December 2, 2018 | aspundir | Leave a comment ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ भविष्यपुराण ॥ (ब्राह्मपर्व) पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य एवं सदाचार का वर्णन, स्त्रियों के लिये ग्रहस्थ-धर्म के उत्तम व्यवहार की आवश्यक बातें ब्रह्माजी बोले — मुनीश्वरो ! गृहस्थ-धर्म का मूल पतिव्रता स्त्री है, पतिव्रता स्त्री पति का आराधन किस विधि से करें, उसका अब मैं वर्णन करता हूँ आप सब इसे ध्यानपूर्वक सुनें। आराधना करने योग्य पति के आराधन की विधि यह है कि उसकी चित्त-वृत्ति को भली-भाँति जानकर उसके अनुकूल चलना और सदा उसका हित चाहते रहना अर्थात् पति के चित्त के अनुकूल चलना और यथोचित व्यवहार करना, यह पतिव्रता का मुख्य धर्म है – “आराध्यानां हि सर्वेषामयमाराधने विधिः। चित्तज्ञानानुवृत्तिश्च हितैषित्वं च सर्वदा ॥” (ब्राह्मपर्व १०।१) पति के माता-पिता, बहिन, ज्येष्ठ भाई, चाचा, आचार्य, मामा तथा वृद्ध स्त्रियों आदि का उसे आदर करना चाहिये और जो सम्बन्ध में अपने से छोटे हो, उनको स्नेह-पूर्वक आज्ञा देनी चाहिये। जहाँ भी अपने से बड़े सास-ससुर या गुरु विद्यमान हों या अपना पति उपस्थित हो वहाँ उनके अनुकूल ही आचरण करना चाहिये; क्योंकि यही चरित्र स्त्रियों के लिये प्रशस्त माना गया है। हास-परिहास करने वाले पति के मित्र और देवर आदि के साथ भी एकांत में बैठकर हास-परिहास नहीं करना चाहिये। किसी पुरुष के साथ एकान्त में बैठना, स्वछन्दता और अत्यधिक हास-परिहास करना प्रायः कुलीन स्त्रियों के पातिव्रत-धर्म को नष्ट करने के कारण बनते हैं। सहसा दुष्ट के संसर्ग में आकर युवकों के साथ हास-परिहास करना उचित नहीं होता, क्योंकि स्वतंत्र स्त्रियों की निर्भीकता एकांत में बुरे आचरण के लिये सफल हो जाती है। अतः उत्तम स्त्री को ऐसा नही करना चाहिये। इस रीति से स्त्री का शील नहीं बिगड़ता और कुल की निंदा भी नहीं होती। बुरे संकेत करने वाले और बुरे भावों को प्रकट करने वाले पुरुषों को भाई या पिता के समान देखते हुए स्त्री को चाहिये कि उनका सर्वथा परित्याग कर दे। दुष्ट पुरुषों का अनुचित आग्रह स्वीकार करना, उनके साथ वार्तालाप करना, हासयुक्त संकेत अथवा कुदृष्टिपर ध्यान देना, दूसरे पुरुष के हाथ से कुछ लेना या उसे देना सर्वथा परित्याज्य है। घर के द्वार पर बैठेने या खड़ा होने, राजमार्ग की ओर देखने, किसी अपरिचित देश या घर में जाने, उद्यान और प्रदर्शनी आदि में रूचि रखने से स्त्री को बचना चाहिये। बहुत पुरुषों के मध्य से निकलना, ऊँचे स्वर से बोलना, हँसी-मजाक करना एवं अपनी दृष्टि, वाणी तथा शरीर से चापल्य प्रकट करना, खँखारना तथा सीत्कारी भरना, दुष्ट स्त्री, भिक्षुकी, तान्त्रिक, मान्त्रिक आदि में आसक्ति और उनके मण्डलों में निवास करने की इच्छा – ये सब बातें पतिव्रता स्त्री के लिये त्याज्य है। इस प्रकार के आचरण तो प्रायः दुष्टों के लिये ही उचित होते हैं, कुलीन स्त्रियों के लिए नहीं। इन निन्दनीय बातों से