December 23, 2018 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय ३ से ५ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (मध्यमपर्व — द्वितीय भाग) अध्याय ३ से ५ यज्ञादि कर्म में दक्षिणाका माहात्म्य, विभिन्न कर्मों में पारिश्रमिक व्यवस्था और कलश-स्थापन का वर्णन सूतजी बोले — ब्राह्मणों ! शास्त्रविहित यज्ञादि कार्य दक्षिणा-रहित एवं परिमाण-विहीन कभी नहीं करना चाहिये । ऐसा यज्ञ कभी सफल नहीं होता । जिस यज्ञ का जो माप बतलाया गया है, उसके अनुसार विधान करना चाहिये । मापरहित यज्ञ करनेवाले व्यक्ति नरक में जाते हैं । आचार्य, होता, ब्रह्मा तथा जितने भी सहयोगी हों, वे सभी विधिज्ञ हों ।अस्सी वराटों (कौड़ियों)— का एक पण होता है । सोलह पण का एक पुराण कहा जाता है, सात पुराणों की एक रजतमुद्रा तथा आठ रजतमुद्राओं की एक स्वर्णमुद्रा कही जाती है, जो यज्ञ आदि में दक्षिणा दी जाती है । बड़े उद्यानों को प्रतिष्ठा-यज्ञ में दो स्वर्णमुद्राएँ, कूपोत्सर्ग में आधी स्वर्णमुद्रा (निष्क), तुलसी एवं आमलकी-याग में एक स्वर्णमुद्रा (निष्क) दक्षिणा-रूप में विहित है । लक्ष-होम में चार स्वर्ण-मुद्रा, कोटि-होम, देव-प्रतिष्ठा तथा प्रासाद के उत्सर्ग में अठारह स्वर्ण-मुद्राएँ दक्षिणा-रूप देने का विधान है । ताग तथा पुष्करिणी-याग में आधी-आधी स्वर्णमुद्रा देनी चाहिये । महादान, दीक्षा, वृषोत्सर्ग तथा गया-श्राद्ध में अपने विभव के अनुसार दक्षिणा देनी चाहिये । महाभारत के श्रवण में अस्सी रती तथा ग्रहयाग, प्रतिष्ठाकर्म, लक्षहोम, अयुत-होम तथा कोटिहोम में सौ-सौ रत्ती सुवर्ण देना चाहिये । इसी प्रकार शास्त्रों में निर्दिष्ट सत्पात्र व्यक्ति को ही दान देना चाहिये, अपात्र को नहीं। यज्ञ, होम में द्रव्य, काष्ठ, घृत आदि के लिये शास्त्र-निर्दिष्ट विधि का ही अनुसरण करना चाहिये । यज्ञ, दान तथा व्रतादि कर्मों में दक्षिणा (तत्काल) देनी चाहिये । बिना दक्षिणा के ये कार्य नहीं करने चाहिये । ब्राह्मणों का जब वरण किया जाय तब उन्हें रत्न, सुवर्ण, चाँदी आदि दक्षिणा-रूप में देना चाहिये । वस्त्र एवं भूमि-दान भी विहित हैं । अन्यान्य दानों एवं यज्ञों में दक्षिणा एवं द्रव्यों का अलग-अलग विधान है । विधान के अनुसार नियत दक्षिणा देने में असमर्थ होने पर यज्ञ-कार्य की सिद्धि के लिये देव-प्रतिमा, पुस्तक, रत्न, गाय, धान्य, तिल, रुद्राक्ष, फल एवं पुष्प आदि भी दिये जा सकते हैं । सूतजी पुनः बोले — ब्राह्मणो ! अब मैं पूर्णपात्र का स्वरूप बतलाता हूँ । उसे सुने । काम्य-होम में एक मुष्टि के पूर्णपात्र का विधान है । आठ मुट्ठी अन्न को एक कुञ्चिका कहते हैं । इसी प्रमाण से पूर्णपात्रों का निर्माण करना चाहिये । उन पात्रों को अलग कर द्वार-प्रदेश में स्थापित करे ।