भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १०२
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय – १०२
तिथियों और नक्षत्रोंके देवता तथा उनके पूजनका फल

सुमन्तु मुनि बोले — राजन् ! यद्यपि भगवान् सूर्य को सभी तिथियाँ प्रिय है, किंतु सप्तमी तिथि विशेष प्रिय है ।

शतानीक ने पूछा — जब भगवान् सूर्य को सभी तिथियाँ प्रिय हैं तो सप्तमी में ही यज्ञ, दान आदि विशेष रूप से क्यों अनुष्ठित होते हैं ?om, ॐसुमन्तु मुनि ने कहा — राजन् ! प्राचीन काल में इस विषय में भगवान् विष्णु ने सुरज्येष्ठ ब्रह्माजी से जो प्रश्न किये थे और ब्रह्माजी ने जैसा बतलाया था, उसे मैं आपको बताता हूँ । आप श्रवण करें —

ब्रह्माजी बोले — विष्णो ! विभाजन के समय प्रतिपद् आदि सभी तिथियाँ अग्नि आदि देवताओं को तथा सप्तमी भगवान सूर्य को प्रदान की गयी । जिन्हें जो तिथि दी गयी, वह उसका ही स्वामी कहलाया । अतः अपने दिन पर ही अपने मन्त्रों से पूजे जाने पर वे देवता अभीष्ट प्रदान करते हैं ।
सूर्य ने अग्नि को प्रतिपदा, ब्रह्मा को द्वितीया, यक्षराज कुबेर को तृतीया और गणेश को चतुर्थी तिथि दी है । नागराज को पञ्चमी, कार्तिकेय को षष्ठी, अपने लिये सप्तमी और रुद्र को अष्टमी तिथि प्रदान की है । दुर्गादेवी को नवमी, अपने पुत्र यमराज को दशमी, विश्वेदेवगणों को एकादशी तिथि दी गयी है । विष्णु को द्वादशी, कामदेव को त्रयोदशी, शङ्करको चतुर्दशी तथा चन्द्रमा को पूर्णिमा की तिथि दी है । सूर्य के द्वारा पितरों को पवित्र, पुण्यशालिनी अमावास्या तिथि दी गयी है । ये कही गयी पंद्रह तिथियाँ चन्द्रमा की हैं । कृष्ण पक्ष में देवता इन सभी तिथियों में शनैः शनैः चन्द्रकलाओंका पान कर लेते हैं । वे शुक्ल पक्ष में पुनः सोलहवीं कला के साथ उदित होती है । वह अकेली षोडशी कला सदैव अक्षय रहती है । उसमें साक्षात् सूर्यका निवास रहता है । इस प्रकार तिथियों का क्षय और वृद्धि स्वयं सूर्यनारायण ही करते हैं । अतः वे सबके स्वामी माने जाते हैं । ध्यानमात्र से ही सूर्यदेव अक्षय गति प्रदान करते हैं। दूसरे देवता भी जिस प्रकार उपासकों की अभीष्ट कामना पूर्ण करते हैं, उसे मैं संक्षेप में बताता हूँ, आप सुनें —
प्रतिपदा तिथि में अग्निदेव की पूजा करके अमृतरूपी घृत का हवन करे तो उस हवि से समस्त धान्य और अपरिमित घनकी प्राप्ति होती है । द्वितीया को ब्रह्माकी पूजा करके ब्रह्मचारी ब्राह्मण को भोजन करानेसे मनुष्य सभी विद्याओं में पारङ्गत हो जाता है । तृतीया तिथि में धनके स्वामी कुबेर का पूजन करने से मनुष्य निश्चित ही विपुल धनवान् बन जाता है तथा क्रय-विक्रयादि व्यापारिक व्यवहार में उसे अत्यधिक लाभ होता है । चतुर्थी तिथि में भगवान् गणेश का पूजन करना चाहिये । इससे सभी विघ्नों का नाश हो जाता है, इसमें संदेह नहीं । पञ्चमी तिथि में नागों की पूजा करनेसे विषका भय नहीं रहता, स्त्री और पुत्र प्राप्त होते हैं और श्रेष्ठ लक्ष्मी भी प्राप्त होती है । षष्ठी तिथि में कार्तिकेय की पूजा करने से मनुष्य श्रेष्ठ मेधावी, रूप-सम्पन्न, दीर्घायु और कीर्ति को बढ़ाने वाला हो जाता है । सप्तमी तिथि को चित्रभानु नाम वाले भगवान् सूर्यनारायण का पुजन करना चाहिये, ये सबके स्वामी एवं रक्षक हैं । अष्टमी