भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १०० से १०१
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय – १०० से १०१
नन्दा-सप्तमी तथा भद्रा-सप्तमी-व्रत का विधान

ब्रह्माज़ी बोले — हे वीर ! मार्गशीर्ष मास शुक्ल पक्षकी जो सप्तमी होती है, वह नन्दा कहलाती है । वह सभीको आनन्दित करनेवाली तथा कल्याणकारिणी है । इस व्रतमें पञ्चमी तिथिको एकभुक्त और षष्ठी तिथिमें नक्तव्रत कर मनीषीलोग सप्तमी तिथिको उपवास बतलाते हैं । इस व्रतमें विद्वानों ने तीन पारणाओं के करने का उपदेश किया है । om, ॐइसके पूजन में मालती के पुष्प, सुगन्ध, चन्दन, कर्पूर और अगरु से मिश्रित धूप का प्रयोग करना चाहिये । खाँड़ के सहित दहीभातका नैवेद्य भगवान् भास्करको प्रिय है । उसी खाँड़मिश्रित दही-भात का भोजन ब्राह्मणको करवाना चाहिये । तत्पश्चात् स्वयं भी इसी भोजन को करना चाहिये । भगवान् भास्कर को धूप देनेके लिये प्रथम पारणा में विधि इस प्रकार है— पलाशके पुष्प, पक्षक धूप  कर्पूरं चन्दनं कुष्ठमगरुः सिह्लकं तथा ॥ सग्रन्थि वृषणं भीम कुंकुमं गृञ्जनं तथा । हरीतकी तथा भौम एष पक्षक उच्यते ॥ (ब्राह्मपर्व १०० । ६-७) कर्पूर, चन्दन, कुष्ठ (कुटकी), अगरु, सिह्लक, ग्रन्थिपर्णी, कस्तूरी. कुंकुम, गृञ्जन तथा हरीतकी के मेलसे पक्षक धूप बनता है । अथवा यथासामर्थ्य जो भी धूप हो सके, उसी धूपसे पूजा करनी चाहिये ।
द्वितीय पारणा में प्रबोध धूप  कृष्णागरुः सितं कंजं बालकं वृषणं तथा ॥ चन्दनं तगरो मुस्ता प्रबोधशर्करान्विता । ( ब्राह्मपर्व १०० । ८-९) कृष्णागरु, श्वेत कमल, सुगन्धबाला, कस्तूरी, चन्दन, तगरु, नागरमोथा और शर्करा मिलाकर प्रबोध धूप बनता है , शर्कराखण्डसे मिश्रित पुए का नैवेद्य सूर्यनार्ययणको अर्पित करका विधान है । खाँड़मिश्रित भोजनसे ब्राह्मणोंको भोजन भी कराना चाहिये । निम्ब-पत्र का प्राशन करनेके पश्चात् स्वयं भी मौन होकर भोजन करना चाहिये ।

तृतीय पारणामें भगवान् भास्करको प्रसन्न करने के लिये नील या श्वेत कमल और गुग्गुलके धूप तथा पायस का नैवेद्य अर्पित करना चाहिये । प्राशन तथा विलेपनमें भी चन्दनके उपयोगकी विधि कही गयी है ।

मनुष्यों को सदा पवित्र करनेवाले भगवान् सूर्यनारायणके नामोंको भी सुनें— विष्णु, भग तथा धाता —ये उनके नाम हैं । प्रत्येक पारणा में क्रमशः ‘विष्णुः प्रीयताम्’ इत्यादि उच्चारण करना चाहिये । इस विधिसे जो मनुष्य दत्तचित्त होकर भगवान् भास्करकी पूजा करता है, वह इस लोकमें अपनी कामनाओं पूर्ण करके अनन्तकालतक आनन्दित रहता है । तत्पश्चात् सूर्यलोकमें जाकर वह वहाँ भी आनन्द प्राप्त करता है ।
ब्रह्माजी बोले — शुक्ल पक्ष सप्तमी तिथिको जब हस्त नक्षत्र हो तो वह भद्रा-सप्तमी कही जाती है । उस दिन भगवान् सूर्यदेव को पहले घी से, अनन्तर दूधसे तत्पश्चात् इक्षुरससे स्नान कराकर चन्दनका लेप करना चाहिये । तत्पश्चात् उन्हें गुग्गुलका धूप दिखाये । चतुर्थी तिथिको एकभुक्त तथा पञ्चमी तिथि को नक्तव्रत करनेका विधान है। षष्ठी तिथिको अयाचित रहकर सप्तमी तिथिको उपवास रखना श्रेष्ठ कहा गया है । सप्तमी व्रतका पालन करनेवाले मनुष्यको चाहिये कि वह उस व्रतके दिन पाखण्डी, सत्कर्मों से दूर करनेवाले, विडाल-वृत्तिका आचरण करनेवाले मनुष्योंसे दूर रहे । बुद्धिमान् व्यक्ति सप्तमी-व्रतका पालन करते हुए दिनमें शयन न करे । इस विधिसे जो मनुष्य भद्रा-सप्तमी का व्रत करता है, उसे ऋभु नामक देवता सदा समस्त कल्याणकी वस्तुएँ प्रदान करते हैं । जो मनुष्य इस तिथिको शालिचूर्ण से भद्र (वृषभ) बनाकर सूर्यदेवको समर्पित करता है, उसको भद्र पुत्र प्राप्त होता है और वह जीवन-पर्यन्त आनन्दित रहता है । जो मनुष्य भक्तिपूर्वक सप्तमी-कल्प को प्रारम्भसे सुनता है, वह अश्वमेधयज्ञके फलको प्राप्त करनेके पश्चात् परमपदमोक्षको प्राप्त होता है ।
(अध्याय १००-१०१)

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