December 1, 2018 | aspundir | Leave a comment ॐ श्रीपरमात्मने नम : श्रीगणेशाय नम: ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) धन एवं स्त्री के तीन आश्रय तथा स्त्री-पुरुषों के पारस्परिक व्यवहार का वर्णन ब्रह्माजी बोले — मुनीश्वरो ! उत्तम रीति से विवाह सम्पन्न कर गृहस्थ को जो करना चाहिये, उसका मैं वर्णन करता हूँ। सर्वप्रथम गृहस्थ को उत्तम देश में ऐसा आश्रय ढूँढना चाहिये, जहाँ वह अपने धन तथा स्त्री की भली-भाँति रक्षा कर सके। बिना आश्रय के इन दोनों की रक्षा नही हो सकती । ये दोनों – धन एवं स्त्री – त्रिवर्ग के हेतु हैं, इसलिए इनकी प्रयत्न-पूर्वक रक्षा अवश्य करनी चाहिये। पुरुष, स्थान और घर – ये तीनों आश्रय कहलाते हैं । इन तीनों से धन आदि का रक्षण और अर्थोपार्जन होता है। कुलीन, नीतिमान्, बुद्धिमान्, सत्यवादी, विनयी, धर्मात्मा और दृढ़व्रती पुरुष आश्रय के योग्य होता है । जहाँ धर्मात्मा पुरुष रहते हों, ऐसे नगर अथवा ग्राम में निवास करना चाहिये। ऐसे स्थान में गुरुजनों की अनुमति लेकर अथवा उस ग्राम आदि में बसने वाले श्रेष्ठ-जनों की सहमति प्राप्त कर रहने के लिये अविवादित स्थल में घर बनाना चाहिये, परंतु किसी पड़ोसी को कष्ट नहीं देना चाहिये। नगर के द्वार, चौक, यज्ञशाला, शिल्पियों के रहने के स्थान, जुआ खेलने तथा मांस-मद्यादि बेचने के स्थान, पाखण्डियों और राजा के नौकरों के रहने के स्थान, देव-मन्दिर के मार्ग तथा राज-मार्ग और राजा के महल – इन स्थानों से दूर, रहने के लिए अपना घर बनाना चाहिये। स्वच्छ, मुख्य-मार्ग वाला, उत्तम-व्यवहार वाले लोगों से आवृत तथा दुष्टों के निवास से दूर – ऐसे स्थान में गृह का निर्माण करना चाहिये। गृह के भूमि की ढाल पूर्व अथवा उत्तर की ओर हो। रसोईघर, स्नानागार, गोशाला, अन्तःपुर तथा शयन-कक्ष और पूजाघर आदि सब अलग-अलग बनायें जायें। अन्तःपुर की रक्षा के लिए वृद्ध, जितेन्द्रिय एवं विश्वस्त व्यक्तियों को नियुक्त करना चाहिये। स्त्रियों की रक्षा न करने से वर्ण-संस्कार उत्पन्न होते हैं और अनेक प्रकार के दोष भी होते देखे गये हैं। स्त्रियों को कभी स्वतन्त्रता न दे और न उनपर विश्वास करे। किंतु व्यवहार में विश्वस्त के समान की चेष्टा दिखानी चाहिये। विशेषरूप से उसे पाकादी क्रियाओं में ही नियुक्त करना चाहिये। स्त्री को किसी भी समय खाली नहीं बैठना चाहिये। दरिद्रता, अति-रुपवत्ता, असत्-जनों का सङ्ग, स्वतन्त्रता, पेयादि द्रव्य का पान करना तथा अभक्ष्य-भक्षण करना, कथा, गोष्ठी आदि प्रिय लगना, काम न करना, जादू-टोना करनेवाली, भिक्षुकी, कुट्टिनी, दाई, नटी आदि दुष्ट स्त्रियों के सङ्ग उद्यान, यात्रा, निमंत्रण आदि में जाना, अत्यधिक तीर्थ-यात्रा करना अथवा देवता के दर्शनों के लिये घुमना, पति के साथ बहुत वियोग होना, कठोर व्यवहार करना, पुरुषों से अत्यधिक वार्तालाप करना, अति क्रूर, अति सौम्य, अति निडर