भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १२०
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय – १२०
वैवस्वतके लक्षण और सूर्यनारायणको महिमा

विष्णुभगवान् ने ब्रह्माजी से पूछा — ब्रह्मन् । संसार में मनुष्य विष, रोग, ग्रह और अनेक प्रकार के उपद्रवों से पीड़ित रहते हैं, यह किन कर्म का फल है, कृपाकर आप कोई ऐसा उपाय बतायें, जिससे जीवों को रोग अदिकी बाधा न हो ।om, ॐब्रह्माजी ने कहा — जिन्होंने पूर्वजन्म में व्रत-उपवास आदि के द्वारा भगवान् सूर्य को प्रसन्न नहीं किया, वे मनुष्य विष, ज्वर, ग्रह, रोग आदि के भागी होते हैं और जो सूर्यनारायण की आराधना करते हैं, उन्हें आधि-व्याधियाँ नहीं सतातीं । पूर्वजन्म में भगवान् सूर्य की आराधना से इस जन्म में आरोग्य, परम बुद्धि और जो-जो भी मन में इच्छा करता है, निःसंदेह उसे प्राप्त कर लेता है । आधि-व्याधियों से पीड़ित नहीं होता है और न विष एवं दुष्ट ग्रहों के बन्धन में ही फंसता है तथा कृत्या आदि का भी भय उसे नहीं रहता । सूर्यनारायण के भक्त के लिये दुष्ट भी अनुकूल हो जाते हैं और सब ग्रह सौम्य दृष्टि रखते हैं । जिसपर सूर्यदेव संतुष्ट हो जाते हैं, वह देवताओं का भी पूज्य हो जाता है । परंतु भगवान् सूर्य का अनुग्रह उसी पुरुष पर होता है, जो सब जीवों को अपने समान ही समझता है और भक्तिपूर्वक उनकी आराधना करता है। प्रजाओं के स्वामी भगवान् सूर्य के प्रसन्न हो जानेपर मनुष्य पूर्णमनोरथ हो जाता है ।

व्रतोपवासैर्यैर्भानुर्नान्यजन्मनि तोषितः ।
ते नरा देवशार्दूल ग्रहरोगादिभागिनः ॥
यैर्न तत्प्रवणं चित्तं सर्वदैव नरैः कृतम् ।
विषग्रहज्वराणां ते मनुष्याः कृष्ण भागिनः ॥
आरोग्यं परमां वृद्धिं मनसा यद्यदिच्छति ।
तत्तदाप्रोत्यसंदिग्धं परत्रादित्यतोषणात् ॥
नाधीन् प्राप्नोति न व्याधीन् न विषग्रहबन्धनम् ।
कृत्यास्पर्शभयं वापि तोषीते तिमिरापहे ॥
सर्वे दुष्टाः समास्तस्य सौम्यास्तस्य सदा ग्रहाः ।
देवानामपि पूज्योऽसौ तुष्टो यस्य दिवाकरः ॥
यः समः सर्वभूतेषु यथात्मनि तथा हिते ।
उपवासादिना येन तोष्यते तिमिरापहः ॥
तोषितेऽस्मिन् प्रजानाथे नराः पूर्णमनोरथाः ।
अरोगाः सुखिनो नित्यं बहुधर्मसुखान्विताः ॥
न तेषां शत्रवो नैव शरीराद्यभिचारकम् ।
ग्रहरोगादिकं चापि पापकार्युपजायते ॥
अव्याहतानि देवस्य धनजालानि तं नरम् ।
रक्षन्ति सकलापत्सु येन श्वेताधिपोऽर्चितः ॥ (ब्राह्मपर्व १२०। ४-२१)

भगवान् विष्णु ने पूछा — ब्रह्मन् ! जिन्होंने पहले भगवान् सूर्य की आराधना नहीं की और रोग-व्याधि से दुःखी हो गये हैं, वे उन कष्ट एवं पापों से कैसे मुक्त हों, कृपाकर बतायें । हम भी भक्तिपूर्वक भगवान् सूर्य की आराधना करना चाहते हैं ।

