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भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १२१ से १२४
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय – १२१ से १२४
भगवान् सूर्यनारायणके सौम्य रूपकी कथा, उनकी स्तुति और परिवार तथा देवताओं का वर्णन

राजा शतानीक ने कहा— मुने ! भगवान् सूर्य की कथा सुनते-सुनते मुझे तृप्ति नहीं होती, अतः आप पुनः उन्हीं के गुणों और चरित्रों का वर्णन करें ।

सुमन्तु मुनि बोले — राजन् ! पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने भगवान् सूर्य की जो पवित्र कथा ऋषियों को सुनायी थी, उसे मैं आपको सुनाता हूँ । यह कथा पापों को नष्ट करनेवाली है —om, ॐएक समय भगवान् सूर्य के प्रचण्ड तेज से संतप्त हो ऋषियों ने ब्रह्माजी से पूछा—’ब्रह्मन् ! आकाशमें स्थित यह अग्नि के तुल्य दाह करनेवाला तेजःपुञ्ज कौन है ?’

ब्रह्माजी बोले — मुनीश्वरो ! प्रलय के समय जब सारा स्थावर-जङ्गम जगत् नष्ट हो गया, उस समय सर्वत्र अन्धकार-ही-अन्धकार व्याप्त था । उस समय सर्वप्रथम बुद्धि उत्पन्न हुई, बुद्धि से अहंकार तथा अहंकार से आकाशादि पञ्चमहाभूतों की उत्पति हुई और उनसे एक अण्ड उत्पन्न हुआ, जिसमें सात लोक और सात समुद्र सहित पृथ्वी स्थित है । उसी अण्ड में स्वयं ब्रह्मा तथा विष्णु और शिव भी स्थित थे । अन्धकार से सभी व्याकुल थे । अनन्तर सब परमेश्वर का ध्यान करने लगे । ध्यान करने से अन्धकार को हरण करनेवाला एक तेजःपुञ्ज प्रकट हुआ । उसे देखकर हम सभी उसकी इस प्रकार दिव्य स्तुति करने लगे —

आदिदेवोऽसि देवानामीश्चराणां त्वमीश्वरः ।
आदिकर्तासि भूतानां देवदेव सनातन ॥
जीवनं सर्वसत्त्वानां देवगन्धर्वरक्षसाम् ।
मुनिकिन्नरसिद्धानां तथैवोरगपक्षिणाम् ॥
त्वं ब्रह्मा त्वं महादेवस्त्वं विष्णुस्त्वं प्रजापतिः ।
वायुरिन्द्रश्च सोमश्च विवस्वान् वरुणस्तथा ॥
त्वं कालः सृष्टिकर्ता च हर्ता त्राता प्रभुस्तथा ।
सरितः सागराः शैला विद्युदिन्द्रधनूंषि च ।
प्रलयः प्रभवश्चैव व्यक्ताव्यक्तः सनातनः ॥
ईश्वरात्परतो विद्या विद्यायाः परतः शिवः ।
शिवात्परतरो देवस्त्वमेव परमेश्वर ॥
सर्वतः पाणिपादस्त्वं सर्वतोऽक्षिशिरोमुखः ।
सहस्रांशुस्त्वं तु देव सहस्रकिरणस्तथा ॥
भूरादिभूर्भुवःस्वश्च महर्जनस्तपस्तथा ।
प्रदीप्तं दीप्तिमन्नित्यं सर्वलोकप्रकाशकम् ।
दुर्निरीक्ष्यं सुरेन्द्राणां यद्रूपं तस्य ते नमः ॥
सुरसिद्धगणैर्जुष्टं भृग्वत्रिपुलहादिभिः ।
शुभं परममाव्यग्रं यद्रूपं तस्य ते नमः ॥
पञ्चातीतस्थितं तद्वै दशैकादश एव च ।
अर्धमासमतिक्रम्य स्थितं तत्सूर्यमण्डले ।
तस्मै रूपाय ते देव प्रणताः सर्वदेवताः ॥
विश्वकृद्विश्वभूतं च विश्वानरसुरार्चितम् ।
विश्वस्थितमचिन्त्यं च यद्रूपं तस्य ते नमः ॥
परं यज्ञात्परं देवात्परं लोकात्परं दिवः ।
दुरतिक्रमेति यः ख्यातस्तस्मादपि परम्परात् ।
परमात्मेति विख्यातं यद्रूपं तस्य ते नमः ॥
अविज्ञेयमचिन्त्यं च अध्यात्मगतमव्ययम् ।
अनादिनिधनं देवं यद्रूपं तस्य ते नमः ॥
नमो नमः कारणकारणाय नमो नमः पापविनाशनाय ।
नमो नमो वन्दितवन्दनाय नमो नमो रोगविनाशनाय ॥
नमो नमः सर्ववरप्रदाय नमो नमः सर्वबलप्रदाय ।
नमो नमो ज्ञाननिधे सदैव नमो नमः पञ्चदशात्मकाय ॥
(ब्राह्मपर्व १२३ । ११-२४)