अपनी रक्षा करते हुए स्त्रियों को चाहिये कि वे अपने पातिव्रत-धर्म तथा कुल की मर्यादा की रक्षा करें। उत्तम स्त्री पति को मन, वचन तथा कर्म से देवता के समान समझे और उसकी अर्धाङ्गिनी बनकर सदा उसके हित करने में तत्पर रहे। देवता और पितरों के कृत्य तथा पति के स्नान, भोजन एवं अभ्यागतों के स्वागत-सत्कार आदि में बड़ी ही सावधानी और समय का ध्यान रखे। वह पति के मित्रों को मित्र तथा शत्रुओं को शत्रु के समान समझे। अधर्म और अनर्थ से दूर रहकर पति को भी उससे बचाये। पति को क्या प्रिय है और कौन-सा भोजनादि पदार्थ उसके लिए हितकर है तथा कैसे पति के साथ विचारों आदि में समानता आये इस बात को सर्वदा उसे ध्यान में रखना चाहिये, साथ ही उसे सेवकों को असंतुष्ट नहीं रखना चाहिये। रहने का घर और शरीर – ये दो गृहिणियों के लिये मुख्य हैं। इसलिए प्रयत्न-पूर्वक वह सर्वप्रथम अपने घर तथा शरीर को सुसंस्कृत (पवित्र) रखे। शरीर से भी अधिक स्वच्छ और भूषित घर को रखे। तीनों कालों में पूजा-अर्चना करे और व्यवहार की सभी वस्तुओं को यथा-विधि साफ रखे। प्रातः मध्याह्न और सायंकाल के समय घर का मार्जन कर स्वच्छ करे। गोशाला आदि को स्वच्छ करवा ले। दास-दासियों को भोजन आदि से संतुष्ट कर उन्हें अपने-अपने कार्यों में लगाये। स्त्री को उचित है की वह प्रयोग में आने वाले शाक, कंद, मूल, फल आदि के बीजों का अपने-अपने समय पर संग्रह कर ले और समय पर इन्हें खेत आदि में बुआ दे। ताँबे, काँसे, लोहे, काष्ठ और मिट्टी से बने हुए अनेक प्रकार के बर्तनों का घर में संग्रह रखे। जल रखने तथा जल निकालने और जल पीने के कलशादि पात्र, शाक-भाजी आदि से सम्बद्ध विभिन्न पात्र, घी, तेल, दूध, दही आदि से सम्बद्ध बर्तन, मुसल, ओखली, झाड़ू, चलनी, सँड़सी, सिल, लोढ़ा, चक्की, चिमटा, कड़ाही, तवा, तराजू, बाट, पिटार, संदूक, पलंग तथा चौकी आदि गृहस्थी के प्रयोग में आनेवाले आवश्यक उपकरणों की प्रयत्न-पूर्वक व्यवस्था करनी चाहिये। उसे चाहिये कि वह हींग, जीरा, पिप्पल, राई, मरीच, धनिया तथा सौंठ आदि अनेक प्रकार के मसाले, लवण, अनेक प्रकार के क्षार-पदार्थ, सिरका, अचार आदि, अनेक प्रकार की दालें, सब प्रकार के तेल, सूखा काष्ठ, विविध प्रकार के दूध-दही से बने पदार्थ और अनेक प्रकार के कन्द आदि जो-जो भी वस्तु नित्य तथा नैमित्तिक कार्यों में अपेक्षित हों, उन्हें अपने सामर्थ्य के अनुसार प्रयत्नपूर्वक पहले से ही संग्रह करना चाहिये, जिससे समय पर उन्हें ढूँढना न पड़े। जिस वस्तु की भविष्य में आवश्यकता पड़े, उसे पहले से ही संग्रह रखना चाहिये। सूखे-गीले, पिसे, बिना पिसे तथा कच्चे और पक्के अन्नादि पदार्थों का अच्छी तरह हानि-लाभ विचारकर ही संग्रह करना चाहिये। पतिव्रता नारी गुरु, बालक, वृद्ध, अभ्यागत और पति की सेवामें आलस्य न करे । पति की शय्या स्वयं बिछाये । देवर आदि के द्वारा पहिने हुए वस्त्र, माला तथा आभूषणों को वह कभी न तो धारण करे और न इनके शय्या, आसन आदि पर बैठे। गौ का इतना दूध निकाले कि