ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(मध्यमपर्व — द्वितीय भाग)
अध्याय – १४ से १६
कुशकण्डिका-विधान तथा अग्नि-जिह्वाओं के नाम

सूतजी कहते हैं — ब्राह्मणों ! अब मैं याग-विशेषों में स्वगृह्याग्नि-विधि कह रहा हूँ । अपनी वेदादि शाखा के अनुकूल ही गृह्माग्नि-विधि करनी चाहिये । दूसरे की शाखा के विधान से याग-विशेषों का अनुष्ठान करने पर भय की प्राप्ति होती है और कीर्ति का नाश होता है । पुत्र, कन्या और आगे उत्पन्न होनेवाले पुत्रादि गृह्यनाम से कहे जाते हैं । यजमान के जितने दायाद  दायाद ^१ वि॰ [सं॰] [वि॰ स्त्री॰ दायादा] जिसे दाय मिले । जो दाय का अधिकारी हो । जिसे संबंध के कारण किसी की जायदाद में हिस्सा मिले । दायाद ^२ संज्ञा पुं॰ १. दाय पाने का अधिकारी मनुष्य । वह जिसका संबंध के कारण किसी की जायदाद में हिस्सा हो । होते हैं, वे सब गृह्यनाम से कहे जाते हैं । उनके संस्कार, याग और शान्तिकर्म क्रियाओं में अपने गृह्याग्नि से ही अनुष्ठान करना चाहिये । आचार्य द्वारा विहित कल्प को दक्षस्मृति में कहा गया है । आचार्य इन कर्मों में तीन कुशाओं का परिग्रहण करता है । om, ॐजिस मन्त्र से कुश ग्रहण करता है, उसके प्राप्त ऋषि दक्ष, जगती छन्द और विष्णु देवता हैं । पृथ्वी के शोधन में ‘भूरसि० ‘ (यजु० १३ । १८) इस मन्त्र का विनियोग करे । इस मन्त्र के ऋषि सुवर्ण हैं, गायत्री और जगती छन्द तथा सूर्य देवता है । अनन्तर उन तीन कुशाओं को तर्जनी तथा अँगूठे से पकड़कर ईशानकोण से लेकर दक्षिण होते हुए ईशानकोण तक वलयाकृति में घुमाये तथा उनसे भूमि का मार्जन करे । यही परिसमूहन-क्रिया है । ‘मा नस्तोके० ‘ (यजु० १६ । १६) इस मन्त्र के द्वारा गोमय से भूमि का उपलेपन करे । तदनन्तर (खैर की लकड़ी से बने स्प्य के द्वारा ) रेखाकरण करे । पूरब से पश्चिम की ओर तीन रेखाएँ खींचे । पहली रेखा दक्षिण की ओर अनन्तर उत्तर की ओर बढ़े । इसके विपरीत करनेपर अमङ्गल होता है । इसके बाद अङ्गुष्ठ तथा अनामिका से उन तीनों रेखाओं से मिट्टी निकाले, इसे उद्धरण कहा जाता है । इस समय “मित्रावरुणाभ्य० ‘ (यजु० ७ । २३) इत्यादि मन्त्रों का स्मरण करे । अनन्तर कुशपुष्पोदक अथवा पञ्चगव्य या पञ्चरत्नोदक अथवा पञ्चपल्लवों के जल से अभ्युक्षण (अभिसिञ्चन) करे । अनन्तर कर्म-साधन-भूत लौकिक स्मार्त अथवा श्रौताग्नि का आनयन करे और अपने सामने स्थापित करे । इस क्रिया में ‘मे गृह्णामि० ‘ इस मन्त्र का पाठ करे । ‘क्रव्यादमग्निं० ‘ (यजु० ३५ । १९) इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए लायी गयी अग्नि में से कुछ आग दक्षिण दिशा की ओर फेंक दें, यह ‘क्रव्यादाग्नि ‘ कही गयी है । क्रव्यादाग्नि का ग्रहण न करे । ‘संसरक्ष० ‘ इस मन्त्र से उस अग्नि का आवाहन करे । तदनन्तर “वैश्वानर० ‘ (यजु० २६ । ७) इस मन्त्र से कुण्ड आदि में अग्नि-स्थापन करे । ‘बध्नासि० ‘ इस मन्त्र से अग्नि की प्रदक्षिणा करे तथा अग्निदेव को नमस्कार करे । अग्नि के दक्षिण में वरण किये गये ब्रह्मा को कुश के आसन पर ‘ब्रह्मन् इह उपविश्यताम्’ कहकर बैठाये । उस समय ‘ब्रह्म जज्ञानं० ‘ (यजु० १३ । ३) तथा ‘दोग्ध्री धेनु० ‘ इन दो मन्त्रों का पाठ करे । अग्नि के उत्तरभाग में प्रणीता-पात्र को स्थापित करे । ‘इमं में वरुण० ‘ (यजु० २१ । १) इस मन्त्र से प्रणीता-पात्र को जल से भर दे । इसके अनन्तर कुण्ड के चारों ओर कुश-परिस्तरण करे और काष्ठ (समिधा), व्रीहि, अन्न, तिल, अपूप, भृङ्गराज, फल, दही, दूध, पनस, नारिकेल, मोदक आदि यज्ञ-सम्बन्ध प्रयोज्य पदार्थों को यथास्थान स्थापित करे । विकंकतवृक्ष की लकड़ी से बनी स्रुवा तथा शमी, शमीपत्र, चरुस्थाली आदि भी स्थापित करे । प्रणीता-पात्र का स्पर्श होम-काल में नहीं करना चाहिये । स्नान-कुम्भ को यज्ञपर्यन्त स्थिर रखना चाहिये । प्रादेशमात्र के दो पवित्रक बनाकर प्रोक्षणी-पात्र में स्थापित करे । प्रणीता-पात्र के जल से प्रोक्षणी-पात्र में तीन बार जल डाले । प्रोक्षणी-पात्र को बायें हाथ में रखकर मध्यमा तथा अङ्गुष्ठ से पवित्रक ग्रहण कर ‘पवित्रं ते० ‘ (ऋ० ९ । ८३ । १) इस मन्त्र से तीन बार जल छिड़के, स्थापित पदार्थों का प्रोक्षण करे और प्रोक्षणी-पात्र को प्रणीता-पात्र के दक्षिण-भाग में यथास्थान रख दे । प्रादेशमात्र के अन्तर में आज्यस्थाली रखें । घी को अग्नि में तपाये, घी में से अपद्रव्यों का निरसन करे । इसके बाद पर्यग्निकरण करे । एक जलते हुए आग के अंगारे को लेकर आज्यस्थाली और चरुस्थली के ऊपर भ्रमण कराये । इस समय ‘कुलायिनी० ‘ (यजु० १४ । २) इस मन्त्र का पाठ करे । अनन्तर स्रुवा को दायें हाथ में ग्रहण कर अग्नि पर तपाये । सम्मार्जन-कुशाओं से स्रुवा को मूल से अग्रभाग की ओर सम्मार्जित करे । इसके बाद प्रणीता के जल से तीन बार प्रोक्षण करे । पुनः स्रुवा को आग पर तपाये और प्रोक्षणी के उत्तर की ओर रख दे । आज्यपात्र को सामने रख ले । पवित्री से घी का तीन बार उत्प्लवन कर ले । पवित्री से ईशान से आकर दक्षिणावर्त होते हुए ईशानपर्यन्त पर्युक्षण करे । अनन्तर अग्निदेव का इस प्रकार ध्यान करे —‘अग्नि देवता का रक्त वर्ण है, उनके तीन मुख हैं, वे अपने बायें हाथ में कमण्डलु तथा दाहिने हाथ में स्रुवा ग्रहण किये हुए हैं ।’ ध्यान के अनन्तर स्रुवा लेकर हवन करे ।

