भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १५१
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय – १५१
सौरधर्म का वर्णन

राजा शतानीकने पूछा — मुने ! भगवान् सूर्य का माहात्म्य कीर्तिवर्धक और सभी पापों का नाशक है । मैंने भगवान् सूर्यनारायण के समान लोक में किसी अन्य देवता को नहीं देखा । जो भरण-पोषण और संहार भी करनेवाले हैं वे भगवान् सूर्य किस प्रकार प्रसन्न होते हैं, उस धर्म को आप अच्छी तरह जानते हैं । मैंने वैष्णव, शैव, पौराणिक आदि धर्मों का श्रवण किया है । अब मैं सौरधर्म को जानना चाहता हूँ । इसे आप मुझे बताये ।om, ॐसुमन्तु मुनि बोले — राजन् ! अब आप सौरधर्म के विषय में सुनें ।

यह सौरधर्म सभी धर्मों में श्रेष्ठ और उत्तम है । किसी समय स्वयं भगवान् सूर्य ने अपने सारथि अरुण से इसे कहा था । सौरधर्म अन्धकाररूपी दोष को दूरकर प्राणियों को प्रकाशित करता है और यह संसार के लिये महान कल्याणकारी है । जो व्यक्ति शान्त्तचित्त होकर सूर्य की भक्तिपूर्वक पूजा करता है, वह सुख और धन-धान्य से परिपूर्ण हो जाता है । प्रातः, मध्याह्न और सायं — त्रिकाल अथवा एक ही समय सूर्य की उपासना अवश्य करनी चाहिये । जो व्यक्ति सूर्यनारायण का भक्तिपूर्वक अर्चन, पूजन और स्मरण करता है, वह सात जन्मों में किये गये सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है । जो भगवान् सूर्य को सदा स्तुति, प्रार्थना और आराधना करते हैं, वे प्राकृत मनुष्य न होकर देवस्वरूप ही हैं । षोड़शाङ्ग-पूजन-विधि को स्वयं सूर्यनारायण ने कहा है, वह इस प्रकार है —प्रातः स्नानकर शुद्ध वस्त्र धारण करना चाहिये जप, हवन, पूजन, अर्चनादिकर सूर्य को प्रणाम करके भक्तिपूर्वक ब्राह्मण, गाय, पीपल आदि की पूजा करनी चाहिये । भक्ति-पूर्वक इतिहास – पुराण का श्रवण और ब्राह्मणों को वेदाभ्यास करना चाहिये । सबसे प्रेम करना चाहिये । स्वयं पूजन कर लोगों को पुराणादि ग्रन्थों की व्याख्या सुनानी चाहिये । मेरा नित्य-प्रति स्मरण करना चाहिये । इस प्रकार के उपचारों से जो अर्चन-पूजन-विधि बतायी गयी है, वह सभी प्रकार के लोगों के लिये उत्तम है । जो कोई इस प्रकार से भक्तिपूर्वक मेरा पूजन करता है, वही मुनि श्रीमान्, पण्डित और अच्छे कुलमें उत्पन्न है । जो कोई पत्र, पुष्प, फल, जल आदि जो भी उपलब्ध हो उससे मेरी पूजा करता है उसके लिये न में अदृश्य हूँ और न वह मेरे लिये अदृश्य है । मुझे जो व्यक्ति जिस भावना से देखता है, मैं भी उसे उसी रूप में दिखायी पड़ता हूँ । जहाँ मैं स्थित हूँ, वहीं मेरा भक्त भी स्थित होता है । जो मुझ सर्वव्यापी को सर्वत्र और सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित देखता हैं, उसके लिये मैं उसके हृदय में स्थित हूँ और वह मेरे हृदय में स्थित है । सूर्य की पूजा करनेवाला व्यक्ति बड़े बड़े राजाओं पर विजय प्राप्त कर लेता है । जो व्यक्ति मनसे मेरा निरन्तर ध्यान करता रहता है, उसकी चिन्ता मुझे बराबर बनी रहती है कि कहीं उसे कोई दुःख न होने पाये । मेरा भक्त मुझको अत्यन्त प्रिय है । मुझमें अनन्य निष्ठा ही सब धर्मों का सार है ।
(अध्याय १५१)

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