भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ६६ से ६७
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय – ६६ से ६७
शंख एवं द्विज, वसिष्ठ एवं साम्ब तथा याज्ञवल्क्य और ब्रह्मा के संवाद में आदित्य की आराधना का माहात्म्य-कथन, भगवान् सूर्य की ब्रह्मरूपता

राजा शतानीक ने कहा – मुने ! आप भगवान् सूर्यनारायण के प्रभाव का और भी वर्णन करें । आपकी अमृतमयी वाणी सुन-सुनकर मुझे तृप्ति नहीं हो रही है ।

सुमन्तुजी ने कहा – राजन् ! इस विषय में शंख और द्विजका जो संवाद हुआ है, उसे आप सुनें, जिसे सुनकर मानव सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है ।om, ॐएक अत्यन्त रमणीय आश्रम था, जिसमें सभी वृक्ष फलों के भार से झुक रहे थे । कहीं मृग अपनी सींगों से परस्पर एक-दुसरे के शरीर में खुजला रहे थे, किसी दिशा में मयूरों का नृत्य और भ्रमरों की मधुर ध्वनि का गुंजार हो रहा था । ऐसे मनोहारी आश्रम में अनेक तपस्वियों से सेवित भगवान् सूर्य के अनन्य भक्त शंख नामके एक मुनि रहते थे । एक बार भोजक-कुमारों ने मुनि के समीप जाकर विनयपूर्वक अभिवादन कर निवेदन किया – महाराज ! वेदों के विषय में हमे संदेह है । आप उसका निवारण करें । उन विनयी भोजकों की इस प्रार्थना को सुनकर प्रसन्न हुए शंखमुनि उन सभी को वेदाध्ययन कराने लगे । एक दिन वे सभी कुमार वेदका अध्ययन कर रहे थे, उसी समय परम तपस्वी द्विज नाम के एक श्रेष्ठ मुनि वहाँ आये । अमित तेजस्वी उन शंख मुनि ने उनकी विधिवत् अर्चना की और उन्हें आसन पर बैठाया । उन कुमारों ने भी उनकी वन्दना की, जिससे द्विज बहुत प्रसन्न हुए ।

शंख मुनि ने उन भोजक-कुमारों से कहा – शिष्ट पुरुष के आगमन से अनध्याय होता है । अतः तुम सब इस समय अपना अध्ययन समाप्त करो । यह सुनते ही कुमारों ने अपने-अपने ग्रन्थ बंद कर दिये ।

द्विज ने शंख मुनि से पूछा – ये बालक कौन हैं और क्या पढ़ते हैं ?

शंख मुनिने कहा – महाराज ! ये भोजक-कुमार हैं । सूत्र और कल्प के साथ चारों वेद, सूर्यनारायण के पूजन और हवन का विधान, प्रतिष्ठा-विधि, रथयात्रा की रीति तथा सप्तमी तिथि के कल्प का ये अध्ययन कर रहें हैं ।

द्विज ने पुनः पूछा – मुने ! सप्तमी-व्रत का क्या विधान है और भगवान् सूर्य के अर्चन की क्या विधि है ? सूर्य-मंदिर में गन्ध, पुष्प, दीप आदि देनेसे क्या फल प्राप्त होता है ? किस व्रत, नियम और दान से भगवान् सूर्य प्रसन्न होते हैं ? उन्हें कौन-से पुष्प-धूप तथा उपहार दिये जाते हैं ? यह सब मैं सुनना चाहता हूँ, इसे आप बतायें । सूर्यनारायण के माहात्म्य की भी विशेषरूप से चर्चा करें ।

शंख मुनि ने कहा – इस प्रसंग में मैं महाराज साम्ब और महर्षि वसिष्ठ के संवाद का वर्णन कर रहा हूँ ।
एक बार साम्ब महर्षि वसिष्ठ के पवित्र आश्रम पर गये । वहाँ जाकर उन्होंने नियतात्मा वसिष्ठ के चरणों में प्रणाम किया और वे हाथ जोड़कर विनीत भाव से खड़े हो गये । मर्शी वसिष्ठ ने भी उनके भक्तिभाव को देखकर प्रसन्न-मनसे उनसे पूछा ।

