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भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १४५
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय – १४५
भगवान् व्यास द्वारा योग-ज्ञान का वर्णन

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — महामुने ! कृपाकर आप भोजकों के सभी ज्ञानों की उपलब्धि का वर्णन करें ।

व्यासजी ने कहा — यह शरीर अस्थियों पर ही खड़ा है, स्नायु से बँधा, चमड़े से ढका एवं रक्त-मांस से उपलिप्त है । मल-मूत्र आदि दुर्गन्ध-युक्त पदार्थों से भरा है । om, ॐयह समस्त रोगों का घर है और इसमें (भीतर) वृद्धावस्था और शोक छिपे हैं, जो अपने-अपने समय पर प्रकट होते रहते हैं । यह शरीर रजोगुण आदि गुणों से भरा है, अनित्य है और इसमें भूतसंघों का आवास बना है । अतः इसमें आसक्ति का सर्वथा परित्याग कर देना चाहिये ।
अस्थिस्थूलं स्नायुयुतं मांसशोणितलेपनम् ।
चर्मावनद्धं दुर्गन्धिपूर्णं मूत्रपुरीषयोः ॥
जराशोकसमाविष्टं रोगायतनमातुरम् ।
रजस्वलमनित्यं च भूतावासमिमं त्यजेत् ॥
(ब्राह्मपर्व १४५ । २-३)

वृक्षों के नीचे निवास करना, भोजन के लिये मिट्टी का भिक्षापात्र रखना, साधारण वस्त्र पहनना और किसी से सहायता न लेना तथा सभी प्राणियों में समभाव रखना— यही जीवन्मुक्त पुरुष के लक्षण हैं ।
जैसे तिल में तैल, गाय में दूध, काष्ठ में अग्नि स्थित है, वैसे ही परमात्मा समस्त प्राणियों में स्थित हैं । ऐसा समझकर उसकी प्राप्ति का उपाय करना चाहिये । प्रथम प्रमथन स्वभाव वाले तथा चञ्चल मन को प्रयत्नपूर्वक वश में कर बुद्धि और इन्द्रियों को वैसे ही रोकना चाहिये जैसे पिंजरे में पक्षियों को रोका जाता हैं । इन संयत इन्द्रियों के द्वारा इस शरीर को अमृत की धारा के समान तृप्ति होती है ।
तिले तैलं गवि क्षीरं काष्ठे पावकसंततिः ।
उपायं चिन्तयेदस्य धिया धीरः समाहितः ॥
प्रमाथि च प्रयत्नेन मनसंयम्य चञ्चलम् ।
बुद्धीन्द्रियाणि संयम्य शकुनानिव पंजरे ॥ (ब्राह्मपर्व १४५ । ५-६)

प्राणायाम से शारीरिक दोष, धारणा से पूर्वजन्मार्जित तथा वर्तमान तक के सभी पाप, प्रत्याहार से संसर्गजनित दोष एवं ध्यान से जैविक दोषों का त्यागकर ईश्वरीय गुणों को प्राप्त करना चाहिये । जैसे आग ताप में रखने से धातुओं के दोष दग्ध हो जाते हैं, वैसे ही प्राणायाम के द्वारा साधक इन्द्रियजनित दोष दग्ध हो जाते हैं । जैसे एक हाथ से दूसरे हाथ को दबाया जाता है, वैसे ही अपनी शुद्ध बुद्धि के द्वारा मन को एवं चित्त को शुद्ध कर पवित्र भावनाओं के द्वारा दुर्व्यसनों को शान्त कर मन-बुद्धि को अत्यन्त पवित्र कर लेना चाहिये । अतः चित्त की बुद्धि के लिये प्रयास करना चाहिये । चित्त की शुद्धि होने से शुभ और अशुभ कर्मों का ज्ञान होता है । शुभ और अशुभ कर्मों से छुटकारा प्राप्त कर साधक निर्द्वन्द्व, निर्मम, निष्परिग्रह और निरहंकार होकर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है ।
इन्द्रियैर्नियतैर्देही धाराभिरिव तृप्यते ।
सततममृतस्यैव जनार्दन महामते ॥
प्राणायामैर्दहेद्दोषान् धारणाभिश्च किल्बिषम् ।
प्रत्याहारेण संसर्गान् ध्यानेनानीश्वरान् गुणान् ॥
ध्यायमानस्य दह्यन्ते चान्ते दोषा यथाग्निना ।
तथेन्द्रियकृता दोषा दह्यन्ते प्राणनिग्रहात् ॥
चित्तं चित्तेन संशोध्य भावं भावेन शोधयेत् ।
मनस्तु मनसा शोध्य बुद्धिं बुद्ध्या तु शोधयेत् ॥
चित्तस्यातिप्रसादेन भाति कर्म शुभाशुभम् ।
शुभाशुभविनिर्मुक्तो निर्द्वन्द्वो निष्परिग्रहः ।
निर्ममो निरहंकारस्ततो याति परां गतिम् ॥
(ब्राह्मपर्व १४५ । ७-११)
सूर्य का पूर्वाह्ण में रक्तवर्ण, ऋग्वेद-स्वरूप तथा राजसरूप होता है । मध्याह्न में शुक्र्लवर्ण, यजुर्वेद-स्वरूप एवं सात्त्विक रूप होता है । सायंकाल में कृष्णवर्ण, सामवेद-स्वरूप तथा तामसरूप होता है । इन तीनों से भिन्न ज्योतिःस्वरूप, सूक्ष्म और निरञ्जन-स्वरूप चतुर्थ स्वरूप है । पद्मासन में बैठकर सुषुम्णा नाड़ी-मार्ग में चित्त को स्थिर कर प्रणव से पूरक, कुम्भक और रेचक रूप प्राणायाम कर पैर के अँगूठे के अग्रभाग से लेकर मस्तक-पर्यन्त न्यास करे । नाभि में अग्नि का. हृदय में चन्द्रमा को और मस्तक में अग्निशिखा का न्यास करना चाहिये । इन सबसे ऊपर सूर्यमण्डल का न्यास करे — यह चतुर्थ स्थान है, इस स्थान को मोक्ष की इच्छा करनेवाले पुरुष को अवश्य जानना चाहिये । ऋषिगण सूर्यभगवान् के इसी तुरीय स्थान में मन को लीनकर मुक्त हो जाते हैं । मग भी इसी स्थान का ध्यान कर मोक्ष के भागी होते हैं । इस ज्ञान को सुनाकर भगवान् वेदव्यास बदरिकाश्रम की ओर चले गये ।
(अध्याय १४५)

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