December 12, 2018 | Leave a comment भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ६१ से ६३ ॐ श्रीपरमात्मने नम: श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – ६१ से ६३ भगवान् सूर्य द्वारा योग का वर्णन एवं ब्रह्माजी द्वारा दिण्डी को दिया गया क्रियायोग का उपदेश सुमन्तु मुनि ने कहा – राजन् ! ऋषियों को जिस प्रकार ब्रह्माजी ने सूर्यनारायण की आराधना के विधान का उपदेश दिया था, उसे मैं सुनाता हूँ । किसी समय ऋषियों ने ब्रह्माजी से प्रार्थना की कि महाराज ! सभी प्रकार की चित्तवृत्ति के निरोधरूपी योग को आपने कैवल्यपद को देनेवाला कहा हैं, किन्तु यह योग अनेक जन्मों की कठिन साधना के द्वारा प्राप्त हो सकता है । क्योंकि इन्द्रियों को बलात् आकृष्ट करनेवाले विषय अत्यन्त दुर्जय हैं, मन किसी प्रकार से स्थिर नहीं होता, राग-द्वेष आदि दोष नहीं छूटते और पुरुष अल्पायु होते हैं, इसलिये योगसिद्धि का प्राप्त होना अतिशय कठिन है । अतः आप ऐसे किसी साधन का उपदेश करें जिससे बिना परिश्रम के ही निस्तार हो सके ।ब्रह्माजी ने कहा – मुनीश्वरों ! यज्ञ, पूजन, नमस्कार, जप, व्रतोपवास और ब्राह्मण-भोजन आदिसे सूर्यनारायण की आराधना करना ही इसका मुख्य उपाय है । यह क्रियायोग है । मन, बुद्धि, कर्म, दृष्टी आदिसे सूर्यनारायण की आराधना में तत्पर रहे । वे ही परब्रह्म, अक्षर, सर्वव्यापी, सर्वकर्ता, अव्यक्त, अचिन्त्य और मोक्ष को देनेवाले हैं । अतः आप उनकी आराधना कर अपने मनोवाञ्छित फलको प्राप्त करें और भवसागरसे मुक्त हो जायँ । ब्रह्माजी से यह सुनकर मुनिगण सूर्यनारायणकी उपासना-रूप क्रियायोग में तत्पर हो गए । हे राजन् ! विषयों में डूबे हुए संसार के दुःखी जीवों को सुख प्रदान करनेवाले सूर्यनारायण के अतिरिक्त और कोई भी नहीं हैं, इसलिये उठते-बैठते, चलते-सोते, भोजन करते हुए सदा सूर्यनारायण का ही स्मरण करो, भक्तिपूर्वक उनकी आराधना में प्रवृत्त होओ, जिससे जन्म-मरण, आधि-व्याधि से युक्त इस संसार-समुद्र से तुम पार हो जाओगे । जो पुरुष जगत्कर्ता, सदा वरदान देनेवाले, दयालु और ग्रहों के स्वामी श्रीसुर्यनारायण की शरण में जाता हैं, वह अवश्य ही मुक्ति प्राप्त करता है । सुमन्तु मुनि ने पुनः कहा – राजन् ! प्राचीन काल में दिण्डी को ब्रह्महत्या लग गयी थी । उस ब्रह्महत्या के पाप को दूर करनेके लिये उन्होंने बहुत दिनों तक सूर्यनारायण की आराधना और स्तुति की । उससे प्रसन्न हो भगवान् सूर्य उनके पास आये । भगवान् सूर्यने कहा – ‘दिण्डिन् ! तुम्हारी भक्तिपूर्वक की गयी स्तुति से मैं बहुत प्रसन्न हूँ, अपना अभीष्ट वर माँगो ।’ दिण्डी ने कहा – महाराज ! आपने पधारकर मुझे दर्शन दिया, यह मेरे सौभाग्य की बात है । यही मेरे लिये सर्वश्रेष्ठ वर है । पुण्यहीनों के लिये आपका दर्शन सर्वदा दुर्लभ है । आप सबके हृदय में स्थित हैं, अतः आप सबका अभिप्राय जानते हैं । जिसप्रकार मुझे ब्रह्महत्या लगी है, उसे तो आप जानते ही हैं । भगवन् ! आप मुझपर ऐसा अनुग्रह करें कि मैं इस निन्दित ब्रह्महत्या से तथा अन्य पापों से शीघ्र मुक्त हो जाऊँ और मैं सफल-मनोरथ हो जाऊँ । आप संसार से उद्धार का उपाय बतलायें, जिसके आचरण से संसार के प्राणी सुखी हों । दिण्डी के इस वचन को सुनकर योगवेत्ता भगवान् सूर्य