जिसमे बछड़े भूखे न रह जायँ। दही से घी बनाये। वर्षा, शरद् और वसन्त-ऋतु में गाय को दो बार दुहना चाहिये, शेष ऋतुओं में एक ही बार दुहे। चरवाहे, ग्वाले आदि को चरवाही के बदले रूपये अथवा अनाज दे। गो-दोहक बछड़ों का भाग अपने प्रयोग में न ला सकें, यह देखता रहे, साथ ही यह भी ध्यान रखे कि दूध दुहनेवाला समयपर दूध दुह रहा है या नहीं, क्योंकि दोहन के यथोचित समय पर ही गाय को दुहना चाहिये। समय का अतिक्रमण अच्छा नहीं होता। जब गाय ब्याय जाय, तब एक महीने तक उसका दूध नहीं निकालना चाहिये, उसे बछड़े को ही पीने देना चाहिये। फिर एक महीने तक एक थन का तदनन्तर एक महीने तक दो थन का, और फिर तीन थन का दूध निकालना चाहिये। एक या दो थन बछड़े के लिए अवश्य छोड़ना चाहिये। यथासमय तिल की खली, कोमल हरी घास, नमक तथा जल आदि से बछड़ों का पालन करना चाहिये। बुढ़ी, गर्भिणी, दूध देनेवाली, बछड़े वाली तथा बछिया वाली – इन पाँचों गायों का घास आदि के द्वारा समान रूप से बराबर पालन-पोषण करते रहना चाहिये। किसी को भी न्यून तथा अधिक न समझे। गौ के गले में घंटी अवश्य बाँधनी चाहिये। एक तो घंटी बाँधने से गौ की शोभा होती है, दुसरे उसके शब्दों से कोई जीव-जंतु डरकर उसके पास नहीं आते, इससे उसकी रक्षा भी होती है और गौ कहीं चली जाय तो उसके शब्द से उसे ढूँढ़ा भी जा सकता है। हिंसक पशुओं और सर्पों से रहित, घास और जलसे युक्त, छायादार घने वृक्षों वाले तथा पशुओं के रोग से रहित स्थान पर गायों के रहने के लिये गोष्ठ या गोशाला बनानी चाहिये। कृषि-कार्य में लगे सेवकों के लिये देश-काल और उनके कार्य के अनुरूप भोजन तथा वेतन का प्रबन्ध करना चाहिये। खेत, खलिहान अथवा वाटिका आदि में जहाँ भी सेवक काम पर लगे हों वहाँ बार-बार जाकर उनके कार्य एवं कार्य के प्रति उनके मनोयोग की जानकारी करनी चाहिये। उनमें से जो योग्य हो, अच्छा कार्य करता हो, उसका अधिक सत्कार करे और उसके लिए भोजन, आवास आदि की औरों से विशेष व्यवस्था करे। समय-समय पर सब प्रकार के अन्न और कंद-मूल के बीजों का संग्रह करे तथा यथासमय उनकी बुआई कर दे। घर का मूल है स्त्री और गृहस्थाश्रम का मूल है अन्न । इसलिए भोज्यादि अन्न पदार्थों में घर की स्त्री को मुक्त-हस्त नहीं होना चाहिये अर्थात् अन्न को वह वृथा नष्ट न करे, सदा सँजोकर रखे। उसे मितव्ययी होना चाहिये । अन्नादि में मुक्त-हस्त होना गृहिणियों के लिए अच्छा नहीं माना जाता। वह संचय करने में और खर्च करने में मधुमक्खी, वल्मीक और अंजन के समान हानि-लाभ देखकर अन्न को थोड़ा-सा समझकर उसकी अवज्ञा न करें । क्योंकि थोड़ा-थोड़ा ही मधु एकत्र करती हुई मधुमक्खी कितना एकत्र कर लेती है ? इसी प्रकार दीमक जरा-जरा-सी मिट्टी लाकर कितना ऊँचा वल्मीक बना लेती है ? किंतु इसके विपरीत बहुत-सा बनाया गया अंजन भी नित्य थोडा-थोडा आँख में डालते रहने से कुछ दिनों में समाप्त हो जाता है । इसी रीति से सभी वस्तुओं का संग्रह और खर्च हो जाता है । इसमें थोड़ी वस्तु की अवज्ञा नहीं करनी