December 21, 2018 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय ५ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (मध्यमपर्व — प्रथम भाग) अध्याय ५ ब्राह्मणों की महिमा तथा छब्बीस दोषों का वर्णन श्रीसूतजी बोले — हे द्विजोत्तम ! तीनों वर्णों में ब्राह्मण जन्म से प्रभु हैं । हव्य और कव्य सभी की रक्षा के लिये तपस्या के द्वारा ब्राह्मण की प्रथम सृष्टि की गयी है । देवगण इन्हीं के मुख से हव्य और पितृगण कव्य स्वीकार करते हैं । अतः इनसे श्रेष्ठ कौन हो सकता है । ब्राह्मण जन्म से ही श्रेष्ठ है और सभी से पूजनीय है । जिसके गर्भाधान आदि अड़तालीस संस्कार शास्त्र-विधि से सम्पन्न होते हैं, वही सच्चा ब्राह्मण है । द्विज की पूजा कर देवगण स्वर्ग-फल भोगने का लाभ प्राप्त करते हैं । अन्य मनुष्य भी ब्राह्मण की पूजाकर देवत्व को प्राप्त करते हैं । जिसपर ब्राह्मण प्रसन्न होते हैं, उसपर भगवान् विष्णु प्रसन्न हो जाते हैं । वेद भी ब्राह्मणों के मुख में संनिहित रहते हैं । सभी विषयों का ज्ञान होने के कारण ब्राह्मण ही देवताओं की पूजा, पितृकार्य, यज्ञ, विवाह, वह्निकार्य, शान्तिकर्म, स्वस्त्ययन आदि के सम्पादन में प्रशस्त है । ब्राह्मण के बिना देवकार्य, पितृकार्य तथा यज्ञ-कर्मों में दान, होम और बलि ये सभी निष्फल होते हैं । ब्राह्मण को देखकर श्रद्धापूर्वक अभिवादन करना चाहिये, उसके द्वारा कहे गये ‘दिर्घायुर्भव’ शब्द से मनुष्य चिरजीवी होता है । द्विजश्रेष्ठ ! ब्राह्मण की पूजा से आयु, कीर्ति, विद्या और धन की वृद्धि होती है । जहाँ जल से विप्रों का पाद-प्रक्षालन नहीं किया जाता, वेद-शास्त्रों का उच्चारण नहीं होता और जहाँ स्वाहा, स्वधा और स्वस्ति की ध्वनि नहीं होती ऐसा गृह श्मशान के समान है । न विप्रपादोदककर्दमानि न वेदशास्त्रप्रतिगर्जितानि । स्वाहास्वधास्वस्तिविवर्जितानि श्मशानतुल्यानि गृहाणि तानि ॥ (मध्यमपर्व १। ५ । २२) विद्वानों ने नरकगामी मनुष्यों के छब्बीस दोष बतलाये हैं, जिन्हें त्यागकर शुद्धतापूर्वक निवास करना चाहिये — (१) अधम, (२) विषम, (३) पशु, (४) पिशुन, (५) कृपण, (६) पापिष्ठ, (७) नष्ट, (८) रुष्ट, (९) दुष्ट, (१०) पुष्ट, (११) ह्रष्ट, (१२) काण, (१३) अन्ध, (१४) खण्ड, (१५) चण्ड, (१६) कुष्ठ, (१७) दत्तापहारक, (१८) वक्ता, (१९) कदर्य, (२०) दण्ड, (२१) नीच, (२२) खल, (२३) वाचाल, (२४) चपल, (२५) मलीमस तथा (२६) स्तेयी । उपर्युक्त छब्बीस दोषों के भी अनेक भेद-प्रभेद बतलाये गये हैं । विप्रेन्द्र ! इन छब्बीस दोषों का विवरण संक्षेप में इस प्रकार हैं — (१) गुरु तथा देवता के सम्मुख जूता और छाता धारण कर जानेवाले, गुरुके सम्मुख उच्च आसन पर बैठनेवाले, यान पर चढ़कर तीर्थ-यात्रा करनेवाले तथा तीर्थ में ग्राम्य धर्म का आचरण करनेवाले — ये सभी अधम-संज्ञक दोषयुक्त व्यक्ति कहे गये हैं । (२) प्रकट में प्रिय और मधुर वाणी बोलनेवाले पर हृदय में हलाहल विष धारण करनेवाले, कहते कुछ और हैं तथा