ने उन्हें निर्बीज-योग का उपदेश दिया, जो दुःख के निवारण के लिये औषधरूप है । दिण्डी ने प्रार्थना करते हुए कहा – महाराज ! यह निष्कल-योग तो बहुत कठिन हैं, क्योंकि इन्द्रियों को जीतना, मनको स्थिर करना, अहं-शरीरादिका अभियान और ममता का त्याग करना, राग-द्वेष से बचना- ये सब अतिशय कष्टसाध्य हैं । ये बातें कई जन्मों के अभ्यास करनेसे प्राप्त होती हैं । अतः आप ऐसा साधन बतलायें, जिससे अनायास बिना विशेष परिश्रम के ही फलकी प्राप्ति हो जाय । भगवान् सूर्य ने कहा – गणनाथ ! यदि तुम्हें मुक्ति की इच्छा है तो समस्त क्लेशों को नष्ट करनेवाले क्रियायोग को सुनो । अपने मनको मुझ में लगाओ, भक्ति से मेरा भजन करो, मेरा यजन करो, मेरे परायण हो जाओ; आत्मा को मेरे में लगा दो, मुझे नमस्कार करो, मेरी भक्ति करो, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में मुझे परिव्याप्त समझो (मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणाः ॥ (ब्राह्मपर्व ६२ । १९; गीता ९ ।३४), ऐसा करनेसे तुम्हारे सम्पूर्ण दोषों का विनाश हो जायगा और तुम मुझे प्राप्त कर लोगे । भली-भाँति मुझमें आसक्त हो जानेपर राग-लोभादि दोषों के नाश हो जानेसे कृतकृत्यता हो जाती है । अपने मन को स्थिर करने के लिये सोना, चाँदी, ताम्र, पाषाण, काष्ठ आदिसे मेरी प्रतिमा का निर्माण कराकर या चित्र ही लिखकर विविध उपचारों से भक्तिपूर्वक पूजन करो । सर्वभाव से प्रतिमा का आश्रय ग्रहण करो । चलते-फिरते, भोजन करते, आगे-पीछे, ऊपर-नीचे उसीका ध्यान करो, उसे पवित्र तीर्थो के जलसे स्नान कराओ । गन्ध, पुष्प, वस्त्र, आभूषण, विविध नैवेद्य और जो पदार्थ स्वयं को प्रिय हो उन्हें अर्पण करो । इन विविध उपचारों से मेरी प्रतिमा को संतुष्ट करो । कभी गाने की इच्छा हो तो मेरी मूर्ति के आगे मेरा गुणानुवाद गाओ, सुनने की इच्छा हो तो हमारी कथा सुनो । इसप्रकार मुझ में अपने मनको अर्पण करने से तुम्हें परमपद की प्राप्ति हो जायगी । सभी कर्म मुझमे अर्पण करो, डरने की कोई बात नहीं । मुझ में मन लगाओ, जो कुछ करो मेरे लिये करो, ऐसा करने से तुम ब्रह्महत्या आदि सभी दोष पापों से रहित होकर मुक्त हो जाओगे, इसलिये तुम इस क्रिया योग का आश्रय ग्रहण करो । दिण्डी बोले – महाराज ! इस अमृतरूप क्रियायोग को आप विस्तार से कहें, क्योंकि आप के बिना कोई भी इसे बतलाने में समर्थ नहीं है । यह अत्यन्त गोपनीय और पवित्र है । भगवान् सूर्यने कहा – तुम चिन्ता मत करो । इस सम्पूर्ण क्रियायोग का ब्रह्माजी तुमको विस्तारपूर्वक उपदेश करेंगे और मेरी कृपा से तुम इसे ग्रहण करोगे । इतना कहकर तीनों लोकों के दीपस्वरुप भगवान् सूर्य अन्तर्हित हो गए और दिण्डी भी ब्रह्माजी के धाम को चले गये । ब्रह्मलोक पहुँचकर दिण्डी सुरज्येष्ठ चतुर्मुख ब्रह्माजी को प्रणाम कर कहने लगे । दिण्डी ने प्रार्थनापूर्वक कहा – ब्रह्मन् ! मुझे भगवान् सूर्यदेव ने आप के पास भेजा है । आप कृपाकर मुझे क्रियायोग का उपदेश करें, जिसके सहारे मैं शीघ्र ही भगवान् सूर्य को प्रसन्न कर सकूँ । ब्रह्माजी बोले – गणाधिप ! भगवान् सूर्य का दर्शन करते ही तुम्हारी ब्रह्महत्या तो नष्ट हो गयी । तुम भगवान् सूर्य के कृपापात्र हो । यदि सूर्यनारायण की आराधना करने की इच्छा है तो प्रथम दीक्षा ग्रहण