भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १२७ से १२८
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय – १२७ से १२८
साम्बद्वारा भगवान् सूर्य की आराधना, कुष्ठरोगसे मुक्ति तथा सूर्यस्तवराज का कथन

राजा शतानीक ने पूछा — मुने ! साम्ब ने किस प्रकार भगवान् सूर्य की आराधना की और उस भयंकर रोग से कैसे मुक्ति पायी ? इसे आप कृपाकर बतायें ।om, ॐसुमन्तु मुनि ने कहा — राजन् ! आपने बहुत उत्तम कथा पूछी है । इसका मैं विस्तार से वर्णन करता हूँ. इसके सुनने से सभी पाप दूर हो जाते हैं । नारदजी के द्वारा सूर्यभगवान् का माहात्म्य सुनकर साम्ब ने अपने पिता श्रीकृष्णचन्द्र के पास जाकर विनयपूर्वक प्रार्थना की ‘भगवन् ! मैं अत्यन्त दारुण रोग से ग्रस्त हूँ । वैद्यों द्वारा बहुत ओषधियों का सेवन करने पर भी मुझे शान्ति नहीं मिल रही है । अब आप आज्ञा दें कि मैं वन में जाकर तपस्या द्वारा अपने इस भयंकर रोग से छुटकारा प्राप्त करूँ ।’ पुत्र का वचन सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण ने आज्ञा दे दी और साम्ब अपने पिता की आज्ञा के अनुसार सिन्धु के उत्तर में चन्द्रभागा नदी तट पर लोकप्रसिद्ध मित्रवन नाम के सूर्यक्षेत्र में जाकर तपस्या करने लगे । वे उपवास करते हुए सूर्य की आराधना में तत्पर हो गये । उन्होंने इतना कठोर तप किया कि उनका अस्थिमात्र ही शेष रह गया । वे प्रतिदिन इस गुह्य स्तोत्र से दिव्य, अव्यय एवं प्रकाशमान आदित्यमण्डल में स्थित भगवान् भास्कर की स्तुति करने लगे —

आदिरेष हि भूतानामादित्य इति संज्ञित: ।
त्रैलोक्यचक्षुरेवात्र परमात्मा प्रजापति: ॥
एष वै मण्डले ह्यस्मिन् पुरुषो दीप्यते महान् ।
एष विष्णुरचिन्त्यात्मा ब्रह्मा चैष पितामह: ॥
रुद्रो महेन्द्रो वरुण आकाशं पृथिवी जलम् ।
वायुः शशाङ्कः पर्जन्यो धनाध्यक्षो विभावसुः ॥
य एष मण्डले ह्यस्मिन् पुरुषो दीप्यते महान् ।
एकः साक्षान्महादेवो वृत्रमण्डनिभः सदा ॥
कालो ह्येष महाबाहुर्निबोधोत्पत्तिलक्षणः ।
य एष मण्डले ह्यस्मिंस्तेजोभिः पूरयन् महीम् ॥
भ्राम्यते ह्यव्यवच्छिन्नो वातैर्योऽमृतलक्षणः ।
नातः परतरं किंचित् तेजसा विद्यते क्वचित् ॥
पुष्णाति सर्वभूतानि एष एव सुधामृतैः ।
अन्तःस्थान् म्लेच्छजातीयांस्तिर्यग्योनिगतानपि ॥
कारुण्यात् सर्वभूतानि पासि त्वं च विभावसो ।
श्वित्रकुष्ठ्यन्धबधिरान् पंगूंश्चापि तथा विभो ॥
प्रपन्नवत्सलो देव कुरुते नीरुजो भवान् ।
चक्रमण्डलमग्नांश्च निर्धनाल्पायुषस्तथा ॥
प्रत्यक्षदर्शी त्वं देव समुद्धरसि लीलया ।
का मे शक्तिः स्तवै: स्तोतुमार्तोऽहं रोगपीडितः ॥
स्तूयसे त्वं सदा देवैर्बह्मविष्णुशिवादिभि: ।
महेन्द्रसिद्धगन्धर्वैरप्सरोभिः सगुह्यकैः ॥
स्तुतिभिः किं पवित्रैर्वा तव देव समीरितैः ।
यस्य ते ऋग्यजुः साम्नां त्रितयं मण्डलस्थितम् ॥
ध्यानिनां त्वं परं ध्यानं मोक्षद्वारं च मोक्षिणाम् ।
अनन्ततेजसाक्षोभ्यो ह्यचिन्त्याव्यक्तनिष्कलः ॥
यदयं व्याहृतः किंचित् स्तोत्रेऽसस्मिञ्जगतः पतिः ।
आर्तिं भक्तिं च विज्ञाय तत्सर्वं ज्ञातुमर्हसि ॥
(ब्राह्मपर्व १२७। १०-२३)