आचरण कुछ और ही करते हैं — ये दोनों विषम-संज्ञक दोषयुक्त व्यक्ति कहे जाते हैं । (३) मोक्ष की चिन्ता छोड़कर सांसारिक चिन्ताओं में श्रम करनेवाले, हरि की सेवा से रहित, प्रयाग में रहते हुए भी अन्यत्र स्नान करनेवाले, प्रत्यक्ष देव को छोड़कर अदृष्ट की सेवा करनेवाले तथा शास्त्रों के सार-तत्त्व को न जाननेवाले — ये सभी पशु-संज्ञक दोषयुक्त व्यक्ति हैं । (४) बल से अथवा छल-छद्म से या मिथ्या प्रेम का प्रदर्शन कर ठगनेवाले व्यक्ति को पिशुन दोषयुक्त कहा गया है । (५) देव सम्बन्धी और पितृ-सम्बन्धी कर्मों में मधुर अन्न की व्यवस्था रहते हुए भी म्लान और तिक्त अन्न का भोजन करानेवाला दुर्बुद्धि मानव कृपण है, उसे न तो स्वर्ग मिलता है और न मोक्ष ही । जो अप्रसन्न मन से कुत्सित वस्तु का दान करता एवं क्रोध के साथ देवता आदि की पूजा करता हैं, वह सभी धर्मों से बहिष्कृत कृपण कहा जाता है । निर्दुष्ट होते हुए भी शुभ का परित्याग तथा शुभ शरीर का विक्रय करनेवाला कृपण कहलाता है । (६) माता-पिता और गुरु का त्याग करनेवाला, पवित्राचाररहित, पिता के सम्मुख निःसंकोच भोजन करनेवाला, जीवित पिता-माता का परित्याग करनेवाला, उनकी कभी भी सेवा न करनेवाला तथा होम-यज्ञादि का लोप करनेवाला पापिष्ठ कहलाता है । (७) साधु आचरण का परित्याग कर झूठी सेवा का प्रदर्शन करनेवाले, वेश्यागामी, देव-धन के द्वारा जीवन-यापन करनेवाले, भार्या के व्यभिचार द्वारा प्राप्त धन से जीवन-यापन करनेवाले या कन्या को बेचकर अथवा स्त्री के धन से जीवन-यापन करनेवाले — ये सब नष्ट-संज्ञक व्यक्ति हैं – ये स्वर्ग एवं मोक्ष के अधिकारी नहीं हैं । (८) जिसका मन सदा क्रुद्ध रहता है, अपनी हीनता देखकर जो क्रोध करता है, जिसकी भौंहें कुटिल हैं तथा जो क्रुद्ध और रुष्ट स्वभाववाला है — ऐसे ये पाँच प्रकार के व्यक्ति रुष्ट कहे गये हैं । (९) अकार्य में या निन्दित आचार में ही जीवन व्यतीत करनेवाला, धर्मकार्य में अस्थिर, निद्रालु, दुर्व्यसन में आसक्त, मद्यपायी, स्त्री-सेवी, सदैव दुष्टों के साथ वार्तालाप करनेवाला — ऐसे सात प्रकार के व्यक्ति दुष्ट कहे गये हैं । (१०) अकेले ही मधुर-मिष्टान्न भक्षण करनेवाले, वञ्चक, सज्जनों के निन्दक, शूकर के समान वृत्तिवाले — ये सब पुष्ट-संज्ञक व्यक्ति कहे जाते हैं । (११) जो निगम (वेद), आगम (तन्त्र) का अध्ययन नहीं करता है और न इन्हें सुनता ही है, वह पापात्मा हृष्ट कहा जाता है । (१२-१३) श्रुति और स्मृति ब्राह्मणों के ये दो नेत्र हैं । एक से रहित व्यक्ति काना और दोनों से हीन अन्धा कहा जाता हैं । श्रुति स्मृतिश्च विप्राणां नयने द्वे विनिर्मिते । एकेन विकलः काणो द्वाभ्यामन्धः प्रकीर्तितः ॥ ९मध्यमपर्व १ । ५ । ५७) (१४) अपने सहोदर से विवाद करनेवाला, माता-पिता के लिये अप्रिय वचन बोलनेवाला खण्ड कहा जाता है ।