वसिष्ठ बोले – साम्ब ! तुम्हारा तो सम्पूर्ण शरीर भयंकर कुष्ठ-रोग से विदीर्ण हो गया था, यह सर्वथा रोगमुक्त कैसे हुआ और तुम्हारे शरीरकी दिव्य कान्ति एवं शोभा कैसे बढ़ गयी ? यह सब मुझे बताओ ।

साम्ब ने कहा – महाराज ! मैंने भगवान् सूर्यनारायण की आराधना उनके सहस्रनामों द्वारा की है । उसी आराधना के प्रभाव से उन्होंने प्रसन्न होकर, मुझे साक्षात् दर्शन दिया है और उनसे मुझे वर की भी प्राप्ति हुई है ।

वसिष्ठ ने पुनः पूछा – तुमने किस विधि से सूर्य की आराधन की है ? तुम्हें किस व्रत, तप अथवा दान से उनका साक्षात् दर्शन हुआ ? यह सब विस्तार से बतलाओ ।

साम्ब ने कहा – महाराज ! जिस विधि से मैंने भगवान् सूर्य को प्रसन्न किया है, वह समस्त वृत्तान्त आप ध्यानपूर्वक सुनें ।
आज से बहुत पहले मैंने अज्ञानवश दुर्वासा मुनि का उपहास किया था । इसलिये क्रोध में आकर उन्होंने मुझे कुष्ठरोग से ग्रस्त होने का शाप दे दिया, जिससे मैं कुष्ठरोगी हो गया । तब अत्यन्त दुःखी एवं लज्जित होते हुये मैंने अपने पिता भगवान् श्रीकृष्ण के पास जाकर निवेदन किया – ‘तात ! मैं दुर्वासा मुनिके शाप से कुष्ठरोग से ग्रस्त होकर अत्यधिक पीड़ित हो रहा हूँ, मेरा शरीर गलत जा रहा है । कण्ठ का स्वर भी बैठता जा रहा है । पीड़ा से प्राण निकल रहे हैं । वैद्यों आदिके द्वारा उपचार करानेपर भी मुझे शान्ति नहीं मिलती । अब आपकी आज्ञा प्राप्त कर मैं प्राण त्यागना चाहता हूँ । अतः आप मुझे यह आज्ञा देने की कृपा करें, जिससे मैं इस कष्ट से मुक्त हो सकूँ ।’ मेरा यह दीन वचन सुनकर उन्हें बड़ा दुःख हुआ और उन्होंने क्षणभर विचार कर मुझसे कहा – ‘पुत्र ! धैर्य धारण करो, चिन्ता मत करो, क्योंकि जैसे सूखे तिनके को आग जलाकर भस्म कर देती है, वैसे ही चिन्ता करने से रोग और अधिक कष्ट देता है । भक्तिपूर्वक तुम देवाराधन करो । उससे सभी रोग नष्ट हो जायँगे ।’ पिता के ऐसे वचन सुनकर मैंने पूछा – ‘तात ! ऐसा कौन देवता हैं, जिसकी आराधना करनेसे इस भयंकर रोग से मैं मुक्ति पा सकूँ ?’

भगवान् श्रीकृष्ण बोले – पुत्र ! एक समय की बात है, योगि-श्रेष्ठ याज्ञवल्क्य मुनि ने ब्रह्मलोक में जाकर पद्मयोनि ब्रह्माजी को प्रणाम किया और उनसे पूछा कि महाराज ! मोक्ष प्राप्त करने के इच्छुक प्राणी को किस देवता की आराधना करनी चाहिये ? अक्षय स्वर्ग की प्राप्ति किस देवता की उपासना करने से होती है ? यह चराचर विश्व किससे उत्पन्न हुआ है और किसमें लीन होता है ? इस सबका आप वर्णन करें ।