‘प्रजापति परमात्मन् ! आप तीनों लोकों के नेत्र-स्वरूप हैं, सम्पूर्ण प्राणियों के आदि हैं, अतः आदित्य नाम से विख्यात हैं । आप इस मण्डल में महान् पुरुष रूप में देदीप्यमान हो रहे हैं । आप ही अचिन्त्यस्वरूप विष्णु और पितामह ब्रह्मा हैं । रुद्र, महेन्द्र, वरुण, आकाश, पृथ्वी, जल, वायु, चन्द्र, मेघ, कुबेर, विभावसु. यमके रूपमें इस मण्डलमें देदीप्यमान पुरुषके रूपसे आप ही प्रकाशित हैं । यह आपका साक्षात् महादेवमय वृत्त अण्डके समान है । आप काल एवं उत्पत्तिस्वरूप हैं । आपके मण्डलके तेज से सम्पूर्ण पृथ्वी व्याप्त हो रही है । आप सुधाकी वृष्टि से सभी प्राणियों को परिपुष्ट करते हैं । विभावसो ! आप ही अन्तःस्थ म्लेच्छजातीय एवं पशु-पक्षी की योनि में स्थित प्राणियों की रक्षा करते हैं । गलित कुष्ट आदि रोगों से ग्रस्त तथा अन्ध और बधिरों को भी आप ही रोगमुक्त करते हैं । देव ! आप शरणागत के रक्षक हैं । संसार-चक्र-मण्डल में निमग्न निर्धन, अल्पायु व्यक्तियों की भी सर्वदा आप रक्षा करते हैं । आप प्रत्यक्ष दिखायी देते हैं । आप अपनी लीलामात्र से ही सबका उद्धार कर देते हैं । आर्त और रोग से पीड़ित मैं स्तुतियों के द्वारा आपकी स्तुति करने में असमर्थ हूँ । आप तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश आदि से सदा स्तुत होते रहते हैं । महेन्द्र, सिद्ध, गन्धर्व, अप्सरा, गुह्यक आदि स्तुतियों के द्वारा आपकी सदा आराधना करते रहते हैं । जब ऋक् यजु और सामवेद तीनों आपके मण्डल में ही स्थित हैं तो दूसरी कौन-सी पवित्र अन्य स्तुति आपके गुणों का पार पा सकती है ? आप ध्यानियों के परम ध्यान और मोक्षार्थियों के मोक्षद्वार हैं । अनन्त तेजोराशि से सम्पन्न आप नित्य अचिन्त्य, अक्षोभ्य, अव्यक्त और निष्कल हैं । जगत्पते ! इस स्तोत्र में जो कुछ भी मैंने कहा है, इसके द्वारा आप मेरी भक्ति तथा दुःखमय परिस्थिति (कुष्ठ रोगको बात) — को जान लें और मेरी विपत्ति को दूर करें ।सूर्यभगवान् ने कहा — जाम्बवतीपुत्र ! मैं तुम्हारी स्तुति से प्रसन्न हूँ, वत्स ! मुझसे जो तुम चाहते हो वह कहो ।

साम्ब ने कहा —
भगवन् ! आपके चरणों में मेरी दृढ़ भक्ति हो, यही वर चाहता हूँ ।

सूर्यभगवान् ने कहा — ऐसा ही होगा ! मैं तुमसे बहुत संतुष्ट हूँ, सुव्रत ! द्वितीय वर माँगो ।

साम्ब ने कहा — भगवन् ! मेरे शरीर में रहनेवाला यह मल – कुष्ठ आपकी कृपा से दूर हो जाय, गोपते ! मेरा शरीर सर्वथा शुद्ध निर्मल हो जाय ।

भगवान् सूर्य ने कहा — ऐसा ही होगा ।
भगवान् सूर्य के ऐसा कहते ही साम्ब के शरीर से कुछ रोग वैसे ही दूर हो गया जैसे सर्प के शरीरसे केंचुल । वह दिव्य रूप-सम्पन्न हो गया । साम्ब भगवान् सूर्य को प्रणाम कर उनके सम्मुख खड़े हो गये ।