(१५) शास्त्र की निंदा करनेवाला, चुगलखोर, राजगामी, शूद्रसेवक, शूद्र की पत्नी से अनाचरण करनेवाला, शूद्र के घर पर पके हुए अन्न को एक बार भी खानेवाला या शूद्र के घर पर पाँच दिनों तक निवास करनेवाला व्यक्ति चण्ड दोषवाला कहा जाता है । (१६) आठ प्रकार के कुष्ठों से समन्वित, त्रिकुष्ठी, शास्त्र में निन्दित व्यक्तियों के साथ वार्तालाप करनेवाला अधम व्यक्ति कुष्ठ-दोषयुक्त कहा जाता है । (१७) कीट के समान भ्रमण करनेवाला, कुत्सित-दोष से युक्त व्यापार करनेवाला दत्तापहारक कहा गया है । (१८) कुपण्डित एवं अज्ञानी होते हुए भी धर्म का उपदेश देनेवाला वक्ता है । (१९) गुरुजनों की वृत्ति को हरण करने की चेष्टा करनेवाला तथा काशी-निवासी व्यक्ति यदि बहुत दिन काशी को छोडकर अन्यत्र निवास करता है, वह कदर्य (कंजूस) है । (२०) मिथ्या क्रोध का प्रदर्शन करनेवाला तथा राजा न होते हुए भी दण्ड विधान करनेवाला व्यक्ति दण्ड (उद्दण्ड) कहा जाता है । (२१) ब्राह्मण, राजा और देव-सम्बन्धी धन का हरण कर, उस धन से अन्य देवता या ब्राह्मणों को संतुष्ट करनेवाला या उस धन का भोजन या अन्न को देनेवाला व्यक्ति खर के समान नीच है, जो अक्षर-अभ्यास में तत्पर व्यक्ति केवल पढ़ता है, किन्तु समझता नहीं, व्याकरण-शास्त्रशून्य व्यक्ति पशु है, जो गुरु और देवता के आगे कहता कुछ है और करता कुछ और है, अनाचारी-दुराचारी है वह नीच कहा जाता है । (२२) गुणवान् एवं सज्जनों में जो दोष का अन्वेषण करता है वह व्यक्ति खल कहलाता है । (२३) भाग्यहीन व्यक्ति से परिहासयुक्त वचन बोलनेवाला तथा चाण्डालों के साथ निर्लज्ज होकर वार्तालाप करनेवाला वाचाल कहा जाता है । (२४) पक्षियों के पालने में तत्पर, बिल्ली के द्वारा आनीत भक्ष्य को बाँटने के बहाने बन्दर की भाँती स्वयं भक्षण करनेवाला, व्यर्थ में तृण का छेदक, मिट्टी के ढेले को व्यर्थ में भेदन करनेवाला, मांस भक्षण करनेवाला और अन्य की स्त्री में आसक्त रहनेवाला व्यक्ति चपल कहलाता है । (२५) तैल, उबटन आदि न लगानेवाला, गन्ध और चन्दन से शून्य, नित्यकर्म को न करनेवाला व्यक्ति मलिमस कहलाता है । (२६) अन्याय से अन्य के घर का धन ले लेनेवाला तथा अन्याय से धन कमानेवाला, शास्त्र-निषिद्ध धनों को ग्रहण करनेवाला, देव-पुस्तक, रत्न, मणि-मुक्ता, अश्व, गौ, भूमि तथा स्वर्ण का हरण करनेवाला स्तेयी (चोर) कहा जाता है । साथ ही देव-चिन्तन तथा परस्पर कल्याण-चिन्तन न करनेवाले, गुरु तथा माता-पिताका पोषण न करनेवाले और उनके प्रति पालनीय कर्तव्य का आचरण न करनेवाले एवं उपकारी व्यक्ति के साथ समुचित व्यवहार न करनेवाले — ये सभी स्तेयी हैं । इन सभी दोषों से युक्त व्यक्ति रक्तपूर्ण नरक में निवास करते हैं । इनका सम्यक् ज्ञान सम्पन्न हो जानेपर मनुष्य देवत्व को प्राप्त कर लेता है । (अध्याय ५) See Also :- 1. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१६ 2. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १ 3. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय २ से ३ 4. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय ४ Related