ब्रह्माजी बोले – महर्षे ! आपने बहुत अच्छा प्रश्न पूछा है । यह सुनकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ । मैं आपके प्रश्नों का उत्तर दे रहा हूँ, इसे ध्यानपूर्वक सुने –
जो देवश्रेष्ठ अपने उदय के साथ ही समस्त जगत् का अन्धकार नष्ट कर तीनों लोकों को प्रतिभासित कर देते हैं, वे अजर-अमर, अव्यय, शाश्वत, अक्षय, शुभ-अशुभ के जाननेवाले, कर्मसाक्षी, सर्वदेवता और जगत् के स्वामी हैं । उनका मण्डल कभी क्षय नहीं होता । वे पितरों के पिता, देवताओं के भी देवता, जगत् के आधार, सृष्टि, स्थिति तथा संहारकर्ता हैं । योगी पुरुष वायुरूप होकर जिनमें लीन हो जाते हैं, जिसकी सहस्र रश्मियों में मुनि, सिद्धगण और देवता निवास करते हैं, जनक, व्यास, शुकदेव, बालखिल्य, आदि ऋषिगण, पञ्चशिख आदि योगीगण जिनके प्रभामण्डल में प्रविष्ट हुए हैं, ऐसे वे प्रत्यक्ष देवता सूर्यनारायण ही हैं । ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदिका नाम तो मात्र सुनने में ही आता है, पर सभीको वे दृष्टिगोचर नहीं होते, किन्तु तिमिरनाशक सूर्यनारायण सभी को प्रत्यक्ष दिखायी देते हैं । इसलिये ये सभी देवताओं में श्रेष्ठतम हैं । अतः याज्ञवल्क्य ! आपको भी सूर्यनारायण के अतिरिक्त अन्य किसी देवता की उपासना नहीं करनी चाहिये । इन प्रत्यक्ष देवता की आराधना करने से सभी फल प्राप्त हो सकते हैं ।

याज्ञवल्क्य मुनि ने कहा – महाराज ! आपने मुझे बहुत ही उत्तम उपदेश दिया है, जो बिलकुल सत्य है, मैंने पहले भी बहुत बार सूर्यनारायण के माहात्म्य को सुना है । जिनके दक्षिण अङ्ग से विष्णु, वाम अङ्ग से स्वयं आप और ललाट से रूद्र उत्पन्न हुए हैं, उनकी तुलना और कौन देवता कर सकते हैं ? उनके गुणों का वर्णन भला किन शब्दों में किया जा सकता है ? अब मैं उनकी उस आराधना-विधि को सुनना चाहता हूँ, जिसके द्वारा मैं संसार-सागर को पार कर जाऊँ । वे कौन-से-व्रत-उपवास-दान, होम-जप आदि हैं, जिनके करने से सूर्यनारायण प्रसन्न होकर समस्त कष्टों को दूर कर देते हैं ? यह सब आप बतलाने की कृपा करें; क्योंकि प्राणियों द्वारा धर्म, अर्थ तथा काम की प्राप्ति के लिये जो चेष्टाएँ की जाती हैं, उनमें वही चेष्टा सफल है जो भगवान् सूर्य का आश्रय ग्रहण कर अनुष्ठित हो; अन्यथा वे सभी क्रियाएँ व्यर्थ हैं । इस अपार घोर संसार-सागर में निमग्न प्राणियों द्वारा एक बार भी किया गया सूर्य-नमस्कार मुक्ति को प्राप्त करा देता हैं (दुर्गसंसारकान्तारमपारमभिधावताम् । एकः सूर्यनमस्कारो मुक्तिमार्गस्य देशकः ॥ ब्राह्मपर्व ६६ । ७२)। भक्तिभाव से परिपूर्ण याज्ञवल्क्य के इन वचनों को सुनकर ब्रह्माजी प्रसन्न हो उठे और कहने लगे कि याज्ञवल्क्य ! आपने सूर्यनारायण की आराधना का जो उपाय पूछा है, उसका मैं वर्णन कर रहा हूँ, एकाग्रचित्त होकर आप सुनें ।

ब्रह्माजी बोले – आदि और अन्त से रहित, सर्वव्याप्त, परब्रह्म अपनी लीलासे प्रकृति-पुरुष-रूप धारण करके संसार को उत्पन्न करनेवाले, अक्षर, सृष्टि-रचनाके समय ब्रह्मा, पालन के समय विष्णु और संहारकाल में रूद्र का रूप धारण करनेवाले सर्वदेवमय, पूज्य भगवान् सूर्यनारायण ही हैं । अब मैं भेदाभेदस्वरुप उन भगवान् सूर्य को प्रणाम करके उनकी आराधना का वर्णन करूँगा, यह अत्यन्त गुप्त है, जिसे प्रसन्न होकर भगवान् भास्कर ने मुझसे कहा था ।