कुण्ड और कुड्मलों के निर्माण के पारिश्रमिक इस प्रकार हैं — चौकोर कुण्ड के लिये रौप्यादि, सर्वतोभद्रकुण्ड के लिये दो रौप्य, महासिंहासन के लिये पाँच रौप्य, सहस्रार तथा मेरुपृष्ठकुण्ड के लिये एक बैल तथा चार रौप्य, महाकुण्ड के निर्माण में द्विगुणित स्वर्णपाद, वृत्तकुण्ड के लिये एक रौप्य, पद्मकुण्ड के लिये वृषभ, अर्धचन्द्र-कुण्ड के लिये एक रौप्य, योनिकुण्ड के निर्माण में एक धेनु तथा चार माशा स्वर्ण, शैवयाग में तथा उद्यापन में एक माशा स्वर्ण, इष्टिकाकरण में प्रतिदिन दो पण पारिश्रमिक देना चाहिये । खण्ड-कुण्ड- (अर्ध गोलाकार-) निर्माता को दस वराट (एक वराट बराबर अस्सी कौड़ी), इससे बड़े कुण्ड के निर्माण में एक काकिणी (माशे का चौथाई भाग), सात हाथ के कुण्ड-निर्माण में एक पण, बृहत्कूप के निर्माण में प्रतिदिन दो पण, गृह-निर्माण में प्रतिदिन एक रत्ती सोना, कोष्ठ बनवाना हो तो आधा पण, रंग से रँगाने में एक पण, वृक्षों के रोपण में प्रतिदिन डेढ़ पण पारिश्रमिक देना चाहिये । इसी तरह पृथक् कर्मों में अनेक रीति से पारिश्रमिक का विधान किया गया है । यदि नापित सिर से मुण्डन करे तो उसे दस काकिणी देनी चाहिये । स्त्रियों के नख आदि के रञ्जन के लिये काकिणी के साथ पण भी देना चाहिये । धान के रोपण में एक दिन का एक पण पारिश्रमिक होता है । तैल और क्षार से वर्जित वस्त्र की धुलाई लिये एक पण पारिश्रमिक देना चाहिये । इसमें वस्त्र की लम्बाई के अनुसार कुछ वृद्धि भी की जा सकती है । मिट्टी खोदने में, कुदाल चलाने में, इक्षु-दण्ड के निष्पीडन तथा सहस्र पुष्प चयन में दस-दस काकिणी पारिश्रमिक देना चाहिये । छोटी माला बनाने में एक काकिणी, बड़ी माला बनाने में दो काकिणी देना चाहिये । दीपक का आधार काँसे या पीतल का होना चाहिये । इन दोनों के अभाव में मिट्टी का भी आधार बनाया जा सकता है । Content is available only for registered users. Please login or registerसूतजी पुनः बोले — ब्राह्मणों ! अब मैं कलशों के विषय में निश्चित मत प्रकट करता हैं, जिसका उपयोग करने से मङ्गल होता है और यात्रा में सिद्धि प्राप्त होती है । कलश में सात अङ्ग अथवा पाँच अङ्ग होते हैं । कलश में केवल जल भरने से ही सिद्धि नहीं होती, इसमें अक्षत और पुष्पों में देवताओं का आवाहन कर उनका पूजन भी करना चाहिये — ऐसा न करने से पूजन निष्फल हो जाता है । वट, अश्वत्थ, धव-वृक्ष और बिल्व-वृक्ष के पल्लवों को कलश के ऊपर रखे प्रचलित परम्परा में आम, पीपल, बरगद, प्लक्ष (पाकड़) तथा उदुम्बर (गूलर)— ये पञ्च-पल्लव कहे गये हैं ।। कलश सोना, चाँदी, ताँबा या मृत्तिका के बनाये जाते हैं । कलश का निर्माण अपनी सामर्थ्य के अनुसार करे । कलश अभेद्य, निश्छिद्र, नवीन, सुन्दर एवं जल से पूरित होना चाहिये । कलश के निर्माण के विषय में भी निश्चित प्रमाण बतलाया गया है । बिना मान के बना हुआ कलश उपयुक्त नहीं माना गया है । जहाँ देवताओं का आवाहन-पूजन किया जाय, उन्हीं की संनिधि में कलश की स्थापना करनी चाहिये । व्यतिक्रम करने पर फल का अपहरण राक्षस कर लेते हैं । स्वस्तिक बनाकर उसके ऊपर निर्दिष्ट विधि से कलश स्थापित कर वरुणादि देवताओं का आवाहन करके उनका पूजन करना चाहिये । (अध्याय ३-५) See Also :- 1. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१६ 2. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १९ से २१ 3. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय १ से २ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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