भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १२५ से १२६
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय – १२५ से १२६
श्रीसूर्यनारायणके आयुध—व्योमका लक्षण और माहात्म्य

सुमन्तु मुनिने कहा — राजन् ! अब भगवान् सूर्य के मुख्य आयुध व्योम का लक्षण कहता है, उसे आप सुनें ।

भगवान् सूर्य का आयुथ व्योम सर्वदेवमय है, वह चार शृङ्गों से युक्त है तथा सुवर्णका बना हुआ है । जिस प्रकार वरुण को पाश, ब्रह्मा का हुंकार, विष्णु का चक्र, त्र्यम्बक का त्रिशूल तथा इन्द्र का आयुध वज्र है, उसी प्रकार भगवान् सूर्य का आयुध व्योम है ।om, ॐ उस व्योम में ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, दस विश्वेदेव, आठ वसुगण तथा दो अश्विनीकुमार — ये सभी अपनी-अपनी कलाओं के साथ स्थित हैं । हर, शर्व, त्र्यम्बक, वृषाकपि, शम्भु, कपर्दी, रैवत, अपराजित, ईश्वर, अहिर्बुध्न्य और भुवन (भव) — ये ग्यारह रुद्र हैं । ध्रुव, धर, सोम, अनिल, अनल, अप्, प्रत्यूष और प्रभास — ये आठ वसु हैं। नासत्य और दस्र —ये दो अश्विनीकुमार हैं । क्रतु, दक्ष, वसु, सत्य, काल, काम, धृति, कुरु, शंकुमात्र तथा वामन — ये दस विश्वेदेव हैं । इसी प्रकार साध्य, तुषित, मरुत् आदि देवता हैं । इनमें आदित्य और मरुत् कश्यप के पुत्र हैं। विश्वेदेव, वसु और साध्य – ये धर्म के पुत्र हैं । धर्म का तीसरा पुत्र वसु (सोम) है और ब्रह्माजी का पुत्र धर्म है ।
स्वायम्भुव, स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत और चाक्षुष—ये छः मनु तो व्यतीत हो गये हैं, वर्तमान में सप्तम वैवस्वत मनु हैं । अर्कसावर्णि, ब्रह्मसावर्णि, रुद्रसावर्णि, धर्मसावर्ण, दक्षसाश्वर्ण, रौच्य और भौत्य — ये सब मनु आगे होंगे । इन चौदह मन्वन्तरों में इन्द्रों के नाम इस प्रकार हैं—विष्णभुक्, विद्युति, विभु, प्रभु, शिखी तथा मनोजव— ये छः इन्द्र व्यतीत हो गये हैं । ओजस्वी नामक इन्द्र वर्तमान में हैं । बलि, अद्भुत, त्रिदिव, सुसात्त्विक, कीर्ति, शतधामा तथा दिवस्पति — ये सात इन्द्र आगे होंगे । कश्यप, अत्रि, वसिष्ठ, भरद्वाज, गौतम, विश्वामित्र और जमदग्नि — ये सप्तर्षि हैं । प्रवह, आवह, उद्वह, संवह, विवह, निवह और परिवह—ये सात मरुत् हैं । (प्रत्येक सात-सात मरुद्गणों का समूह है)। ये उनचास (४९) मरुत् आकाश में पृथक्-पृथक् मार्ग से चलते हैं । सूर्याग्नि का नाम शुचि, वैद्युत अग्नि का नाम पावक और अरणि-मन्थन से उत्पन्न अग्नि का नाम पवमान हैं । ये तीन अग्नियाँ हैं । अग्नियों के पुत्र-पौत्र उनचास (४९) हैं और मरुत् भी उनचास ही हैं । संवत्सर, परिवत्सर, इद्वत्सर (इडावत्सर), अनवत्सर और वत्सर— ये पाँच संवत्सर हैं—ये ब्रह्माजी के पुत्र हैं । सौम्य, बर्हिषद् और अग्निष्वात्त — ये तीन पितर हैं । सूर्य, सोम, भौम, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु— ये नव ग्रह हैं । ये सदा जगत् का भाव-अभाव सूचित करते हैं । इनमें सूर्य और चन्द्र मण्डलग्रह, भौमादि पाँच ताराग्रह और राहु-केतु छायाग्रह कहलाते हैं । नक्षत्रों के अधिपति चन्द्रमा हैं और ग्रहों के राजा सूर्य हैं । सूर्य कश्यप के पुत्र हैं, सोम धर्म के, बुध चन्द्र के, गुरु और शुक्र प्रजापति भृगु के, शनि सूर्य के, राहु सिंहिका के और केतु ब्रह्माजी के पुत्र हैं ।
पृथ्वी को भूलोक कहते हैं । भूलोक के स्वामी अग्नि, भुवर्लोक के वायु और स्वर्लोक के स्वामी सूर्य हैं । मरुद्गण भुवर्लोक में रहते हैं और रुद्र, अश्विनीकुमार, आदित्य, वसुगण तथा देवगण स्वर्लोक में निवास करते हैं । चौथा महर्लोक हैं, जिसमें प्रजापतियों सहित कल्पवासी रहते हैं । पाँचवें जनलोक मे भूमिदान करनेवाले तथा छठे तपोलोक में ऋभु, सनत्कुमार तथा वैराज आदि ऋषि रहते हैं । सातवें सत्यलोक में वे पुरुष रहते हैं, जो जन्म-मरण से मुक्ति पा जाते हैं । इतिहास-पुराण के वक्ता तथा श्रोता भी उस लोक को प्राप्त करते हैं । इसे ब्रह्मलोक भी कहा गया है, इसमें न किसी प्रकार का विघ्र है न किसी प्रकार की बाधा ।

देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, नाग, भूत और विद्याधर — ये आठ देवयोनियाँ हैं । इस प्रकार इस व्योम में सातों लोक स्थित हैं । मरुत्, पितर, अग्नि, ग्रह और आठों देवयोनियाँ तथा मूर्त और अमूर्त सब देवता इसी व्योम में स्थित हैं । इसलिये भक्ति और श्रद्धा से व्योम का पूजन करता है, उसे सब देवताओं के पूजन का फल प्राप्त हो जाता है और वह सूर्यलोक को जाता है । अतः अपने कल्याण के लिये सदा व्योम का पूजन करना चाहिये ।
महीपते ! आकाश, ख, दिक्, व्योम, अन्तरिक्ष, नभ, अम्बर, पुष्कर, गगन, मेरु, विपुल, बिल, आपोछिद्र, शून्य, तमस्, रोदसी — व्योम के इतने नाम कहे गये हैं । लवण, क्षीर, दधि, घृत, मधु, इक्षु तथा सुस्वादु (जलवाला) — ये सात समुद्र हैं । हिमवान्, हेमकूट, निषध, नील, श्वेत, शृङ्गवान् — ये छः वर्षपर्वत हैं । इनके मध्य महाराजत नामक पर्वत है । माहेन्द्री, आग्नेयी, याम्या, नैर्ऋती, वारुणी, वायवी, सौम्या तथा ईशानी — ये देवनगरियाँ ऊपर समाश्रित हैं । पृथ्वी के ऊपर लोकालोक पर्वत है । अनन्तर अण्डकपाल, इससे परे अग्नि, वायु, आकाश आदि भूत कहे गये हैं । इससे परे महान् अहंकार, अहंकार से परे प्रकृति, प्रकृति से परे पुरुष और इस पुरुष से परे ईश्वर है, जिससे यह सम्पूर्ण जगत् आवृत हैं । भगवान् भास्कर ही ईश्वर हैं, उनसे यह जगत् परिव्याप्त है । ये सहस्रों किरणवाले, महान तेजस्वी, चतुर्बाहु एवं महाबली हैं ।
भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक और सत्यलोक— ये सात लोक कहे गये हैं । भूमि के नीचे जो सात लोक हैं, वे इस प्रकार हैं— तल, सुतल, पाताल, तलातल, अतल, वितल और रसातल । काञ्चन मेरु पर्वत भू-मण्डल के मध्य में फैला हुआ चार रमणीय शृङ्गों से युक्त तथा सिद्ध-गन्धर्वों से सुसेवित हैं। इसकी ऊँचाई चौरासी हजार योजन (१ योजन = १३ से १६ किमी) है । यह सोलह हजार योजन भूमि में नीचे प्रविष्ट हैं । इस प्रकार सब मिलाकर एक लाख योजन मेरु पर्वत का मान है । उसका सौमनस नाम का प्रथम शृङ्ग सुवर्ण का है, ज्योतिष्क नाम का द्वितीय शृङ्ग पद्मराग मणिका हैं । चित्र नाम का तृतीय शृङ्ग सर्वधातुमय है और चन्द्रौजस्क नामक चतुर्थ शृङ्ग चाँदी का है । गाङ्गेय नामक प्रथम सौमनस शृङ्ग पर भगवान् सूर्य का उदय होता है, सूर्योदय से ही सब लोग देखते है, अतः उसका नाम उदयाचल है । उत्तरायण होने पर सौमनस शृङ्ग से और दक्षिणायन होने पर ज्योतिष्क शृङ्ग से भगवान् सूर्य उदित होते हैं । मेष और तुला — संक्रान्तियों में मध्य के दो शृङ्गों में सूर्य का उदय होता है । इस पर्वत के ईशानकोण में ईश और अग्निकोण में इन्द्र, नैऋत्यकोण में अद्रि और वायव्यकोण में मरुत् तथा मध्य में साक्षात् ब्रह्मा, ग्रह एवं नक्षत्र स्थित हैं । इसे व्योम कहते हैं । व्योम में सूर्यभगवान् स्वयं निवास करते हैं, अतः यह व्योम सर्वदेवमय और सर्वलोकमय हैं । राजन् ! पूर्वकोण में स्थित शृङ्ग पर शुक्र हैं, दूसरे शृङ्ग पर हेलिज (शनि), तीसरे पर कुबेर, चौथे शृङ्ग पर सोम हैं । मध्य में ब्रह्मा, विष्णु और शिव स्थित हैं । पूर्वोत्तर शृङ्ग पर पितृगण और लोकपूजित गोपति महादेव निवास करते हैं । पूर्वाग्नेय शृङ्ग पर शाण्डिल्य निवास करते हैं । अनन्तर महातेजस्वी हेलिपुत्र यम निवास करते हैं । नैऋत्यकोण के शृङ्ग में महाबलशाली विरूपाक्ष निवास करते हैं । उसके बाद वरुण स्थित हैं, अनन्तर महातेजस्वी महाबली वीरमित्र निवास करते हैं । सभी देवों के नमस्कार्य वायव्य शृङ्ग का आश्रयण कर नरवाहन कुबेर निवास करते हैं, मध्य में ब्रह्मा, नीचे अनन्त, उपेन्द्र और शंकर अवस्थित हैं । इसीको मेरु, व्योम और धर्म भी कहा जाता है । यह व्योमस्वरूप मेरु वेदमय नामसे प्रसिद्ध है । चारों शृङ्ग चारों वेदस्वरूप हैं ।
(अध्याय १२५-१२६)

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