भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ६४
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय – ६४
भगवान् सूर्य के व्रतों के अनुष्ठान तथा उनके मन्दिरों में अर्चन-पूजन की विधि तथा फल-सप्तमी-व्रत का फल

दिण्डी ने ब्रह्माजी से पूछा – ब्रह्मन् ! आपने आदित्य- क्रियायोग को मुझे बतलाया, अब आप यह बतलाने की कृपा करें कि भगवान् सूर्य उपवास से कैसे प्रसन्न होते हैं ? उपवास करनेवालों के लिये क्या-क्या त्याज्य है ? आराधना में क्या-क्या करना चाहिये, इसका आप विस्तारपूर्वक वर्णन करें ।om, ॐ

ब्रह्माजी बोले – दिण्डिन् ! भगवान् सूर्य पुष्प आदि द्वारा पूजन करने से ही प्रसन्न हो जाते हैं और उत्तम फल देते हैं । पापों से रहित होकर सद्गुणों का आश्रय ग्रहण कर, सभी भोगों का परित्याग करना ही उपवास कहलाता है  उपावृतस्य पापेभ्यो यस्तु वासो गुणैः सह । उपवासः स विज्ञेयः सर्वभोगविवर्जितः ॥ (ब्राह्मपर्व ६४ । ४)अतः ऐसे उपवास से क्यों नहीं मनोवाञ्छित फल प्राप्त होगा ? एक रात, दो रात, तीन रात या नक्त-व्रत करनेवाला निष्काम होकर उपवासकर मन, वचन और कर्म से सूर्यनारायण की आराधना में तत्पर रहे तो ब्रह्मलोक को प्राप्त कर सकता है । यदि साधक किसी कामनासे दत्तचित्त होकर भगवान् सूर्य की उपासना करता है तो प्रसन्न होकर भगवान् उसकी कामना पूर्ण कर देते हैं । अन्धकार का नाश करनेवाले जगदात्मा सूर्यनारायण की तन्मयतापूर्वक आराधना के बिना किसी प्रकार भी सद्गति नहीं मिलती । अतः पुष्प, धूप, चन्दन, नैवेद्य आदिसे भक्तिपूर्वक सूर्य की पूजा और उनकी प्रसन्नता के लिये उपवास करना चाहिये । उत्तम पुष्प के न मिलनेपर वृक्षों के कोमल पत्ते अथवा दुर्वाङ्कुर से पूजन करना चाहिये । पुष्प, पत्र, फल, जल जो भी यथाशक्ति मिले, उसे ही भक्ति के साथ भगवान् सूर्य को अर्पण करना चाहिये । इससे भगवान् सूर्य को अतुल तुष्टि प्राप्त होती है । सूर्यनारायण के मन्दिर में सदा झाड़ू देनेपर धूलि में जितनी कणिकाएँ होती है, उतने समयतक सूर्य के समान होकर वह स्वर्ग में रहता है । मन्दिर के छोटे भाग का भी मार्जन करनेपर उस दिन के पाप से व्यक्ति मुक्त हो जाता है । जो गोमय से, मृत्तिका अथवा अन्य धातुओं के चूर्णों से मन्दिर में उपलेपन करता है, वह विमानपर चढ़कर सूर्यलोक में जाता है । मन्दिर में जलसे छिड़काव करनेवाला वरुणलोक में निवास करता है । जो लेपन किये हुए मन्दिर में पुष्प बिखेरता है, वह कभी दुर्गति नहीं प्राप्त करता । मन्दिर में दीपक प्रज्वलित करनेवाला व्यक्ति सभी ऋतुओं में सुखप्रद सवारी प्राप्त करता है । ध्वजा चढानेवाले के ज्ञात और अज्ञात सभी पाप पताका के वायु से हिलनेपर नष्ट हो जाते हैं । गीत, वाद्य और नृत्य के द्वारा मन्दिर में उत्सव करनेवाला उत्तम विमान में बैठता है, गन्धर्व और अप्सराएँ उसके आगे गान और नृत्य करती हैं । जो मन्दिर में पुराण का पाठ करता है, उसे श्रेष्ठ बुद्धि की प्राप्ति होती है और वह जातिस्मर (सभी जन्मों की बात जाननेवाला) हो जाता है । दिण्डिन् ! सूर्य की आराधना से जो चाहो वह प्राप्त कर सकते हो । इनकी आराधना से जो चाहो वह प्राप्त कर सकते हो । इनकी आराधना से कई लोग गन्धर्व, कतिपय विद्याधर, कतिपय देवता बन गए हैं । इन्द्र ने इनकी आराधना से ही इन्द्रपद प्राप्त किया है । ब्रह्मचारी, गृहस्थ और वानप्रस्थ एवं स्त्रियों के ये ही उपास्य हैं । जितेन्द्रिय संन्यासी भी इनके अनुग्रह से ही मुक्ति को प्राप्त करते हैं, क्योंकि ये ही मोक्ष के द्वार हैं । इस तरह सभी वर्ण और आश्रमों के आश्रय एवं परमगति भगवान् सूर्य ही हैं ।

