December 12, 2018 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५६-५७ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – ५६-५७ रथयात्रा में विघ्र होने पर एवं गोचर में दुष्ट ग्रहों के आ जाने पर शान्ति का विधान और तिल की महिमा भगवान् रुद्र ने पूछा — ब्रह्मन् ! आप पुनः रथयात्रा का वर्णन करें । ब्रह्माजी ने कहा — रुद्र ! रथ को धीरे-धीरे सममार्ग पर चलाया जाय, जिससे रथ को धक्का आदि न लगने पाये । मार्ग की शुद्धि के लिये प्रथम प्रतीहार और दण्डनायक उस मार्ग में जायँ । पिंगल, रक्षक, द्वारक, दिण्डी तथा लेखक – ये भी रथ के साथ-साथ चलें । इतनी सतर्कता और कुशलता से रथ को ले जाया जाय कि रथ का कोई अङ्ग-भङ्ग न हो। रथ का ईषादण्ड टूटने पर ब्राह्मणों को, अक्ष टूटने पर क्षत्रियों को, तुला टूटने पर वैश्यों को, शय्या के टूटने पर शूद्रों को भय होता है । युग के भङ्ग से अनावृष्टि, पीठ के भङ्ग से प्रजा को भय, रथ का चक्र टूटने से शत्रुसेना का आगमन, ध्वजा के गिरने से राजभङ्ग तथा प्रतिमा खण्डित होने से राजा की मृत्यु होती है । छत्र के टूटने पर युवराज की मृत्यु होती है । इनमें से किसी भी प्रकार का उत्पात होने पर उसकी शान्ति अवश्य करानी चाहिये तथा बाह्मण को भोजन और दान देना चाहिये एवं विधि-पूर्वक ग्रह-शान्ति करानी चाहिये । रथ के ईशानकोण में वेदी अथवा कुण्ड बनाकर धृत और समिधाओं से देवता तथा ग्रहों की प्रसन्नता के लिये हवन करना चाहिये और इन नाम-मन्त्रों से आहुति देनी चाहिये— ‘ॐ अग्नये स्वाहा, ॐ सोमाय स्वाहा, ॐ प्रजापतये स्वाहा ।’— इत्यादि। अनन्तर शान्ति एवं कल्याण के लिये इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये — ‘स्वस्त्यस्त्विह च विप्रेभ्यः स्वस्ति राज्ञे तथैव च । गोभ्यः स्वस्ति प्रजाभ्यश्च जगतः शान्तिरस्तु वै ॥ शं नोऽस्तु द्विपदे नित्यं शान्तिरस्तु चतुष्पदे । शं प्रजाभ्यस्तथैवास्तु शं सदात्मनि चास्तु वै ॥ भूः शान्तिरस्तु देवेश भुवः शान्तिस्तथैव च । स्वश्चैवास्तु तथा शान्तिः सर्वत्रास्तु तथा रवे; ॥ त्वं देव जगतः स्रष्टा पोष्टा चैव त्वमेव हि । प्रजापाल ग्रहेशान शान्तिं कुरु दिवस्यते ॥’ (ब्राह्मपर्व ५६ । १६-१९) अपनी जन्मराशि से दुष्ट स्थान में स्थित ग्रहों की प्रसन्नता तथा शान्ति के लिये ग्रह-समिधाओं से हवन करना चाहिये । ये समिधाएँ प्रादेशमात्र लम्बी होनी चाहिये । सूर्य के लिये अर्क की, चन्द्रमा के लिये पलाश की, मङ्गल के लिये खदिर की, बुध के लिये अपामार्ग की, बृहस्पति के लिये पीपल की, शुक्र के लिये गूलर की, शनि के लिये शमी की, राहु के लिये दूर्वा की और केतु के लिये कुशा की समिधा ही हवन के लिये प्रयोग करना चाहिये । उत्तम गौ, शङ्ख, लाल बैल, सुवर्ण, वस्त्र युगल, श्वेत अश्व, काली गौ, लौहपात्र और छाग — ये क्रमशः नौ ग्रहों की दक्षिणा हैं । गुड़ और भात, घी-मिश्रित खीर, हविष्यान्न, क्षीरान्न, दही-भात, घृत, तिल और उड़द के बने पक्वान्, गूदोंवाला फल, चित्रवर्ण का भात एवं काँजी — ये क्रमशः नवग्रहों के भोजन हैं । जैसे शरीर में कवच पहन लेने से बाण नहीं लगते वैसे ही ग्रहों की शान्ति करने से किसी प्रकार का उपघात नहीं होता । अहिंसक, जितेन्द्रिय, नियम में स्थित और न्याय से धनार्जन करने वाले पुरुषों पर ग्रहों का सदा अनुग्रह रहता है । यश, धन, संतान की प्राप्ति