भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १३ से १५
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(मध्यमपर्व — प्रथम भाग)
अध्याय – १३ से १५
कुण्ड-निर्माण एवं उनके संस्कार की विधि और ग्रह-शान्ति का माहात्म्य

सूतजी बोले — द्विजश्रेष्ठ ! अब मैं यज्ञकुण्डों के निर्माण एवं उनके संस्कार की संक्षिप्त विधि बता रहा हूँ । कुण्ड दस प्रकार के होते हैं —
(१) चौकोर, (२) वृत्त, (३) पद्म, (४) अर्धचन्द्र, (५) योनि की आकृति का, (६) चन्द्राकार, (७) पञ्चकोण, (८) सप्तकोण (९) अष्टकोण और (१०) नौ कोणोंवाला om, ॐसबसे पहले भूमि का संशोधन कर भूमि पर पड़े हुए तृण, केश आदि हटा देने चाहिये । फिर उस भूमि पर भस्म और अंगारे घुमाकर भूमि शुद्धि करनी चाहिये, तदनन्तर उस भूमि पर जल सिंचनकर बीजारोपण करे और सात दिन के बाद कुण्ड-निर्माण के लिये खनन करना चाहिये । तत्पश्चात् अभीष्ट उपर्युक्त दस कुण्डों में से किसी का निर्माण करना चाहिये । कुण्ड-निर्माणार्थ विधिवत् नाप-जोख के लिये सूत्र का उपयोग करे । कामना-भेद से कुण्ड भी अनेक आकार के होते हैं । कुण्ड के अनुरूप ही मेखला भी बनायी जाती है । यज्ञों में आहुतियों की संख्या का भी अलग-अलग विधान है । विधि-प्रमाण के अनुसार आहुति देनी चाहिये । मान-रहित हवन करने से कोई फल नहीं मिलता । अतः बुद्धिमान् मनुष्य को मान का पूर्ण ज्ञान रखकर ही कुण्ड का विधिवत् निर्माण कर यज्ञानुष्ठान करना चाहिये । जिस यज्ञ का जितना मान होता है, उसी मान की ही योजना करनी चाहिये । पचास आहुतियों का मान सामान्य है, इसके बाद सौ, हजार, अयुत, लक्ष और कोटि होम भी होते हैं । बड़े-बड़े यज्ञ सम्पत्ति रहने पर हो सकते हैं या राजा-महाराजा कर सकते हैं । मनुष्य अपने-अपने प्राक्तन कर्म के अनुसार सुख-दुःख का उपभोग करता है तथा शुभाशुभ-फल ग्रहों के अनुसार भोगता है । अतः शान्ति-पुष्टि-कर्म में ग्रहों की शान्ति प्रयत्न-पूर्वक परम भक्ति से करनी चाहिये । दिव्य, अन्तरिक्ष और पृथिवी-सम्बन्धी बड़े-बड़े अद्भुत उत्पातों के होने पर शुभाशुभ फल देनेवाली ग्रह-शान्ति करनी चाहिये । इन अवसरों पर अयुत होम करना चाहिये । काम्य-कर्म या शान्ति-पुष्टि के लिये ग्रहों का भक्तिपूर्वक नित्य पूजन एवं हवन करना चाहिये । कलि में ग्रहों के लिये लक्ष एवं कोटि होम का विधान है । गृहस्थ को आभिचारिक कर्म नहीं करना चाहिये ।

कुण्डों का शास्त्रानुसार संस्कार करना चाहिये । बिना संस्कार किये होम करने पर अर्थ-हानि होती है । अतः संस्कार करके होमादि क्रियाएँ करनी चाहिये ।कुण्डों के स्थान का ओंकार-पूर्वक अवेक्षण (देखना, निरीक्षण, जाँच-पड़ताल), कुश के जल से प्रोक्षण, त्रिशूलीकरण तथा सूत्र से आवेष्टित करना, कीलित करना, अग्निजिह्वा की भावना करना एवं अग्न्याहरण आदि अठारह संस्कार होते हैं । शूद्र के घर से अग्नि कभी न लाये । स्त्री के द्वारा भी अग्नि नहीं मैँगवानी चाहिये । शुद्ध एवं पवित्र व्यक्ति द्वारा अग्नि ग्रहण करना चाहिये । तदनन्तर अग्नि का संस्कार करे और उसे अपने अभिमुख रखे । अग्नि-बीज (रं) और शिव-बीज (शं)— से उसका प्रोक्षण करे और शिव-शक्ति का ध्यान करे, इससे अभीष्ट सिद्धि की प्राप्ति होती है । उसके बाद वायु के सहारे अग्नि प्रज्वलित करे । देवी भगवती का और भगवान् का अर्घ्य, पाद्य, आचमनीय आदि से पूजन करे । अग्नि-पूजन में इस मन्त्र का उपयोग करे —

