December 21, 2018 | Leave a comment भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय ४ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (मध्यमपर्व — प्रथम भाग) अध्याय ४ भूगोल एवं ज्योतिश्चक्र का वर्णन श्रीसूतजी बोले — मुनियों ! अब मैं भूर्लोक का वर्णन करता हूँ । भूर्लोक में जम्बू, प्लक्ष, शाल्मलि, कुश, क्रौञ्च, शाक और पुष्कर नाम के सात महाद्वीप हैं, जो सात समुद्रों से आवृत हैं । एक द्वीप से दूसरे द्वीप क्रम-क्रम से ठीक दूने-दूने आकार एवं विस्तारवाले हैं और एक सागर से दूसरे सागर भी दूने आकार के हैं । क्षीरोद, इक्षुरसोद, क्षारोद, घृतोद, दध्योद, क्षीरसलिल तथा जलोद — ये सात महासागर हैं ।यह पृथ्वी पचास करोड़ योजन विस्तृत, समुद्र से चारों ओर से घिरी हुई तथा सात द्वीपों से समन्वित हैं । जम्बूद्वीप सभी द्वीपों के मध्य में सुशोभित हो रहा है । उसके मध्य में सोने के कान्तिवाला महामेरु पर्वत है । इसकी ऊँचाई चौरासी हजार योजन है । यह महामेरु पर्वत नीचे की ओर सोलह हजार योजन पृथ्वी में प्रविष्ट है और ऊपरी भाग में इसका विस्तार बत्तीस हजार योजन है । नीचे (तलहटी)— में इसका विस्तार सोलह हजार योजन है । इस प्रकार यह पर्वत पृथ्वीरूप कमल की कर्णिका (कोष)- के समान है । इस मेरु पर्वत के दक्षिण में हिमवान्, हिमकूट और निषध नाम के पर्वत हैं । उत्तर में नील, श्वेत तथा शृंगी नाम के वर्ष-पर्वत हैं । मध्य में लक्षयोजन प्रमाणवाले दो (निषध और नील) पर्वत हैं । उनसे दूसरे-दूसरे दस-दस हजार योजन कम हैं । (अर्थात् हेमकूट और श्वेत नब्बे हजार योजन तथा हिमवान् और शृंगी अस्सी-अस्सी हजार योजनतक फैले हुए हैं ।) वे सभी दो-दो हजार योजन लम्बे और इतने ही चौड़े हैं ।द्विजो ! मेरु के दक्षिण भाग में भारतवर्ष हैं, अनन्तर किंपुरुषवर्ष और हरिवर्ष ये मेरु पर्वत के दक्षिण में हैं । उत्तर में चम्पक, अश्व, हिरण्मय तथा उत्तरकुरुवर्ष हैं । ये सब भारतवर्ष के समान ही हैं । इनमें से प्रत्येक का विस्तार नौ सहस्र योजन है, इनके मध्य में इलावृत्तवर्ष हैं और उसके मध्य में उन्नत मेरु स्थित है । मेरु के चारों ओर नौ सहस्र योजन विस्तृत इलावृत्तवर्ष है । महाभाग ! इसके चारों ओर चार पर्वत हैं । ये चारों पर्वत मेरु की कीलें हैं, जो दस सहस्र योजन परिमाण में ऊँची हैं । इनमें से पूर्व में मन्दर, दक्षिण में गन्धमादन, पश्चिम में विपुल और उत्तर में सुपार्श्व है । इन पर कदम्ब, जम्बू, पीपल और वट-वृक्ष हैं । महर्षिगण ! जम्बूद्वीप नाम होने का कारण महाजम्बू वृक्ष भी यहाँ है, उसके फल महान् गजराज के समान बड़े होते हैं । जब वे पर्वत पर गिरते हैं तो फटकर सब ओर फैल जाते हैं । उसी के रस से जम्बू नाम की प्रसिद्ध नदी वहाँ बहती हैं, जिसका जल वहाँ के रहनेवाले पीते हैं । उस नदी के जल का पान करने से वहाँ के निवासियों को पसीना, दुर्गन्ध, बुढापा और इन्द्रिय-क्षय नहीं होता । वहाँ के निवासी शुद्ध हृदयवाले होते हैं । उस नदी के किनारे की मिट्टी उस रस से मिलकर मन्द-मन्द वायु के द्वारा सुखाये जानेपर ‘जाम्बूनद’ नामक सुवर्ण बन जाती हैं, जो सिद्ध पुरुषों का भूषण है ।मेरु के पास (पूर्व में) भद्राश्ववर्ष और पश्चिम में केतुमालवर्ण है । इन दो वर्षों के मध्य में इलावृत्तवर्ष है । विप्रश्रेष्ठ ! मेरु के ऊपर ब्रह्मा का उत्तम स्थान है । उसके ऊपर इन्द्र का स्थान है और उसके ऊपर शंकर का स्थान हैं । उसके ऊपर वैष्णवलोक तथा उससे ऊपर दुर्गालोक है । इसके ऊपर सुवर्णमय, निराकार दिव्य ज्योतिर्मय स्थान है । उसके भी ऊपर भक्तों का स्थान है, वहाँ भगवान् सूर्य रहते हैं । ये परमेश्वर भगवान् सूर्य ज्योतिर्मय चक्र के मध्य में निश्चल रूप से स्थित हैं । ये मेरु के ऊपर राशिचक्र में भ्रमण करते हैं । भगवान् सूर्य का रथ-चक्र मेरु पर्वत की नाभि में रात-दिन वायु के द्वारा भ्रमण कराया जाता हुआ ध्रुव का आश्रय लेकर प्रतिष्ठित है । दिक्पाल आदि तथा ग्रह वहाँ दक्षिण से उत्तर मार्ग की ओर प्रतिमास चलते रहते हैं । ह्रास और वृद्धि के क्रम से रवि के द्वारा जब चान्द्रमास लङ्घित होता है, तब उसे मलमास कहा जाता है ।(रविणा लङ्घितो मासश्चान्द्रः ख्यातो मलिम्लुचः । (रविणा लङ्घितो मासश्चान्द्रः ख्यातो मलिम्लुचः । (मध्यमपर्व १।४।२७) प्रकारान्तरसे यह श्लोक ज्योतिष के ‘संक्रान्तिरहितो मासो मलमास उदाहृतः।’ इसी वचन के भाव का द्योतक है।)सूर्य, सोम, बुध, चन्द्र और शुक्र शीघ्रगामी ग्रह हैं । दक्षिणायन मार्ग से सूर्य गतिमान् होनेपर सभी ग्रहों के नीचे चलते हैं । विस्तीर्ण मण्डल कर उसके ऊपर चन्द्रमा गतिशील रहता है । सम्पूर्ण नक्षत्रमण्डल सोम से ऊपर चलता है । नक्षत्रों के ऊपर बुध और बुध से ऊपर शुक्र, शुक्र से ऊपर मंगल और उससे ऊपर बृहस्पति तथा बृहस्पति से ऊपर शनि, शनि के ऊपर सप्तर्षिमण्डल और सप्तर्षिमण्डल के ऊपर ध्रुव स्थित है । (अध्याय ४) See Also :- 1. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१६ 2. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १ 3. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय २ से ३ Related