‘हे सनातन देवदेव ! आप ही समस्त चराचर प्राणियों के आदि स्रष्टा एवं ईश्वरों के ईश्वर तथा आदिदेव हैं । देवता, गन्धर्व, राक्षस, मुनि, किन्नर, सिद्ध, नाग तथा तिर्यक् योनियों के आप ही जीवनाधार हैं। आप ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव, प्रजापति, वायु, इन्द्र, सोम, वरुण तथा काल हैं एवं जगत् के स्रष्टा, संहर्ता, पालनकर्ता और सबके शासक भी आप ही हैं । आप ही नदी, सागर, पर्वत, विद्युत्, इन्द्रधनुष इत्यादि सब कुछ हैं । प्रलय, प्रभव व्यक्त एवं अव्यक्त भी आप ही हैं । ईश्वर से परे विद्या, विद्या से परे शिव तया शिव से परतर आप परमदेव हैं । हे परमात्मन् ! आपके पाणि, पाद, अक्षि, सिर, मुख सर्वत्र — चतुर्दिक् व्याप्त हैं । आपकी देदीप्यमान सहस्रों किरणें सब ओर व्याप्त हैं । भूः, भुवः, महः, जनः, तपः तथा सत्य इत्यादि समस्त लोकों में आपका ही प्रचण्ड एवं प्रदीप्त तेज प्रकाशित है । इन्द्रादि देवताओं से भी दुर्निरीक्ष्य, भृगु, अत्रि, पुलह आदि ऋषियों एवं सिद्धों द्वारा सेवित अत्यन्त कल्याणकारी एवं शान्त रूपवाले आपको नमस्कार है । हे देव ! आपका यह रूप पाँच, दस अथवा एकादश इन्द्रियों आदि से अगम्य है, उस रुप की देवता सदा वन्दना करते रहते हैं । देव ! विश्वस्रष्टा, विश्व में स्थित तथा विश्वभूत आपके अचिन्त्य रुप की इन्द्रादि देवता अर्चना करते रहते हैं । आपके उस रूप को नमस्कार है । नाथ ! आपका रूप यज्ञ, देवता, लोक, आकाश — इन सबसे परे है, आप दुरतिक्रम नाम से विख्यात हैं, इससे भी परे आपका अनन्त रूप है, इसलिये आपका रूप परमात्मा नाम से प्रसिद्ध है । ऐसे रूप वाले आपको नमस्कार है । हे अनादिनिधन ज्ञाननिधे ! आपका रूप अविज्ञेय, अचिन्त्य, अव्यय एवं अध्यात्मगत है, आपको नमस्कार है । हे कारणों के कारण, पाप एवं रोग के विनाशक, वन्दितों के भी वन्द्य, पञ्चदशात्मक, सभी के लिये श्रेष्ठ वरदाता तथा सभी प्रकार के बल देनेवाले ! आपको सदा बार-बार नमस्कार है।’
इस प्रकार हमारी स्तुति से प्रसन्न हो वे तेजस-रूप कल्याणकारी देव मधुर वाणी में बोले— ‘देवगण ! आप क्या चाहते हैं ?’ तब हमने कहा — ‘प्रभो ! आपके इस प्रचण्ड तप्त रूप को देखने में कोई भी समर्थ नहीं है । अतः संसार के कल्याण के लिये आप सौम्य रूप धारण करें ।’ देवताओं की ऐसी प्रार्थना सुनकर उन्होंने ‘एवमस्तु’ कहकर सभी को सुख देनेवाला उत्तम रूप धारण कर लिया ।

सुमन्तु मुनि ने कहा —
राजन् ! सांख्ययोग का आश्रय ग्रहण करने वाले योगी आदि तथा मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले पुरुष इनका ही ध्यान करते हैं । इनके ध्यान से बड़े-बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं । अग्निहोत्र, वेदपाठ और प्रचुर दक्षिणा से युक्त यज्ञ भी भगवान् सूर्य की भक्ति के सोलहवीं कला के तुल्य भी फलदायक नहीं हैं । ये तीर्थों के भी तीर्थ, मङ्गलों के भी मङ्गल और पवित्रों को भी पवित्र करनेवाले हैं । जो इनकी आराधना करते हैं, वे सभी पापों से मुक्त होकर सूर्यलोक को प्राप्त करते हैं । वेदादि शास्त्रों में भगवान् दिवस्पति उपासना आदि के द्वारा जिस प्रकार सुलभ हो जाते हैं, उसी प्रकार सूर्यदेव समस्त लोकों के उपास्य हैं ।

