. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३३

24. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३४

25. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३५

26. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३६ से ३८

27. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३९

28. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४० से ४५

29. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४६

30. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४७

31. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४८

32. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४९

33. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५० से ५१

34. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५२ से ५३

35. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५४

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