भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय १७ से १८
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(मध्यमपर्व — द्वितीय भाग)
अध्याय – १७ से १८
अधिवासन-कर्म एवं यज्ञ-कर्म में उपयोज्य उत्तम ब्राह्मण तथा धर्मदेवता का स्वरूप

सूतजी कहते हैं — ब्राह्मणों ! देव-प्रतिष्ठा के पहले दिन देवताओं का अधिवासन करना चाहिये और विधि के अनुसार अधिवासन के पदार्थ-धान्य आदि की प्रतिष्ठा कर यूप आदि को भी स्थापित कर लेना चाहिये । कलश के ऊपर गणेशजी की स्थापना कर दिक्पाल और ग्रहों का पूजन करना चाहिये । तड़ाग तथा उद्यान की प्रतिष्ठा में प्रधानरूप से ब्रह्मा की, शान्ति-याग में तथा प्रपायाग में वरुण की, शैव-प्रतिष्ठा में शिव की और सोम, सूर्य तथा विष्णु एवं अन्य देवताओं का भी पाद्य-अर्घ्य आदि से अर्चन करना चाहिये । om, ॐ‘द्रुपदादिव० ‘ (यजु० २० । २०) इस मन्त्र से पहले प्रतिमा को स्नान कराये । स्नान के अनन्तर मन्त्र द्वारा गन्ध, फूल, फल, दूर्वा, सिन्दूर, चन्दन, सुगन्धित तैल, पुष्प, धूप, दीप, अक्षत, वस्त्र आदि उपचारों से पूजन करे । मण्डप के अन्दर प्रधान देवता का आवाहन करे और उसी में अधिवासन करे । सुरक्षाकर्मियों द्वारा उस स्थान की सुरक्षा करवाये । तदनन्तर आचार्य, यजमान और ऋत्विक् मधुर पदार्थों का भोजन करें । बिना अधिवासन-कर्म सम्पन्न किये देवप्रतिष्ठा का कोई फल नहीं होता । नित्य, नैमित्तिक अथवा काम्य कर्मों में विधि के अनुसार कुण्ड-मण्डप की रचनाकर हवन-कार्य करना चाहिये ।ब्राह्मणो ! यज्ञकार्य में अनुष्ठान के प्रमाण से आठ होता, आठ द्वारपाल और आठ याजक ब्राह्मण होने चाहिये । ये सभी ब्राह्मण शुद्ध, पवित्र तथा उत्तम लक्षणों से सम्पन्न वेदमन्त्रों में पारङ्गत होने चाहिये । एक जप करनेवाले जापक का भी वरण करना चाहिये । ब्राह्मणों की गन्ध, माल्य, वस्त्र तथा दक्षिणा आदि के द्वारा विधि के अनुसार पूजा करनी चाहिये । उत्तम सर्व-लक्षण-सम्पन्न तथा विद्वान् ब्राह्मण न मिलने पर किये गये यज्ञ का उत्तम फल प्राप्त नहीं होता । ब्राह्मण वरण के समय गोत्र और नाम का निर्देश करे । तुलापुरुष के दान में, स्वर्ण-पर्वत के दान में, वृषोत्सर्ग एवं कन्यादान में गोत्र के साथ प्रवर का भी उच्चारण करना चाहिये । मृत भार्यावाला, कृपण, शूद्र के घर निवास करनेवाला, बौना, वृषलीपति वृषलीपति : पुं० [सं० ष० त०] वह पुरुष जिसने ऐसी कन्या से विवाह किया हो जो पहले से ही राजवस्ला हो चुकी हो।, बन्धुद्वेषी, गुरुद्वेषी, स्त्रीद्वेषी, हीनाङ्ग, अधिकाङ्ग, भग्नदन्त, दाम्भिक, प्रतिग्राही, कुनखी, व्यभिचारी, कुष्ठी, निद्रालु, व्यसन, अदीक्षित, महाव्रणी, अपुत्र तथा केवल अपना ही भरण-पोषण करनेवाला ये सब यज्ञ के पात्र नहीं हैं । ब्राह्मणों के वरण एवं पूजन के मन्त्रों के भाव इस प्रकार है — ‘आचार्यदेव ! आप ब्रह्म की मूर्ति हैं । इस संसार से मेरी रक्षा करें । गुरो ! आपके प्रसाद से ही यह यज्ञ करने का सुअवसर मुझे प्राप्त हुआ है । चिरकाल तक मेरी कीर्ति बन रहे । आप मुझ पर प्रसन्न होवे, जिससे में यह कार्य सिद्ध कर सकूँ । आप सब भूतों के आदि हैं, संसाररूपी समुद्र से पार करानेवाले हैं । ज्ञानरूपी अमृत के आप आचार्य हैं । आप यजुर्वेदस्वरूप हैं, आपको नमस्कार हैं । ऋत्विग्गणो ! आप षडङ्ग वेदों के ज्ञाता हैं, आप हमारे लिये मोक्षप्रद हों ।’ मण्डल में प्रवेश करके उन ब्राह्मणों को अपने-अपने स्थानों पर क्रमशः आदर से बैठाये । वेदों के पश्चिम भाग में आचार्य को बैठाये, कुण्ड के अग्र-भाग में ब्रह्मा को बैठाये । होता, द्वारपाल आदि को भी यथास्थान आसन दे । यजमान उन आचार्य आदि को सम्बोधित कर प्रार्थना करे कि आप सब नारायणस्वरूप हैं । मेरे यज्ञ को सफल बनावें । यजुर्वेद के तत्त्वार्थ को जाननेवाले ब्रह्मरूप आचार्य ! आपको प्रणाम है । आप सम्पूर्ण यज्ञकर्म के साक्षीभूत हैं । ऋग्वेदार्थ को जाननेवाले इन्द्ररूप ब्रह्मन् ! आपको नमस्कार है । इस यज्ञकर्म की सिद्धि के लिये ज्ञानरूपो मङ्गलमूर्ति भगवान् शिव को नमस्कार है । आप सभी दिशाओं-विदिशाओं से इस यज्ञ की रक्षा करें । दिक्पालरूपी ब्राह्मणों को नमस्कार है । व्रत, देवार्चन तथा यागादि कर्म संकल्पूर्वक करने चाहिये । काम संकल्पमूलक और यज्ञ संकल्पसम्भूत हैं । संकल्प के बिना जो धर्माचरण करता है, यह कोई फल नहीं प्राप्त कर सकता । गङ्गा, सूर्य, चन्द्र, द्यौ, भूमि, रात्रि, दिन, सूर्य, सोम, यम, काल, पञ्च महाभूत — ये सब शुभाशुभकर्मों के साक्षी हैं ।
गङ्गा चादित्यचन्द्रौ च द्यौर्भूमी रात्रिवासरौ ॥
सूर्यः सोमो यमः कालो महाभूतानि पञ्च च ।
एते शुभाशुभस्येह कर्मणो नव साक्षिण ॥ (मध्यमपर्व २ । १८ । ४३-४४)