चाहिये । घर के सभी कार्य स्त्री-पुरुष के एकमत होने पर ही अच्छे होते हैं । जगत् में ऐसे भी हजारों पुरुष हैं, जिनके सब कार्यों में स्त्री की प्रधानता रहती है । यदि स्त्री बुद्धिमान् और सुशील हो तो कुछ हानि नहीं होती, किंतु इसके विपरीत होने पर अनेक प्रकार के दुःख होते हैं । इसलिए स्त्री की योग्यता-अयोग्यता को ठीक से समझकर बुद्धिमान् पुरुष को उसे कार्य में नियुक्त करना चाहिये । इस प्रकार योग्यता से कार्य में नियुक्त की गयी स्त्री को चाहिये कि वह सौभाग्य-वश या अपने उद्यम आदि से अपने पति की भली-भाँति सेवा कर उसे अपने अनुकूल बनाये । ब्रह्माजी बोले — हे मुनीश्वरो ! घर में स्त्री प्रातःकाल सबसे पहले उठे और अपने कार्य में प्रवृत्त हो जाय तथा रात्रि में सबसे पीछे भोजन करे और सबके बाद में सोये । पति तथा ससुर आदि के उपस्थित न रहने पर स्त्री को घर की देहली पार नहीं करनी चाहिये । वह बड़े सवेरे ही जग जाय । स्त्री पति के समीप बैठकर ही सब सेवकों को काम की आज्ञा दे, बाहर न जाय । जब पति भी जग उठे तब वहाँ के सभी आवश्यक कार्य करके, घर के अन्य कार्यों को भी प्रमाद-रहित होकर करे । रात्रि के पहले ही उत्तम वस्त्राभूषणों को उतरकर घर के कार्यों को करने योग्य साधारण वस्त्रों को पहनकर तत्तत् समय में करने योग्य कार्यों को यथा-क्रम करना चाहिये । उसे चाहिये कि सबसे पहले रसोई, चूल्हा आदि को भली-भाँति लीप-पोतकर स्वच्छ करे । रसोई के पात्रों को माँज-धो और पोंछकर वहाँ रखे तथा अन्य भी सब रसोई की सामग्री वहाँ एकत्र करे । रसोई-घर न तो अधिक गुप्त (बन्द) हो और न एकदम खुला ही हो। स्वच्छ, विस्तीर्ण और जिसमें से धुआँ निकल जाय ऐसा होना चाहिये । रसोई-घर के भोजन पकाने वाले पात्रों को तथा दूध-दही के पात्रों को सीपी, रस्सी अथवा वृक्ष की छाल से खूब रगड़कर अंदर-बाहर से अच्छी तरह धो लेना चाहिये । रात्रि में धुएँ-आग के द्वारा तथा दिन में धुप में उन्हें सुखा लेना चाहिये, जिससे उन पात्रों में रखा जाने वाला दूध-दही आदि खराब न होने पाये । बिना शोधित पात्रों में रखा दूध-दही विकृत हो जाता है । दूध-दही, घी तथा बने हुए पाकादि को सावधानी से रखना चाहिये और उसका निरीक्षण करते रहना चाहिये । स्नानादि आवश्यक कृत्य करके उसे अपने हाथ से पति के लिए भोजन बनाना चाहिये । उसे यह विचार करना चाहिये कि मधुर, क्षार, अम्ल आदि रसों में कौन-कौन-सा भोजन पति को प्रिय है, किस भोजन से अग्नि की वृद्धि होती है, क्या पथ्य है और कौन भोजन काल के अनुरूप होगा, क्या अपथ्य है, उत्तम स्वास्थ्य किस भोजन से प्राप्त होगा और कौन भोजन काल के अनुरूप होगा आदि बातोंका भली-भाँति विचारकर और निर्णयकर उसे वैसा ही भोजन प्रीतिपूर्वक बनाना चाहिये । रसोई-घरमे सदा से काम करनेवाले, विश्वस्त तथा आहार का परीक्षण करने वाले व्यक्ति को ही सूपकार के रूप में नियुक्त करना चाहिये । रसोई के स्थान में किसी अन्य दुष्ट स्त्री-पुरुषों को न आने दे । इस विधि से भोजन बनाकर सब पदार्थों को स्वच्छ पात्रों से अच्छादित कर देना चाहिये, फिर रसोई-घर से बाहर आकर पसीने आदि को पौछकर, स्वच्छ होकर, गन्ध, ताम्बुल, माला-वस्त्र आदि से अपने को थोड़ा-सा भूषित करे । फिर भोजन के निमित्त यथोचित समय पर विनयपूर्वक पति को बुलाये । सब प्रकार के व्यञ्जन परोसे, जो देश-काल के विपरीत न हो और जिनका परस्पर विरोध भी न हो, जैसे दूध और लवण का है । जिस पदार्थ में पति की अधिक रूचि देखे उसे और परसे । इस प्रकार पति को प्रीतिपूर्वक भोजन कराये । सपत्नियों को अपनी बहिन के समान तथा उनकी संतानों को अपनी संतान से भी अधिक प्रिय समझे । उनके भाई-बन्धुओं को अपने भाइयों के समान ही समझे । भोजन, वस्त्र, आभूषण, ताम्बुल आदि जब तक सपत्नीयों को न दे दें, तब तक स्वयं भी ग्रहण न करें । यदि सपत्नी को अथवा किसी आश्रित जन को कुछ रोग हो जाय तो उसकी चिकित्सा के लिए ओषधि आदि की भली-भाँति व्यवस्था कराये । नौकर, बन्धु और सपत्नी को दुःखी देख स्वयं भी उन्हीं के समान दुःखी होवे और उनके सुख में सुख माने । सभी कार्यों से अवकाश मिलने पर सो जाय और रात्रि में उठकर अनावश्यक धन-व्यय कर रहे पति को एकान्त में धीरे-धीरे समझाये । घर का सब वृत्तान्त पति को एकान्त में बताये, परंतु सपत्नियों के दोषों को न कहे, किंतु यदि कोई उनका व्यभिचार आदि बड़ा दोष देखें, जिसे गुप्त रखने से कोई अनर्थ हो तो ऐसा दोष पति को अवश्य बता देना चाहिये । दुर्भगा, निःसंतान तथा पति द्वारा तिरस्कृत सपत्नियों को सदा आश्वासन दे । उन्हें भोजन, वस्त्र, आभूषण आदि से दुःखी न होने दे । यदि किसी नौकर आदि पर पति कोप करे तो उसे भी आश्वस्त करना चाहिये, परंतु यह अवश्य विचार कर लेना चाहिये कि इसे आश्वासन देने से कोई हानि नहीं होनेवाली है । इस प्रकार स्त्री अपने पति की सम्पूर्ण इच्छाओं को पूर्ण करे । अपने सुख के लिये जो अभीष्ट हो, उसका भी परित्याग कर पति के अनुकूल ही सब कार्य करे । क्योंकि स्त्रियों के देवता पति, वर्णों के देवता ब्राह्मण हैं तथा ब्राह्मणों के देवता अग्नि हैं और प्रजाओं का देवता राजा है । स्त्रियों के त्रिवर्ग-प्राप्ति के दो मुख्य उपाय हैं – प्रथम सब प्रकार से पति को प्रसन्न रखना और द्वितीय आचरण की पवित्रता । पति के चित्त के अनुकूल चलने से जैसी प्रीति पति की स्त्री पर होती है वैसी प्रीति रूप से, यौवन से और अलंकारादि आभूषणों से नहीं होती । “भर्ताधिदेवता नार्या वर्णा ब्राह्मणदेवताः । ब्राह्मणा ह्यग्निदेवास्तु प्रजा राजन्यदेवताः ॥ तासां त्रिवर्गसंसिद्धौ प्रदिष्टं कारणद्वयम् । भर्तुर्यदनुकूलत्वं यच्च शीलमविप्लुतम् ॥ न तथा यौवनं लोके नापि रुपं न भूषणम् । यथा प्रियानुकूलत्वं सिद्धं शश्वदनौधम् ॥” (ब्राह्मपर्व १३ । ३५-३७) क्योंकि प्रायः यह देखा जाता है कि उत्तम रूप और युवावस्था वाली स्त्रियाँ भी पति के विपरीत आचरण करने से दौर्भाग्य को प्राप्त करती है और अति कुरूप तथा हीन अवस्था वाली स्त्रियाँ भी पति के चित्त के अनुकूल चलने से उनकी अत्यन्त प्रिय हो जाती हैं । इसलिए पति के चित्त का अभिप्राय भली-भाँति समझना और उसके अनुकूल आचरण करना यही स्त्रियों के लिए सब सुखों का हेतु है और यही समस्त श्रेष्ठ योग्यताओं का कारण है । इसके बिना तो स्त्री के अन्य सभी गुण बन्ध्यत्व को प्राप्त हो जाते है अर्थात् निष्फल हो जाते है और अनर्थ के कारण बन जाते हैं । इसलिये स्त्री को अपनी योग्यता (परचित्तज्ञता) सर्वथा बढ़ाते रहना चाहिये । पति के आने का समय जानकर उनके आने के पूर्व ही वह घर को स्वच्छ कर बैठेने के किये उत्तम आसन बिछा दे तथा पतिदेव के आने पर स्वयं अपने हाथ से उनके चरण धोकर उन्हें आसन पर बैठाये और पंखा हाथ में लेकर धीरे-धीरे डुलाये और सावधान होकर उनकी आज्ञा प्राप्त करने की प्रतीक्षा करे । ये सब काम दासी आदि से न करवाये । पति के स्नान, आहर, पानादि में स्पृहा दिखाये । पति के संकेतों को समझकर सावधानी-पूर्वक सभी कार्यों को करे और भोजनादि निवेदित करे । अपने बन्धु-बान्धवों तथा पति के बन्धुओं और सपत्नी के साथ स्वागत-सत्कार पति की इच्छानुसार करे अर्थात् जिस पर पति की रूचि न देखे उससे अधिक शिष्टाचार न करे । स्त्रियों के लिये सभी अवस्थाओं में स्व-कुल की अपेक्षा पति-कुल ही विशेष पूज्य होता है; क्योंकि कोई भी कुलीन पुरुष अपनी कन्या से उपकार की आशा भी नहीं रखता और जो रखता है वह अनुचित ही है । कन्या का विवाह करने के बाद फिर उससे अपनी आजीविका की इच्छा करना यह महात्मा और कुलीन पुरुषों की रीति नहीं है, अतः स्त्री के सम्बन्धियों को चाहिये कि वे केवल मित्रता के लिये, प्रीति के लिये ही सम्बन्ध बढ़ाने की इच्छा करें और प्रसंगवश यथा-शक्ति उसे कुछ देते भी रहें । उससे कोई वस्तु लेने की इच्छा न रखें । कन्या के मायके वालों को कन्या के स्वामी की रक्षा का प्रयत्न सर्वथा करना चाहिये, उनकी परस्पर प्रीति-सम्बन्ध की चर्चा सर्वत्र करनी चाहिये और अपनी मिथ्या प्रशंसा नहीं करनी चाहिये । साधू-पुरुषों का व्यवहार अपने सम्बन्धियों के प्रति ऐसा ही होता है । जो स्त्री इस प्रकारके सद्वृत्त को भली-भाँति जानकर व्यवहार करती है, वह पति और उसके बन्धु-बान्धवों को अत्यन्त मान्य होती है । पति की प्रिय, साधू वृत्तवाली तथा सम्बन्धियों में प्रसिद्धि को प्राप्त होने पर भी स्त्री को लोकापवाद से सर्वदा डरते रहना चाहिये; क्योंकि सीता आदि उत्तम पतिव्रताओं को भी लोकापवाद के कारण अनेक कष्ट भोगने पड़े थे । भोग्य होने के कारण गुण-दोषों का ठीक-ठाक निर्णय न कर पाने से तथा प्रायः अविनयशीलता के कारण स्त्रियों के व्यवहार को समझना अत्यन्त दुष्कर है । ठीक प्रकार से दुसरे की मनोवृत्ति को न समझने के कारण तथा कपट-दृष्टि के कारण एवं स्वछन्द हो जाने से ऐसी बहुत ही कम स्त्रियाँ है जो कलंकित नही हो जातीं । दैवयोग अथवा कुयोग से अथवा व्यवहार की अनभिज्ञता से शुद्ध हृदय वाली स्त्री भी लोकापवाद को प्राप्त हो जाती है । स्त्रियों का यह दौर्भाग्य ही दुःख भोगने का कारण है । इसका कोई प्रतीकार नहीं, यदि है तो इसकी ओषधि है उत्तम