के लिये, अनावृष्टि होने पर, आरोग्य-प्राप्ति के लिये तथा सभी उपद्रवों की शान्ति के लिये ग्रहों की सदा पूजा करनी चाहिये। संतान से रहित, दुष्ट संतान वाली, मृत-वत्सा, मात्र कन्या संतान वाली स्त्री संतानदोष की निवृत्ति के लिये, जिसका राज्य नष्ट हो गया हो वह राज्य के लिये, रोगी पुरुष रोग की शान्ति के लिये अवश्य ग्रहों की शान्ति करे, ऐसा मनीषियों ने कहा है । यथा बाणप्रहाराणां वारणं कवचं स्मृतम् । तथा दैवोपघातानां शान्तिर्भवति वारणम् ॥ अहिंसकस्य दान्तस्य धर्माजितधनस्य च । नित्यं च नियमस्थस्य सदा सानुग्रहा ग्रहाः ॥ ग्रहाः पूज्या सदा रुद्र इच्छता विपुलं यशः । श्रीकामः शान्तिकामो वा ग्रहयज्ञं समाचरेत् ॥ वृष्टयायुः पुष्टिकामो वा तथैवाभिचरन् पुन: । यानपत्या भवेन्नारी दुष्प्रजाश्चापि या भवेत् ॥ बाला यस्याः प्रम्रियन्ते या च कन्याप्रजा भवेत् । राज्यभ्रष्टो नृपो यस्तु दीर्घरोगी व यो भवेत् ॥ ग्रहयज्ञः स्मृतस्तेषां मानवानां मनीषिभिः । (ब्राह्मपर्व ५६ । ३०-३५) ग्रहों की प्रतिमा ताम्र, स्फटिक, रक्त-चन्दन, सुवर्ण, चाँदी, लोहे और शीशे आदि की बनवाकर अथवा इनके चित्र का निर्माण करा कर जिस ग्रह का जो वर्ण हो उसी रंग के वस्त्र एवं पुष्प उन्हें समर्पित करे। गुग्गुल का धूप सभी को अर्पित करना चाहिये। ‘आ कृष्णन० ‘ (यजु० ३३ । ४३), इमं देवा० (यजु० ९ ।४०) इत्यादि नवग्रहों के अलग -अलग मन्त्रों से एक-एक ग्रह के नाम से समिधा, घृत, शहद और दही की एक सौ आठ अथवा अट्ठाईस आहुतियाँ दे तथा ब्राह्मणों को भोजन कराये । उन्हें यथाशक्ति दक्षिणा दे । जो ग्रह जिसके गोचर कुण्डली में अथवा दुष्ट स्थान पर स्थित हो, उसे उस ग्रह की यत्न-पूर्वक पूजा करनी चाहिये । महादेव ! मैंने इन ग्रहों को ऐसा वर दिया है कि लोगों द्वारा तुम सब पूजित होओगे । राजाओं का उत्थान और पतन तथा मनुष्यों का उदय और सम्पत्तियों का नाश ग्रहों के अधीन है, इसलिये ग्रह-शान्ति अवश्य करनी चाहिये । ग्रह, गाय, राजा, गुरुजन तथा ब्राह्मण पूजन करने वाले व्यक्ति को सब प्रकार का सुख प्रदान करते हैं । इनका अपमान करने से मनुष्य को अनेक प्रकार के दुःख मिलते हैं । यज्ञ करने वाले, सत्यवादी, जप, होम, उपवास आदि में तत्पर धर्मात्मा पुरुषों की सभी बाधाएँ शान्त हो जाती हैं* । ग्रह गावो नरेन्द्राश्च गुरवो ब्राह्मणास्तथा । पूजिताः पूजयन्त्येते निर्दहन्त्यपमानिताः ॥ यज्वनां सत्यवाक्यानां तथा नित्योपवासिनाम् । जपहोमपराणां व सर्वं दुष्टं प्रशाम्यति ॥ (ब्राह्मपर्व ५६ । ४७, ४९) इस प्रकार से शान्ति कर रथ को पुनः चलाना चाहिये और शेष मार्गों में घुमाकर अपने स्थान में पहुँच जाने पर रथस्थित देवताओं की पूजा करनी चाहिये। उत्पात होने पर ग्रहों की शान्ति के समान ही रथ में स्थित सभी देवताओं की भी पूजा करनी चाहिये । ऐसा करने से सभी तरह के उत्पातों की सब प्रकार से शान्ति हो जाती है। दुष्ट ग्रहों की शान्ति के लिये ब्राह्मणों को तिल प्रदान करे अथवा घी के साथ तिलों का हवन कर और देवताओं को धूप दे । तिल देवताओं के लिये स्वाहारुप अमृत, पितरों के लिये स्वधारूप अमृत तथा ब्राह्मणों के लिये आश्रय-स्वरूप कहे गये हैं । ये तिल कश्यप के अङ्ग से उत्पन्न हुए हैं तथा देवता एवं पितरों को अति प्रिय हैं । स्नान, दान, हवन, तर्पण और भोजन में परम पवित्र माने गये हैं’। देवानाममूतं होते पितृणां हि स्वधामृतम् । शरणं ब्राह्माणानां च सदा होता विदुर्बुधाः ॥ कश्यपस्याङ्गजा ह्येते पवित्राश्च तथा हर । स्नाने दाने तथा होमे तर्पणे ह्यशने पराः ॥ (बाह्मपर्व ५७। २५-२६) इस प्रकार प्रह और देवताओं का पूजन कर भगवान् सूर्य को प्रतिमा को रथ से उतारकर मण्डल में स्थापित करे, फिर विघ्न-बाधाओं की शान्ति के लिये दीप, जल, जौ, अक्षत, कपास के बीज, नमक तथा धान की भूसी से आरती कर पलियों सहित सूर्यनारायण को वेदी के ऊपर स्थापित करे । वहाँ दस दिनतक उनकी विधिपूर्वक पूजा करे । दस दिनतक होनेवाली यह पूजा दशाहिका पूजा कहलाती है । इस प्रकार पूजनकर फिर भगवान् सूर्यनारायण को पूर्व स्थान पर स्थापित करना चाहिये। (अध्याय ५६-५७) See Also :- 1. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १-२ 2. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय 3 3. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४ 4. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५ 5. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ६ 6. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ७ 7. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ८-९ 8. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १०-१५ 9. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १६ 10. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १७ 11. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १८ 12. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १९ 13. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २० 14. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१ 15. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २२ 16. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २३ 17. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २४ से २६ 18. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २७ 19. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २८ 20. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २९ से ३० 21. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३१ 22. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३२ 23. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३३ 24. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३४ 25. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३५ 26. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३६ से ३८ 27. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३९ 28. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४० से ४५ 29. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४६ 30. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४७ 31. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४८ 32. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४९ 33. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५० से ५१ 34. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५२ से ५३ 35. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५४ 36. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५५ Related