दिण्डिन् ! अब मैं काम्य उपवास और फल-सप्तमी का वर्णन करता हूँ । फल-सप्तमी का व्रत करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और सूर्यलोक की प्राप्ति होती है । भाद्रपद मास की शुक्ल चतुर्थी को अयाचित व्रत कर पञ्चमी को एक बार भोजन करे, षष्ठी को जितक्रोध, जितेन्द्रिय होकर पूर्ण उपवास करे और भक्ति के साथ सभी सामग्रियों से सूर्यनारायण की पूजा करे । रात में भगवान् सूर्य के सम्मुख पृथ्वीपर शयन करे । सप्तमी को सूर्य भगवान् का ध्यान करते हुए प्रातः उठकर स्नान-पूजन करे और खजूर, नारियल, आम, मातुलुंग आदि नैवेद्यों का भोग लगाये और ब्राह्मण को दे तथा स्वयं भी प्रसाद के रूप में उन्हें ग्रहण करे । यदि ये फल न मिले तो शालि (चावल)- का या गेहूँ का आटा लेकर उसमे गुड़ मिलाये और घीमें पकाकर उनका ही भगवान् सूर्य को भोग लगाये, अनन्तर हवन कर ब्राह्मण-भोजन कराये । इसप्रकार एक वर्षतक सप्तमीका व्रत कर अन्तमें उद्यापन करे । गोमूत्र, गोमय गोदुग्ध, दही, घी, कुश का जल, श्वेत मृत्तिका, तिल और सरसों का उबटन, दूर्वा, गौ के सींग का जल, चमेली के फूल के रस – इनसे स्नान करे और इनका ही प्राशन करे । ये सभी पापों का हरण करनेवाले हैं । सभी प्रकार के फल, सस्यसम्पन्न भूमि, धान्ययुक्त भवन, बछड़े के साथ गौ, विद्रुम के साथ ताम्रपात्र और श्वेत वस्त्र ब्राह्मणों को दे । जो शक्ति सम्पन्न हो वह चाँदी अथवा आटे के पिष्टक, फल तथा दो वस्त्र दे । सोना, रत्न और वस्त्र आचार्य को दे । ब्राह्मणों को भोजन कराये । इसप्रकार व्रत को सम्पन्न करे । यह फल-सप्तमी का विधान कहा गया है ।

यह अतिशय पुण्यमयी सप्तमी सभी पापों का नाश करनेवाली है । इस दिन उपवासकर मनुष्य सूर्यलोक को प्राप्त करता है । वहाँ देव, गन्धर्व और अप्सराओं के साथ पूजित होता है । इस व्रत को जो करता है, वह पाप, दरिद्रता और सभी प्रकार के दुःखों से मुक्त हो जाता है । इस व्रत के करनेसे ब्राह्मण मुक्ति, क्षत्रिय इन्द्रलोक, वैश्य कुबेर-लोक में निवास करता है । शुद्र इस व्रत के करने से द्विजत्व प्राप्त कर लेता है । पुत्रहीन पुत्र प्राप्त करता है, दुर्भगा सौभाग्यशालिनी होती है और विधवा नारी अगले जन्म में वैधव्य प्राप्त नहीं करती । इस फल सप्तमी को समस्त वाञ्छित पदार्थों को प्रदान करनेवाली चिन्तामणि के समान समझना चाहिये । इस फल-सप्तमी की कथा के श्रवण अथवा व्रत करनेवालों की सभी इच्छाएँ पूर्ण हो जाती हैं ।
(अध्याय ६४)

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38. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५८

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