अतएव विचारवान् मनुष्य को अशुभ कर्मों से विरत हो धर्म का आचरण करना चाहिये । धर्मदेव शुभ शरीरवाले एवं श्वेतवस्त्र धारण करते हैं । वृषस्वरूप ये धर्मदेव अपने दोनों हाथों में वरद और अभय-मुद्रा धारण किये हैं । ये सभी प्राणियों को सुख देते हैं और इनके लिये एकमात्र मोक्ष के कारण हैं । इस प्रकार के स्वरूपवाले भगवान् धर्मदेव सत्पुरुषों के लिये कल्याणकारी हों तथा सदा सबकी रक्षा करें ।
धर्मः शुभ्रवपुः सिताम्बधरः कार्योर्ध्वदेशे वृषो हस्ताभ्यामभयं वरं च सततं रूपं परं यो दधत् ।
सर्वप्राणिसुखावहः कृतधियां मोक्षैकहेतुः सदा सोऽयं पातु जगन्ति चैव सततं भूयात् सतां भूतये ॥ (मध्यमपर्व २ । १८ । ४६)

(अध्याय १७-१८)

See Also :-

1.  भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१६
2. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १९ से २१
3. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय १ से २
4. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय ३ से ५

5. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय ६
6. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय ७ से ८
7. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय ९
8. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय १० से १३
9. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय १४ से १६

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