तिथि को वृषभ से सुशोभित भगवान् सदाशिव की पूजा करनी चाहिये, ये प्रचुर ज्ञान तथा अत्यधिक कान्ति प्रदान करते हैं । भगवान् शङ्कर मृत्यु-हरण करनेवाले, ज्ञान देनेवाले और बन्धन-मुक्त करनेवाले हैं । नवमी तिथि में दुर्गा पूजा करके मनुष्य इच्छा-पूर्वक संसार-सागर को पार कर लेता है तथा संग्राम और लोक-व्यवहार में वह सदा विजय प्राप्त करता है । दशमी तिथि को यमकी पूजा करनी चाहिये, वे निश्चित ही सभी रोगों को नष्ट करनेवाले और नरक तथा मृत्युसे मानवका उद्धार करनेवाले हैं । एकादशी तिथिको विश्वेदेवों की भी भली प्रकार से पूजा करनी चाहिये । वे भक्त को संतान, धन-धान्य और पृथ्वी प्रदान करते हैं । द्वादशी तिथिको भगवान् विष्णु की पूजा करके मनुष्य सदा विजयी होकर समस्त लोक में वैसे ही पूज्य हो जाता है, जैसे किरणमाली भगवान् सुर्य पूज्य हैं । त्रयोदशी में कामदेव की पूजा करनेसे मनुष्य उत्तम रूपवान् हो जाता है और मनोवाञ्छित रूपवती भार्या प्राप्त करता है तथा उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं । चतुर्दशी तिथि में भगवान् देवदेवेश्वर सदाशिव की पूजा करके मनुष्य समस्त ऐश्वर्यों से समन्वित हो जाता है तथा बहुत-से पुत्रों एवं प्रभूत धन से सम्पन्न हो जाता है । पौर्णमासी तिथि में जो भक्तिमान् मनुष्य चन्द्रमा की पूजा करता है, उसका सम्पूर्ण संसार पर अपना आधिपत्य हो जाता है और यह कभी नष्ट नहीं होता । दिण्डिन् ! अपने दिन में अर्थात् अमावास्या में पितृगण पूजित होनेपर सदैव प्रसन्न होकर प्रजा-वृद्धि, धन-रक्षा, आयु तथा बल-शक्ति प्रदान करते हैं। उपवास के बिना भी ये पितृगण उक्त फल देनेवाले होते हैं । अतः मानव को चाहिये कि पितरों को भक्तिपूर्वक पूजाके द्वारा सदा प्रसन्न रखे ।
मूलमन्त्र, नाम-संकीर्तन और अंश मन्त्रों से कमल के मध्य में स्थित तिथियों के स्वामी देवताओं की विविध उपचारों से भक्तिपूर्वक यथाविधि पूजा करनी चाहिये तथा जप-होमादि कार्य सम्पन्न करने चाहिये । इसके प्रभाव से मानव इस लोक में और परलोक में सदा सुखी रहता है । उन-उन देवों के लोक को प्राप्त करता है और मनुष्य उस देवता के अनुरूप हो जाता है । उसके सारे अरिष्ट नष्ट हो जाते हैं तथा वह उतम रूपवान्, धार्मिक, शत्रुओं का नाश करनेवाला राजा होता है ।
इसी प्रकार सभी नक्षत्र-देवता जो नक्षत्रों में ही व्यवस्थित हैं, वे पूजित होने पर समस्त अभीष्ट कामनाओं को प्रदान करते हैं, अब मैं उनके विषय में बताता हूँ ।
अश्विनी नक्षत्र में अश्विनीकुमारों की पूजा करने से मनुष्य दीर्घायु एवं व्याधिमुक्त होता है । भरणी नक्षत्र में कृष्ण वर्ण के सुन्दर पुष्पों तथा शुभ्र कर्पूरादि गन्ध से पूजित यमदेव अपमृत्यु से मुक्त कर देते हैं । कृत्तिका नक्षत्र में रक्त पुष्पों से बनी हुई माल्यादि और होम के द्वारा पूजा करने से अग्निदेव निश्चित ही यथेष्ट फल देते हैं । रोहिणी नक्षत्र में प्रजापति—मुझ ब्रह्मा की पूजा करने से मैं उसकी अभिलाषा पूर्ण कर देता हूँ । मृगशिरा नक्षत्र में पूजित होने पर उसके स्वामी चन्द्रदेव उसे ज्ञान और आरोग्य प्रदान करते हैं । आर्द्रा नक्षत्र में शिव के अर्चन से विजय प्राप्त होती है । सुन्दर कमल आदि पुष्पों से पूजे गये भगवान् शिव सदा कल्याण करते हैं ।