‘पितृपिङ्गल दह दह पच पच सर्वज्ञाज्ञापय स्वाहा ।’

यज्ञदत्त-मुनि ने अग्नि की तीन जिह्वाएँ बतलायी हैं — हिरण्या, कनका तथा कृष्णा
( प्रकारान्तर से विश्वमूर्ति, स्फुलिङ्गिनी, धूम्रवर्णा, मनोजवा, लोहितास्या, कराकास्या तथा काली — ये भी सात प्रकार की अग्निजिह्वाएँ कही गयी हैं। )
समिधा-भेद से जिन जिह्वा भेदों का वर्णन हैं, उनका उन्हीं में विनियोग करना चाहिये । बहुरूपा, अतिरूपा और सात्त्विका — इनका योग-कर्म में विनियोग होता है । आज्यहोम में हिरण्या, त्रिमधु (दूध, चीनी और मधु—इन तीनों के समाहार)— से हवन करने पर कर्णिका. शुद्ध क्षीर से हवन करने पर रक्ता, नैत्यिक कर्म में प्रभा, पुष्पहोम में बहुरूपा, अन्न और पायस से हवन करने में कृष्णा, इक्षु-होम में पद्मरागा, पद्म-होम में सुवर्णा और लोहिता, बिल्वपत्र से हवन करने पर श्वेता, तिल-होम में धूमिनी, काष्ठ होम में करालिका, पितृहोम में लोहितास्या, देव-होम में मनोजवा नाम की अग्निज्वाला कही गयी हैं । जिन-जिन समिधाओं से हवन किया जाता है, उन-उन समिधाओं में ‘वैश्वानर’ नामक अग्निदेव स्थित रहते हैं ।

अग्नि के मुख में मन्त्रोच्चारणपूर्वक आहुति पड़ने पर अग्नि देवता सभी प्रकार का अभ्युदय करते हैं । मुख के अतिरिक्त शेष स्थानों पर आहुति देने से अनिष्ट फल होता है । अग्नि की जिह्वाएँ विशेषरूप से घृताहुति में हिरण्या एवं अन्यान्य आहुतियों में गणना, वक्रा, कृष्णाभा, सुप्रभा, बहुरूपा तथा अति-रूपिका नाम से प्रसिद्ध हैं । कुण्ड के उदर में अर्थात् मध्य में आहुतियाँ देनी चाहिये । इधर-उधर नहीं देनी चाहिये । चन्दन, अगरु, कपूर, पाटला तथा यूथिका (जूही)— के समान अग्नि से प्रादुर्भूत गन्ध सभी प्रकार का कल्याणकारक होता है ।

यदि अग्नि की ज्वाला छिन्न-वृत्त-रूप में उठती हो तो मृत्युभय होता है और धन का क्षय होता है । अग्नि बुझ जाने तथा अत्यधिक धुआँ होनेपर भी महान् अनिष्ट होता है । ऐसी स्थितियों में प्रायश्चित करना चाहिये । पहले अट्ठाईस (२८० आहुतियाँ देकर ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये । अनन्तर घी से मूल-मन्त्र द्वारा पचीस (२५) आहुतियाँ देनी चाहिये । तीनों कालों में महास्नान करे तथा श्रद्धा-भक्ति-पूर्वक भगवान् विष्णु की पूजा करे ।
(अध्याय १३-१५)

See Also :-

1.  भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१६
2.
भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १
3. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय २ से ३
4.
भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय ४
5.
भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय ५
6.
भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय ६
7.
भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय ७ से ८
8.
भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय ९
9.
भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १० से ११
10.  
भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १२

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.