भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ११२
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय – ११२
सूर्यपूजा में भाव-शुद्धि की आवश्यकता एवं त्रिप्राप्ति-सप्तमी-व्रत

ब्रह्माजी बोले — गरुडध्वज ! भक्तिपूर्वक शुद्ध हृदय से मात्र जलार्पणद्वारा भी सूर्यभगवान् की पूजा करने पर दुर्लभ फल की प्राप्ति हो जाती है । राग-द्वेषादि से रहित हृदय, असत्य आदि से अदूषित वाणी और हिंसा-वर्जित कर्म— ये भगवान् भास्कर को आराधना के श्रेष्ठ तीन प्रकार हैं । रागादि दोषों से दूषित हृदय में तिमिर-विनाशक सूर्यनारायण की रश्मियों का स्पन्दन भी नहीं होता, फिर उनके निवास की बात कौन कहे ? यहाँतक कि वह तो भगवान् सूर्यके द्वारा संसारपङ्क में निमग्न कर दिया जाता है ।om, ॐजिस प्रकार चन्द्रमा की कला अन्धकार को दूर करने में सर्वथा सफल नहीं होती, उसी प्रकार हिंसादि से दूषित कर्म के द्वारा सूर्यनारायण की पूजा में कैसे सफलता प्राप्त हो सकती है ? चितकी अप्रसन्नता के कारण भी मनुष्य सूर्यदेव को प्राप्त नहीं कर सकता है । इसलिये सत्य-स्वभाव, सत्य-वाक्य और अहिंसक कर्म से ही स्वभावतः भगवान् आदित्य प्रसन्न होते हैं । यदि मनुष्य कलुषित-हृदय से भगवान् देवेश को सब कुछ दे दे, तो तब भी उन देवदेवेश्वर भगवान् दिवाकर की आराधना नहीं होती । अतः आप अपने हृदय को रागादि द्वेषों से रहित बनाकर भगवान् भास्कर के लिये अर्पित करें । ऐसा करने पर दुष्प्राप्य भगवान् भास्कर को आप अनायास ही प्राप्त कर लेंगे ।
विष्णु ने कहा — आपने बताया कि भास्कर हमारे लिये पूजनीय हैं, अतः उनकी सम्पूर्ण आराधना-विधि आप मुझे बतायें। ब्रह्मन् ! श्रेष्ठ कुल में जन्म, आरोग्य और दुर्लभ धन की अभिवृद्धि — ये तीनों जिसके द्वारा प्राप्त होते हैं, उस त्रिप्राप्ति-व्रत को भी हमें बतायें ।

ब्रह्माजी बोले — माघ मास में कृष्ण पक्ष की सप्तमी के दिन हस्त नक्षत्र का योग रहने पर व्रती को चाहिये कि वह जगत्स्रष्टा सूर्यदेव की सुगन्ध, धूप, नैवेद्य एवं उपहार आदि पूजन-सामग्रियों के द्वारा पूजा करे । गृहस्थ पुरुष पुष्प के द्वारा दानादि-युक्त पूजा वर्षपर्यन्त सम्पन्न करे और वज्र (बाजरा), तिल, व्रीहि  उत्तर भारत में ‘प्राचीन भारतीय कृषिजन्य व्यवस्था एवं राजस्व संबंधी पारिभाषिक शब्दावली’ के अनुसार ब्रीहि का अर्थ है- वर्षा ऋतु में बिना पौधरोपण के उगाई जाने वाली धान की फसल।, यव, सुवर्ण, यव, अन्न, जल, ओला (ओलेका पानी), उपानह (जूता या खड़ाऊँ), छत्र और गुड़ से बने पदार्थ, (क्रम से प्रतिमास) मुनियों, ब्राह्मणों को दान देना चाहिये । इस व्रत में आत्मशुद्धि के लिये सूर्यनारायण की पूजा करके प्रतिमास क्रमशः शाक, गोमूत्र, जल, घृत, दूर्वा, दधि, धान्य, तिल, यव, सूर्यकिरणों से तपा हुआ जल, कमलगट्टा और दूध का प्राशन करना चाहिये । इस विधि से इस सप्तमी-व्रत को करनेवाला मनुष्य धन-धान्य से परिपूर्ण, लक्ष्मीयुक्त तथा समस्त दुःखों से रहित होता है और श्रेष्ठ कुल में जन्म लेकर जितेन्द्रिय, नीरोग, बुद्धिमान् और सुखी रहता है। अतः आप भी बिना प्रमाद किये ही इन प्रभासम्पन्न स्वामी भगवान् दिवाकर की आराधना कर कामनाओं के सम्पूर्ण फल को प्राप्त करें ।
(अध्याय ११२)

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