पुनर्वसु नक्षत्र में अदिति की पूजा करनी चाहिये । पूजा से संतृप्त होकर वे माता के सदृश रक्षा करती हैं । पुष्य नक्षत्र में उसके स्वामी बृहस्पति अपनी पूजा से प्रसन्न होकर प्रचुर सद्बुद्धि प्रदान करते हैं । आश्लेषा नक्षत्र में नागको पूजा करने से नागदेव निर्भय कर देते हैं, काटते नहीं । मघा नक्षत्र में हव्य-कव्य के द्वारा पूजे गये सभी पितृगण धन, धान्य, भृत्य, पुत्र तथा पशु प्रदान करते हैं । पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में पूषा की पूजा करने पर विजय प्राप्त हो जाती है और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में भग नामक सूर्यदेवकी पुष्पादि से पूजा करनेपर वे विजय, कन्या को अभीप्सित पति और पुरुष को अभीष्ट पत्नी प्रदान करते हैं तथा उन्हें रूप एवं द्रव्य-सम्पदा से सम्पन्न बना देते हैं । हस्त नक्षत्र में भगवान् सूर्य गन्ध-पुष्पादि से पूजित होने पर सभी प्रकार की धन-सम्पत्तियाँ प्रदान करते हैं । चित्रा नक्षत्र में पूजे गये भगवान् त्वष्टा शत्रुरहित राज्य प्रदान करते हैं । स्वाती नक्षत्र में वायुदेव पूजित होने पर संतुष्ट हो परम-शक्ति प्रदान करते हैं । विशाखा नक्षत्र में लाल पुष्पों से इन्द्राग्नि का पूजन करके मनुष्य इस लोक मे धन-धान्य प्राप्त कर सदा तेजस्वी रहता है ।

अनुराधा नक्षत्र में लाल पुष्पों से भगवान् मित्रदेव की भक्तिपूर्वक विधिवत् पूजा करने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है और वह इस लोक में चिरकालतक जीवित रहता है । ज्येष्ठा नक्षत्र में देवराज इन्द्र की पूजा करने से मनुष्य पुष्टि प्राप्त करता है तथा गुणों में, धन में एवं कर्म में सबसे श्रेष्ठ हो जाता है । मूल नक्षत्र में सभी देवताओं और पितरों की भक्तिपूर्वक पूजा करने से मानव स्वर्ग में अचल-रूप से निवास करता है और पूर्वोक्त फलों को प्राप्त करता है । पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में अप्-देवता (जल) की पूजा और हवन करके मनुष्य शारीरिक तथा मानसिक संतापों से मुक्त हो जाता है। उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में विश्वेदेवों और भगवान् विश्वेश्वर की पुष्पादिद्वारा पूजा करनेसे मनुष्य सभी कुछ प्राप्त कर लेता है ।
श्रवण नक्षत्र में श्वेत, पीत और नील वर्ण के पुष्पों द्वारा भक्तिभाव से भगवान् विष्णुकी पूजा कर मनुष्य उत्तम लक्ष्मी और विजय को प्राप्त करता है। धनिष्ठा नक्षत्र में गन्ध-पुष्पादि से वसुओं के पूजन से मनुष्य बहुत बड़े भय से भी मुक्त हो जाता है । उसे कहीं कुछ भी भय नहीं रहता । शतभिषा नक्षत्र इन्द्र की पूजा करने से मनुष्य व्याधियों से मुक्त हो जाता है और आतुर व्यक्ति पुष्टि, स्वास्थ्य और ऐश्वर्य को प्राप्त करता है । पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र में शुद्ध स्फटिक मणि के समान कातिमान् अजन्मा प्रभु की पूजा करने से उत्तम भक्ति और विजय प्राप्त होती है । उत्तराभाद्रपद नक्षत्र अहिर्बुध्न्यकी पूजा करनेसे परम शान्ति की प्राप्ति होती है । रेवती नक्षत्र में श्वेत पुष्प से पूजे गये भगवान् पूषा सदैव मङ्गल प्रदान करते हैं और अचल धृति तथा विजय भी देते हैं ।

अपनी सामर्थ्य के अनुसार भक्ति से किये गये पूजन से ये सभी सदा फल देनेवाले होते हैं । यात्रा करने की इच्छा हो अथवा किसी कार्य को प्रारम्भ करने की इच्छा हो तो नक्षत्रदेवता की पूजा आदि करके ही वह सब कार्य करना उचित है । इस प्रकार करने पर यात्रा में तथा क्रियामें सफलता होती है — ऐसा स्वयं भगवान् सूर्य ने कहा है।
ब्रह्माजी ने कहा — मधुसूदन ! आप भक्तिपूर्वक सूर्यकी आराधना करें; क्योंकि भगवान् सूर्यको नित्य पूजा, नमस्कार, सेवा-व्रत, उपवास, हवनादि तथा विविध प्रकारसे ब्राह्मणोंको तृप्त करनेसे मनुष्य पापरहित होकर सूर्यलोकको प्राप्त करता है ।
(अध्याय १०२)

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