ब्रह्माजी पुनः बोले – याज्ञवल्क्य ! एक बार मैंने भगवान् सूर्यनारायण की स्तुति की । उस स्तुतिसे प्रसन्न होकर वे प्रत्यक्ष प्रकट हुए, तब मैंने उनसे पूछा कि महाराज ! वेद-वेदाङ्गों में और पुराणों में आपका ही प्रतिपादन हुआ है । आप शाश्वत, अज तथा परब्रह्मस्वरुप हैं । यह जगत् आप में ही स्थित है । गृहस्थाश्रम जिनका मूल है, ऐसे वे चारों आश्रमों वाले रात-दिन आपकी अनेक मूर्तियों का पूजन करते हैं । आप ही सबके माता-पिता और पूज्य हैं । आप किस देवता का ध्यान एवं पूजन करते हैं ? मैं इसे नहीं समझ पा रहा हूँ, इसे मैं सुनना चाहता हूँ, मेरे मन में बड़ा कौतूहल है ।

भगवान् सूर्य ने कहा – ब्रह्मन् ! यह अत्यन्त गुप्त बात है, किन्तु आप मेरे परम भक्त हैं, इसलिये मैं इसका यथावत् वर्णन कर रहा हूँ – वे परमात्मा सभी प्राणियों में व्याप्त, अचल, नित्य, सूक्ष्म तथा इन्द्रियातीत हैं, उन्हें क्षेत्रज्ञ, पुरुष, हिरण्यगर्भ, महान्, प्रधान तथा बुद्धि आदि अनेक नामों से अभिहित किया जाता है । जो तीनों लोकों के एकमात्र आधार हैं, वे निर्गुण होकर भी अपनी इच्छासे सगुण हो जाते हैं, सबके साक्षी हैं, स्वतः कोई कर्म नहीं करते और न तो कर्मफलकी प्राप्ति से संलिप्त रहते हैं । वे परमात्मा सब ओर सिर, नेत्र, हाथ, पैर, नासिका, कान तथा मुखवाले हैं, वे समस्त जगत् को आच्छादित करके अवस्थित हैं तथा सभी प्राणियों में स्वच्छन्द होकर आनन्दपूर्वक विचरण करते हैं ।

शुभाशुभ कर्मरूप बीजवाला शरीर क्षेत्र कहलाता हैं । इसे जानने के कारण परमात्मा क्षेत्रज्ञ कहलाते हैं । वे अव्यक्तपुर में शयन करनेसे पुरुष, बहुत रूप धारण करनेसे विश्वरूप और धारण-पोषण करने के कारण महापुरुष कहे जाते हैं । ये ही अनेक रूप धारण करते हैं । जिस प्रकार एक ही वायु शरीरमें प्राण-अपान आदि अनेक रूप धारण किये हुए है और जैसे एक ही अग्नि अनेक स्थान-भेदों के कारण अनेक नामों से अभिहित की जाती है, उसीप्रकार परमात्मा भी अनेक भेदों के कारण बहुत रूप धारण करते हैं । जिसप्रकार एक दीप से हजारों दीप प्रज्वलित हो जाते हैं, इसीप्रकार एक परमात्मा से सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न होता है । जब वह अपनी इच्छा से संसार का संहार करता है, तब फिर एकाकी ही रह जाता है । परमात्मा को छोड़कर जगत् में कोई स्थावर या जंगम पदार्थ नित्य नहीं है, क्योंकि वे अक्षय, अप्रमेय और सर्वज्ञ कहे जाते हैं । उनसे बढकर कोई अन्य नहीं है, वे ही पिता हैं, वे ही प्रजापति हैं, सभी देवता और असुर आदि उन परमात्मा भास्करदेव की आराधना करते हैं और वे उन्हें सद्गति प्रदान करते हैं । वे सर्वगत होते हुए भी निर्गुण हैं । उसी आत्मस्वरूप परमेश्वर का मैं ध्यान करता हूँ तथा सूर्यरूप अपने आत्मा का ही पूजन करता हूँ । हे याज्ञवल्क्य मुने ! भगवान् सूर्य ने स्वयं ही ये बातें मुझसे कही थीं ।
( अध्याय ६६ से ६७)

See Also :-

1. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १-२

2. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय 3

3. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४

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7. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ८-९

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13. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २०

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17. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २४ से २६

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24. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३४

25. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३५

26. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३६ से ३८

27. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३९

28. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४० से ४५

29. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४६

30. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४७

31. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४८

32. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४९

33. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५० से ५१

34. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५२ से ५३

35. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५४

36. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५५

37. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५६-५७

38. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५८

39. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५९ से ६०

40. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय  ६१ से ६३

41. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ६४

42. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ६५

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