करो, क्योंकि दीक्षा के बिना उपासना नहीं होती । अनेक जन्मों के पुण्य से भगवान् सूर्य में भक्ति होती है । जो पुरुष भगवान् सुर्य से द्वेष रखता है, ब्राह्मण तथा वेद की निन्दा करता है, उसे अवश्य ही अधम पुरुष से उत्पन्न समझो । माया के प्रभाव से ही अधम पुरुषों की कुकर्म में प्रवृत्ति होती है और उनके स्वल्प शेष रहनेपर सूर्य की आराधना के लिये दीक्षा की इच्छा होती है । इस भवसागर में डूबनेवाले पुरुषों का हाथ पकड़कर उद्धार करनेवाले एकमात्र भगवान् सूर्य ही है । इसलिये तुम दीक्षा ग्रहण कर भगवान् सूर्य में तन्मय होकर उनकी उपसना करो, इससे शीघ्र ही भगवान् सूर्य तुम पर अनुग्रह करेंगे । दिण्डी ने पूछा – महाराज ! दीक्षा का अधिकारी कौन पुरुष है और दीक्षा-ग्रहण करने के बाद क्या करना चाहिये । कृपया आप इसे बतायें । ब्रह्माजी ने कहा – दिण्डिन् ! दीक्षा-ग्रहण की इच्छावाले व्यक्ति को मन, वचन और कर्म से हिंसा नहीं करनी चाहिये । सूर्यभगवान् में भक्ति करनी चाहिये, दीक्षित ब्राह्मणों को सदा नमस्कार करना चाहिये, किसीसे द्रोह नहीं करना चाहिये । सभी प्राणियों को सूर्य के रूप के समझना चाहिये । देव, मनुष्य, पशु, पक्षी, चींटी,वृक्ष, पाषाण आदि जगत् के सभी पदार्थों और आत्मा को सूर्य से भिन्न न समझकर मन, वचन और कर्म से जीवों में पापबुद्धि नहीं करनी चाहिये – ऐसा ही पुरुष दीक्षा का अधिकारी होता है । जो गति सूर्यनारायण की आराधना से प्राप्त होती है, वह न तो तपसे मिलती है और न बहुत दक्षिणावाले यज्ञों के करनेसे । सभी प्रकार से जो भगवान् सूर्य का भक्त हैं, वह धन्य है । उस सूर्यभक्त के अनेक कुलों का उद्धार हो जाता है । जो अपने हृदयप्रदेश में भगवान् सूर्य की अर्चा करता है, वह निष्पाप होकर सूर्यलोक को प्राप्त करता है । सूर्य का मन्दिर बनानेवाला अपनी सात पीढ़ियों को सूर्यलोक में निवास कराता है और जितने वर्षों तक मन्दिर में पूजा होती है, उतने हजार वर्षों तक वह सूर्यलोक में आनन्द का भोग करता है । निष्कामभाव से सूर्य की उपासना करनेवाला व्यक्ति मुक्ति को प्राप्त करता है । जो उत्तम लेप, सुन्दर पुष्प, अतिशय सुगन्धित धूप प्रतिदिन सूर्यनारायण को अर्पित करता है, वह यज्ञ के फलको प्राप्त करता है । यज्ञ में बहुत सामग्रियों की अपेक्षा रहती है, इसलिये मनुष्य यज्ञ नहीं कर सकते, परन्तु भक्तिपूर्वक दुर्वा से भी सूर्यनारायण की पूजा करनेसे यज्ञ करनेसे भी अधिक फलकी प्राप्ति हो जाती है – बहुपकरणा यज्ञा नानासम्भारविस्तराः ॥ न दिण्डिन्नवाप्यन्ते मनष्यैरल्पसंचयैः । भक्त्या तु पुरुषैः पूजा कृता दुर्वाङ्कुरैरपि । भानोर्ददाति हि फलं सर्वयज्ञैः सुदुर्लभम् ॥ (ब्राह्मपर्व ६३ । ३२-३३) दिण्डिन् ! गन्ध, पुष्प, धुप, वस्त्र, आभूषण तथा विविध प्रकार के नैवेद्य जो भी प्राप्त हों और तुम्हें जो प्रिय हो, उन्हें भक्तिपूर्वक सूर्यनारायण को निवेदित करो । तीर्थ के जल, दही, दूध, घृत, शर्करा और शहद से उन्हें स्नान कराओ । गीत-वाद्य, नृत्य, स्तुति, ब्राह्मण-भोजन, हवन आदिसे भगवान् को प्रसन्न करो, किन्तु सभी पूजाएँ भक्तिपूर्वक होनी चाहिये । मैंने भगवान् सूर्य की आराधना करके ही सृष्टि की है । विष्णु उनके अनुग्रह से ही जगत् का पालन करते हैं और रूद्र ने उनकी प्रसन्नता से ही संहार-शक्ति प्राप्त की है । ऋषिगण भी उनके ही कृपाप्रसाद को प्राप्तकर मन्त्रों का साक्षात्कार करनेमें समर्थ होते हैं । इसलिये तुम भी पूजन, व्रत, उपवास आदिसे वर्ष-पर्यन्त भगवान् सूर्य की आराधना करो, जिससे सभी क्लेश दूर हो जायेंगे और तुम शान्ति प्राप्त करोगे । (क्रियायोग का वर्णन सभी पुराणों में मिलता है, विशेषरुप से पद्मपुराण का क्रियायोगसार-खण्ड दृष्टव्य है।) (अध्याय ६१ से ६३) See Also :- 1. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १-२ 2. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय 3 3. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४ 4. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५ 5. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ६ 6. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ७ 7. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ८-९ 8. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १०-१५ 9. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १६ 10. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १७ 11. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १८ 12. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १९ 13. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २० 14. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१ 15. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २२ 16. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २३ 17. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २४ से २६ 18. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २७ 19. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २८ 20. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २९ से ३० 21. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३१ 22. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३२ 23. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३३ 24. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३४ 25. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३५ 26. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३६ से ३८ 27. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३९ 28. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४० से ४५ 29. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४६ 30. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४७ 31. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४८ 32. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४९ 33. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५० से ५१ 34. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५२ से ५३ 35. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५४ 36. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५५ 37. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५६-५७ 38. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५८ 39. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५९ से ६० Related