चरित्र का आचरण और लोक-व्यवहार को ठीक से समझना । ब्रह्माजी बोले — मुनीश्वरो ! उत्तम आचरण वाली स्त्री भी यदि बुरा सङ्ग करे या अपनी इच्छा से जहाँ चाहे चली जाय, तो उसे अवश्य कलंक लगता है और झूठा दोष लगने से कुल भी कलंकित हो जाता है । उत्तम कुल की स्त्रियों के लिये यह आवश्यक है कि वे किसी भी भाँती अपने कुल-मातृकुल, पितृकुल एवं संतति को कलंक न लगने दें । ऐसी कुलीन स्त्री से ही धर्म, अर्थ तथा काम – इस त्रिवर्ग की सिद्धि हो सकती हैं । इसके विपरीत बुरे आचरण वाली स्त्रियाँ अपने कुलों को नरक में डालती हैं और चरित्र को अपना आभूषण मानने वाली स्त्रियाँ नरक में गिरे हुओं को भी निकाल लेती हैं । जिन स्त्रियों का चित्त पति के अनुकूल है और जिनका उत्तम आचरण हैं, उनके लिये रत्न, सुवर्ण आदि के आभूषण भार-स्वरूप ही हैं । अर्थात् स्त्रियों के यथार्थ आभुषण ये दो हैं – पति की अनुकूलता और उत्तम आचरण । जो स्त्री पति की और लोक की अपने यथोचित व्यवहारादि से आराधना करती है अर्थात् पति के अनुकूल चलती है और लोक-व्यवहार को ठीक-ठीक समझकर तदनुकूल आचरण करती है, वह स्त्री धर्म, अर्थ तथा काम की अबाध-सिद्धि प्राप्त कर लेती है – “भर्तुचित्तानुकूलत्वं यासां शीलमविच्युतम् । तासां रत्नसुवर्णादि भार एव न मण्डनम् ॥ लोकज्ञाने परा कोटिः पत्यौ भक्तिश्च शाश्वती । शुद्धान्वयानां नारीणां विद्यादेत्कुलव्रतम् ॥ तस्माल्लोकश्च भर्ता च सम्यगाराधितौ यया । धर्ममर्थं च कामं च सैवाप्नोति निरत्यया ॥” (ब्राह्मपर्व १३ । ६४-६६) जिस स्त्री का पति परदेश में गया हो, उस स्त्री को अपने पति की मङ्गलकामना के सूचक सौभाग्य-सूत्र आदि स्वल्प आभूषण ही पहनने चाहिये, विशेष श्रृंगार नहीं करना चाहिये । उसे पति-द्वारा प्रारम्भ किये कार्यों का प्रयत्नपूर्वक सम्पादन करते रहना चाहिये । यह देह का अधिक संस्कार न करें । रात्रि को सास आदि पूज्य स्त्रियों के समीप सोये । बहुत अधिक खर्च न करे । व्रत, उपवास आदि के नियमों का पालन करती रहे । दैवज्ञ आदि श्रेष्ठजनों से पति के कुशल-क्षेम का वृत्तान्त जानने की कोशिश करे और परदेश में उसके कल्याण की कामना से तथा शीघ्र आगमन की अभिलाषा से नित्य देवताओं का पूजन करे । अत्यन्त उज्ज्वल वेष न बनाये और न सुगन्धित तैलादि द्रव्यों का प्रयोग करे । उसे सम्बन्धियों के घर नहीं जाना चाहिये । यदि किसी आवश्यक कार्यवश जाना ही पड़ जाय तो अपने से बड़ों की आज्ञा लेकर पति के विश्वसनीय जनों के साथ जाय । किंतु वहाँ अधिक समय तक न रहे, शीघ्र वापस लौट आये । वहाँ स्नान आदि व्यवहारों को न करे । प्रवास से पति के लौट आने पर प्रसन्न-मन से सुन्दर वस्त्राभूषणों से अलंकृत होकर पति का यथोचित भोजनादि से सत्कार करे और देवताओं से पति के लिये माँगी गयी मनौतियों को पूजादी द्वारा यथाविधि सम्पन्न करे । इस प्रकार मन, वाणी तथा कर्मों से सभी अवस्थाओं में पति का हित-चिन्तन करती रहे, क्योंकि पति के अनुकूल रहना स्त्रियों के लिये विशेष धर्म है । अपने सौभग्य