इस प्रकार स्वगृह्योक्त विधि के द्वारा ब्रह्मा तथा ऋत्विजों का वरण करना चाहिये । कुशकण्डिका-कर्म करके अग्नि का पूजन करे । आधार, आज्यभाग, महाव्याहृति, प्रायश्चित्त, प्राजापत्य तथा स्विष्टकृत् हवन करे । प्रजापति और इन्द्र के निमित्त दी गयी आहुतियाँ आधारसंज्ञक हैं । अग्नि और सोम के निमित्त दी जानेवाली आहुतियाँ आज्यभाग कहलाती हैं । ‘भूर्भुवः स्वः ‘ — ये तीन महाव्याहृतियां हैं । ‘अयाश्चाग्ने० ‘ इत्यादि पाँच मन्त्र प्रायश्चित संज्ञक हैं । एक प्राजापत्य आहुति तथा एक स्विष्टकृत् आहुति — इस प्रकार होम में चौदह आहुतियाँ नित्य-संज्ञक हैं । इस प्रकार चतुर्दश आहुत्यात्मक हवन कर कर्म-निमितक देवता को उद्देश्य का प्रधान हवन करना चाहिये । अग्नि की सात जिह्वाएँ कही गयी हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं— (१) हिरण्या, (२) कनका, (३) रक्ता, (४) आरक्ता, (५) सुप्रभा, (६) बहुरूपा तथा (७) सती । इन जिह्वा-देवियों के ध्यान करने से सम्पूर्ण फल की प्राप्ति होती है ।
(अध्याय १४–१६)

See Also :-

1.  भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१६
2. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १९ से २१
3. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय १ से २
4. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय ३ से ५

5. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय ६
6. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय ७ से ८
7. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय ९
8. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय १० से १३

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