ब्रह्माजी बोले — भगवन् ! यदि आप भगवान् सूर्य की आराधना करना चाहते हैं तो आप पहले वैवस्वत (सूर्यभक्त) बनें, क्योंकि बिना विधिपूर्वक सौरी दीक्षा के उनकी उपासना पूरी नहीं हो सकती । जब मनुष्यों के पाप क्षीण होने लगते हैं । तब भगवान् सूर्य और ब्राह्मणों में उनकी नैष्ठि की श्रद्धा-भक्ति होती है । इस संसार-चक्र में भ्रमण करते हुए प्राणियों के लिये भगवान् सूर्य को प्रसन्न करना एकमात्र कल्याण का निष्कण्टक मार्ग है ।

विष्णुभगवान् ने पूछा — ब्रह्मन् ! वैवस्वतों का क्या लक्षण है और उन्हें क्या करना चाहिये ? यह आप वतायें ।
ब्रह्माजी बोले— वैवस्वत वही है जो भगवान् सूर्य का परम भक्त हो तथा मन, वाणी एवं कर्म से कभी जीवहिंसा न करे । ब्राह्मण, देवता और भोजक को नित्य प्रणाम करे, दूसरे के धन का हरण न करे, सभी देवताओं एवं संसार को भगवान् सूर्य का ही स्वरूप समझे और उनसे अपने को अभिन्न समझे । देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी, पिपीलिका, वृक्ष, पाषाण, काष्ठ, भूमि, जल, आकाश तथा दिशा-सर्वत्र भगवान् सूर्य को व्याप्त समझे, साथ ही स्वयं को भी सूर्य से भिन्न न समझे । जो किसी भी प्राणी में दुष्ट-भाव नहीं रखता, वही वैवस्वत सूर्योपासक है । जो पुरुष आसक्ति-रहित होकर निष्काम-भाव से भक्तिपूर्वक भगवान् सूर्य के निमित्त क्रियाएँ करता है, वह वैवस्वत कहलाता है । जिसका न तो कोई शत्रु हो और न कोई मित्र हो तथा न उसमें भेद-बुद्धि हो, सबको बराबर देखता हो, ऐसा पुरुष वैवस्वत कहलाता है । जिस उत्तम गति को वैवस्वत पुरुष प्राप्त करता है, यह योगी और बड़े-बड़े तपस्वियों के लिये भी दुर्लभ है । जो सभी प्रकार से भगवान् सूर्य का दृढ़ भक्त है, वह धन्य है । भक्तिपूर्वक आराधना करने से ही सूर्यभगवान् का अनुग्रह प्राप्त होता है ।

ब्रह्माजी पुनः बोले— मैं भी उनके दक्षिण किरण से उत्पन्न हुआ हूँ और उन्हीं के वाम किरण से भगवान् शिव तथा वक्षःस्थल से शङ्ख-चक्र-गदाधारी आप उत्पन्न हैं । उन्हीं की इच्छा से आप सृष्टि का पालन तथा शङ्कर संहार करते हैं । इसी प्रकार रुद्र, इन्द्र, चन्द्र, वरुण, वायु, अग्नि आदि सब देवता सूर्यदेव से ही प्रादुर्भूत हुए हैं और उनकी आज्ञा के अनुसार अपने-अपने कर्मों में प्रवृत्त हो रहे हैं । इसलिये भगवन् ! आप भी सूर्यभगवान् की आराधना करें, इससे सभी मनोरथ पूर्ण होंगे ।
पितामह ब्रह्माजी एवं विष्णुभगवान् के इस संवाद को जो भक्तिपूर्वक श्रवण करता है, वह मनोवाञ्छित फलों को प्राप्त कर अन्त में सुवर्ण के विमान में बैठकर सूर्यलोक को जाता है ।
(अध्याय १२०)

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