पर अहंकार न करे और उद्धत कार्यों को भी न करें तथा अत्यन्त विनम्र भाव से रहे । इस प्रकार से पति की सेवा करते हुए जो स्त्री पति के कार्यों में प्रमाद नही करती, पुज्यजनों का सदा आदर करती रहती है, नौकरों का भरण-पोषण करती है, नित्य सद्गुणों की अभिवृद्धि के लिये प्रयत्नशील रहती है तथा सब प्रकार से अपने शील की रक्षा करती रहती है, वह स्त्री इस लोक तथा परलोक में उत्तम सुख एवं उत्तम कीर्ति प्राप्त करती है । “एवमाराध्य भर्तारं तत्कार्येष्वप्रमादिनी । पूज्यानां पूजने नित्यं भृत्यानां भरणेषु च ॥ गुणानामर्जने नित्यं शीलवत्परिरक्षणे । प्रेत्य चेह च निर्द्वन्द्वं सुखमाप्नोत्यनुत्तमम् ॥” (ब्राह्मपर्व १४ ।३१-३२) जिस स्त्री पर पति अति क्रोध-युक्त हो और उसका आदर न करें, वह स्त्री दुर्भगा कहलाती है । उसे चाहिये कि वह नित्य व्रत-उपवासादि क्रियाओं में संलग्न रहे और पति के बाह्य कार्यों में विशेष-रूपसे सहयोग करे । जाति से कोई स्त्री दुर्भगा अथवा सुभगा (सौभाग्यशालिनी) नही होती । वह अपने व्यवहार से ही पति की प्रिय और अप्रिय हो जाती है । उत्तम स्त्री पति के चित्त का अभिप्राय न जानने से, उसके प्रतिकूल चलने से और लोक-विरुद्ध आचरण करने से दुर्भगा हो जाती है एवं उसके अनुकूल चलने से सुभगा हो जाती है । मनोवृत्ति के अनुकूल कार्य करनेसे पराया भी प्रिय हो जाता है और मनोऽनुकूल कार्य न करने से अपना जन भी शीघ्र शत्रु बन जाता है । इसलिए स्त्री को मन, वचन तथा अपने कार्यों द्वारा सभी अवस्थाओं में पति के अनुसार ही प्रिय आचरण करना चाहिये । इस प्रकार कहे गये स्त्री-वृत्त को भली-भाँति समझकर जो स्त्री पति की सेवा करती है, वह पति को अपना बना लेती है और पति की सेवा से सभी सुखों तथा त्रिवर्ग को भी प्राप्त कर लेती हैं । “न कापि दुर्भगा नाम सुभगा नाम जातितः। व्यवहाराद्भवत्येष निर्देशो रिपुमित्रवत् ॥ भर्तृचित्तापरिज्ञानादननुष्ठानतोऽपि वा । वृत्तेर्लोकविरुद्धैश्च यान्ति दुर्भगतां स्त्रियः ॥ आनुकूल्यान्मनोवृत्तेः परोऽपि प्रियतां व्रजेत् । प्रातिकूल्यान्निजोऽप्याशु प्रियः प्रद्वेषतामियात् ॥ तस्मात् सर्वास्ववस्थासु मनोवाक्कायकर्मभिः । प्रियं समाचरेन्नित्यं तच्चित्तानुविधायिनी ॥ एवमेव यथोद्दिष्ट स्त्रीवृत्तं यानुतिष्ठति । पतिमाराध्य सम्पूर्णं त्रिवर्गं साधिगच्छति ॥” (ब्राह्मपर्व १५1 १६-१९, ३२) [वर्तमान समय में पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से देश में दूषित और उच्छृङ्खलतापूर्ण वातावरण बन गया है। स्त्रियों से सम्बद्ध भविष्यपुराण का यह उल्लेख रामायण, महाभारत, स्मृतियों तथा अन्य पुराणों में भी उपलब्ध है। आज के विश्व की सभी समस्याओं का एकमात्र मुख्य कारण आचार का पतन है, इसका प्रभाव संततियों पर भी पड़ता है। अतः सभी को सदाचरण पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।] ( अध्याय- १० – १५ ) Content is available only for registered users. 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