राजा शतानीक ने पूछा — मुने ! देवता तथा ऋषियों ने किस प्रकार भगवान् सूर्य को सुन्दर रूप बनवाया ? यह आप बतायें ।
सुमन्तु मुनि बोले — राजन् ! एक समय सभी ऋषियों ने ब्रह्मलोक में जाकर ब्रह्माजी से प्रार्थना की कि ‘ब्रह्मन् ! अदिति के पुत्र सूर्यनारायण आकाश में अति प्रचण्ड तेज से तप रहे हैं । जिस प्रकार नदी का किनारा सूख जाता है, वैसे ही अखिल जगत् विनाश को प्राप्त हो रहा है, हम सब भी अति पीड़ित हैं और आपका आसन कमल-पुष्प भी सूख रहा है, तीनों लोकों में कोई सुखी नहीं है, अतः आप ऐसा उपाय करें, जिससे यह तेज़ शान्त हो जाय ।’

ब्रह्माजी ने कहा — मुनीश्वरो ! सभी देवताओं के साथ आप और हम सब सूर्यनारायण की शरण में जायँ, उसमें सबका कल्याण है। ब्रह्माजी की आज्ञा पाकर ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर सभी देवता और ऋषिगण उनकी शरण में गये और उन्होंने भक्तिभावपूर्वक नम्र होकर अनेक प्रकार से उनकी स्तुति की । देवताओं की स्तुति से सूर्यनारायण प्रसन्न हो गये ।
सूर्यभगवान् बोले — आपलोग वर माँगिये। उस समय देवताओं ने यही वर माँगा कि ‘प्रभो ! आपके तेज को विश्वकर्मा कम कर दें, ऐसी आप आज्ञा प्रदान करें । इन्होंने देवताओं की प्रार्थना स्वीकार कर ली । तब विश्वकर्मा ने उनके तेज को तराश कर कम किया । इसी तेज से भगवान् विष्णु का चक्र और अन्य देवताओं के शूल, शक्ति, गदा, वज्र, बाण, धनुष, दुर्गा आदि देवियों के आभूषण तथा शिविका (पालकी), परशु आदि आयुध बनाकर विश्वकर्मा ने उन्हें देवताओं को दिया ।

भगवान् सूर्य का तेज सौम्य हो जाने से तथा उत्तम-उत्तम आयुध प्राप्त कर देवता अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने पुनः उनकी भक्तिपूर्वक स्तुति की ।
देवताओं की स्तुति से प्रसन्न हो भगवान् सूर्य ने और भी अनेक वर उन्हें प्रदान किये । अनन्तर देवताओं ने परस्पर विचार किया कि दैत्यगण वर पाकर अत्यन्त अभिमानी हो गये हैं । वे अवश्य भगवान् सूर्य को हरण करने का प्रयत्न करेंगे । इसलिये उन सबको नष्ट करनेके लिये तथा इनकी रक्षा के लिये हमें चाहिये कि हम इनके चारों ओर खड़े हो जायँ, जिससे ये दैत्य सूर्य को देख न सकें । ऐसा विचार कर स्कन्द दण्डनायक का रूप धारणकर भगवान् सूर्य के बायीं ओर स्थित हो गये । भगवान् सूर्य ने दण्डनायक को जीवों के शुभाशुभ कर्मों को लिखने का निर्देश दिया । दण्ड का निर्णय करने तथा दण्डनीति का निर्धारण करने से दण्डनायक नाम पड़ा । अग्निदेव पिंगलवर्ण के होने के कारण पिंगल नाम से प्रसिद्ध हुए और सूर्यभगवान् की दाहिनी ओर स्थित हुए । इसी प्रकार दोनों पार्श्वों में दो अश्विनीकुमार स्थित हुए । वे अश्वरूप से उत्पन्न होनेके कारण अश्विनीकुमार कहलाये । महाबलशाली राज्ञ और श्रौष दो द्वारपाल हुए । राज्ञ कार्तिकेय के और श्रौष हर के अवतार कहे गये हैं । लोकपूज्य ये दोनों द्वारपाल धर्म और अर्थ के रूप में प्रथम द्वार पर रहते हैं । दूसरे द्वार पर कल्माष और पक्षी ये दो द्वारपाल रहते हैं । इनमें से कल्माय यमराज के रूप हैं और पक्षी गरुडरूप हैं । ये दोनों दक्षिण दिशा में स्थित हैं । कुबेर और विनायक उत्तर में तथा दिण्डी और रेवन्त पूर्व दिशा में स्थित हैं । दिण्डी रुद्ररूप हैं और रेवन्त भगवान् सूर्य के पुत्र हैं । ये सब देवता दैत्यों को मारने के लिये सूर्यनारायण के चारों ओर स्थित हैं और सुन्दर रूपवाले, विरूप, अन्यरूप और कामरुप हैं तथा अनेक प्रकार के आयुध धारण किये हैं । चारों वेद भी उतम रूप धारणकर भगवान् सूर्य के चारों ओर स्थित हैं ।
(अध्याय १२१-१२४)

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