होना, ईर्ष्यालु तथा कृपण होना और किसी अन्य स्त्री के वशीभूत हो जाना – ये सब स्त्री के दोष उसके विनाश के हेतु है। ऐसी स्त्रियों के अधीन यदि पुरुष हो जाता है तो वह भी निन्दनीय हो जाता है। यह पुरुष की अयोग्यता है की उसके भृत्य बिगड़ जाते हैं। स्वामी यदि कुशल न हो तो भृत्य और स्त्री बिगड़ जाते हैं, इसलिये समय के अनुसार यथोचित रीति से ताडन और शासन से जिस भाँती हो इनकी रक्षा करनी चाहिये। नारी पुरुष का आधा शरीर है, उसके बिना धर्म-क्रियाओं की साधना नहीं हो सकती। इस कारण स्त्री का सदा आदर करना चाहिये। उसके प्रतिकूल नही करना चाहिये। स्त्री के पतिव्रता होने के प्रायः तीन कारण देखे जाते है – (१) पर-पुरुष में विरक्ति, (२) अपने पति में प्रीति तथा (३) अपनी रक्षा में समर्थता। सतीत्वे प्रायशः स्त्रीणां प्रदृष्टं कारणत्रयम् । परपुंसामसम्प्रीतिः प्रिये प्रीतिः स्वरक्षणे ॥ (ब्राह्मपर्व ८ । ६६) उत्तम स्त्री को साम तथा दान-नीति से अपने अधीन रखे। मध्यम स्त्री को दान और भेद से और अधम स्त्री को भेद और दण्ड-नीति से वशीभूत करे। परंतु दण्ड देने के अनन्तर भी साम-दान आदि से उसको प्रसन्न कर ले। भर्ता का अहित करने वाली और व्यभिचारिणी स्त्री काल-कूट विष के समान होती है, इसलिए उसका परित्याग कर देना चाहिये । उत्तम कुल में उत्पन्न पतिव्रता, विनीत और भर्ता का हित चाहने वाली स्त्री का सदा आदर करना चाहिये। इस रीति से जो पुरुष चलता है वह त्रिवर्ग की प्राप्ति करता है और लोक में सुख पाता है। ब्रह्माजी बोले — मुनीश्वरो ! मैंने संक्षेप में पुरुषों को स्त्रियों के साथ कैसे व्यवहार करना चाहोये, यह बताया। अब पुरुषों के साथ स्त्रियों को कैसा व्यवहार करना चाहिये, उसे बता रहा हूँ आप सब सुने — पति की सम्यक् आराधना करने से स्त्रियों को पति का प्रेम प्राप्त होता है तथा फिर पुत्र तथा स्वर्ग आदि भी उसे प्राप्त हो जाते हैं, इसलिये स्त्री को पति की सेवा करना आवश्यक है। सम्पूर्ण कार्य विधिपूर्वक किये जाने पर ही उत्तम फल देते हैं और विधि-निषेध का ज्ञान शास्त्र से जाना जाता है। स्त्रियों का शास्त्र में अधिकार नहीं है और न ग्रंथो के धारण करने में अधिकार है। इसलिए स्त्री द्वारा शासन अनर्थकारी माना जाता है। शास्त्रोधिकारो न स्त्रीणां न ग्रन्थानां च धारणे । तस्मादिहान्ये मन्यन्ते तच्छासनमनर्थकम् ॥ (ब्राह्मपर्व ९ । ६) स्त्री को दुसरे से विधि-निषेध जानने की अपेक्षा रहती है। पहले तो इसे भर्ता सब धर्मों का निर्देश करता है और भर्ता के मरने के अनन्तर पुत्र उसे विधवा एवं पतिव्रता के धर्म बतलाये। बुद्धि के विकल्पों को छोडकर अपने बड़े पुरुष जिस मार्ग पर चले हों उसी पर चलने में उसका सब प्रकार से कल्याण है । पतिव्रता स्त्री ही गृहस्थ के धर्मों का मूल है । (अध्याय – ८–९) Content is available only for registered users. 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