सूर्यदेव ने कहा — साम्ब ! प्रसन्न होकर मैं और भी वर देता हूँ । आजसे मेरा यह स्थान तुम्हारे नाम से प्रसिद्ध होगा । लोक में तुम्हारी अक्षय कीर्ति होगी । जो व्यक्ति तुम्हारे नाम से मेरा स्थान बनायेगा, उसे सनातन लोक प्राप्त होगा । इस चन्द्रभागा नदी तट पर मेरी स्थापना करो । मैं तुझे स्वप्न में दर्शन देता रहूँगा । इतना कहकर सूर्यभगवान् प्रत्यक्ष दर्शन देकर अन्तर्धान हो गये ।

इस साम्बकृत स्तोत्र को जो व्यक्ति भक्तिपूर्वक तीन काल में पढ़ता है अथवा सात दिनों में एक सौ इक्कीस बार पाठ और हवन करता है तो राज्य की कामना करने वाला राज्य, धन की कामना करनेवाला धन प्राप्त कर लेता है और रोग से पीड़ित व्यक्ति वैसे ही रोगमुक्त हो जाता है, जैसे साम्ब कुष्ठरोगसे मुक्त हो गये ।
सुमन्तु मुनि बोले— राजन् ! तपस्या के समय रोग से दुर्बल साम्ब ने सूर्य की स्तुति उनके सहस्रनाम से की थी । उसे दुःखी देखकर स्वप्न में भगवान् सूर्य ने साम्ब से कहा — ‘साम्ब ! सहस्रनाम से मेरी स्तुति करने की आवश्यकता नहीं हैं । मैं अपने अतिशय गोपनीय, पवित्र और इक्कीस शुभ नाम को बताता हूँ । प्रयत्नपूर्वक उन्हें ग्रहण करो, उनके पाठ करने से सहस्रनाम के पाठ का फल प्राप्त होगा । मेरे इक्कीस नाम इस प्रकार हैं —

“वैकर्तनो विवस्वांश्च मार्तण्डो भास्करो रविः ।
लोकप्रकाशकः श्रीमाँल्लोकचक्षुर्ग्रहेश्वरः ॥
लोकसाक्षी त्रिलोकेशः कर्ता हर्ता तमिस्रहा ।
तपनस्तापनश्चैव शुचिः सप्ताववाहनः ॥
गभस्तिहस्तो ब्रह्मा च सर्वदेवनमस्कृतः ।”

(ब्राह्मपर्व १२८ । ५-७)

‘(१) विकर्तन (विपत्तियों को काटने तथा नष्ट करनेवाले), (२) विवस्वान् (प्रकाश-रूप), (३) मार्तण्ड (जिन्होंने अण्ड में बहुत दिन निवास किया), (४) भास्कर, (५) रवि, (६) लोकप्रकाशक, (७) श्रीमान्, (८) लोकचक्षु, (९) ग्रहेश्वर, (१०) लोकसाक्षी, (११) त्रिलोकेश, (१२) कर्ता, (१३) हर्ता, (१४) तमिस्रहा (अन्धकारको नष्ट करनेवाले), (१५) तपन, (१६) तापन, (१७) शुचि (पवित्रतम), (१८) सप्ताश्ववाहन, (१९) गभस्तिहस्त (किरणें ही जिनके हाथस्वरूप हैं), (२०) ब्रह्मा और (२१) सर्वदेवनमस्कृत ।
साम्ब ! ये इक्कीस नाम मुझे अतिशय प्रिय हैं । यह स्तवराज के नामसे प्रसिद्ध है । यह स्तवराज शरीर को नीरोग बनानेवाला, धन की वृद्धि करनेवाला और यशस्कर है एवं तीनों लोकों में विख्यात है । महाबाहो ! इन नामों से उदय और अस्त दोनों संध्या के समय प्रणत होकर जो मेरी स्तुति करता है, वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है । मानसिक, वाचिक और शारीरिक जो भी दुष्कृत हैं, वे सभी एक बार मेरे सम्मुख इसका जप करने से विनष्ट हो जाते हैं । यही मेरे लिये जपने योग्य तथा हवन एवं संध्योपासना है । बलिमन्त्र, अर्घ्यमन्त्र, धूपमन्त्र इत्यादि भी यही है । अन्नप्रदान, स्नान, नमस्कार, प्रदक्षिणा में यह महामन्त्र प्रतिष्ठित होकर सभी पापों का हरण करनेवाला और शुभ करनेवाला है । यह कहकर जगत्पति भगवान् भास्कर कृष्णपुत्र साम्ब को उपदेश देकर वहीं अन्तर्धान हो गये । साम्ब भी इस स्तवराज से सप्ताश्ववाहन भास्कर की स्तुति कर नीरोग, श्रीमान् और उस भयंकर शारीरिक रोग से सर्वथा मुक्त हो गये ।
(अध्याय १२७-१२८)

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