भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय ६
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(मध्यमपर्व — प्रथम भाग)
अध्याय ६
माता, पिता एवं गुरु की महिमा

श्रीसूतजी बोले — द्विजश्रेष्ठ ! चारों वर्णों के लिये पिता ही सबसे बड़ा अपना सहायक है । पिता के समान अन्य कोई अपना बन्धु नहीं है, ऐसा वेदों का कथन है । माता-पिता और गुरु — ये तीनों पथप्रदर्शक हैं, पर इनमें माता ही सर्वोपरि है । भाइयों में जो क्रमशः बड़े हैं, वे क्रम-क्रम से ही विशेष आदर के पात्र हैं । इन्हें द्वादशी, अमावस्या तथा संक्रान्ति के दिन यथारुचि मणियुक्त वस्त्र दक्षिणा के रूप में देना चाहिये, दक्षिणायन और उत्तरायण में, विषुव संक्रान्ति में तथा चन्द्र-सूर्य-ग्रहण के समय यथाशक्ति इन्हें भोजन कराना चाहिये । om, ॐअनन्तर इन मन्त्रों से इनकी चरण-वन्दना करनी चाहिये, क्योंकि विधिपूर्वक वन्दन करने से ही सभी तीर्थों का फल प्राप्त हो जाते है —

“स्वर्गापवर्गप्रदमेकमाद्यं ब्रह्मस्वरूपं पितरं नमामि ।
यतो जगत् पश्यति चारुरुपं तं तर्पयामः सलिलैस्तिलैर्युतैः ॥
पितरो जनयन्तिह पितरः पालयन्ति च ।
पितरो ब्रह्मरूपा हि तेभ्यो नित्यं नमो नमः ॥
यस्माद्वीजयते लोकस्तस्माद्धर्मः प्रवर्तते ।
नमस्तुभ्यं पितः साक्षाद्ब्रह्मरूप नमोऽस्तु ते ॥
या कुक्षिविवरे कृत्वा स्वयं रक्षति सर्वतः ।
नमामि जननीं देवीं परा प्रकृतिरूपिणिम् ॥
कृच्छ्रेण महता देव्या धारितोऽहं यथोदरे ।
त्वत्प्रसादाज्जगद्दृष्टं मातर्नित्यं नमोऽस्तु ते ॥
पृथिव्यां यानि तीर्थानि सागरादीनि सर्वशः ।
वसन्ति यत्र तां नौमि मातरं भूतिहेतवे ॥
गुरुदेवप्रसादेन लब्धा विद्या-यशस्करी ।
शिवरूप नमस्तस्मै संसारार्णवसेतवे ॥
वेदवेदाङ्गशास्त्राणां तत्त्वं यत्र प्रतिष्ठितम् ।
आधारः सर्वभूतानामप्रजन्मन् नमोऽस्तु ते ॥
ब्राह्मणों जगतां तीर्थं पावनं परमंयतः ।
भूदेव हर में पापं विष्णुरुपिन् नमोस्तु ते ॥” (मध्यमपर्व १ । ६ । ६-१४)

‘स्वर्ग और अपवर्ग-रूपी फल को प्रदान करनेवाले एक आद्य ब्रह्मस्वरूप पिता को मैं नमस्कार करता हूँ । जिनकी प्रसन्नता से संसार सुन्दर रूप में दिखायी देता है, उन पिता का मैं तिलयुक्त जलसे तर्पण करता हूँ । पिता ही जन्म देता है, पिता ही पालन करता है, पितृगण ब्रह्मस्वरुप है, उन्हें नित्य पुनः पुनः नमस्कार है । हे पितः ! आपके अनुग्रह से लोकधर्म प्रवर्तित होता है, आप साक्षात ब्रह्मरूप हैं, आपको नमस्कार है ।

जो अपने उदररूपी विवर में रखकर स्वयं उसकी सभी प्रकार से रक्षा करती है, उन परा प्रकृतिस्वरूपा जननीदेवी को नमस्कार है । मातः ! आपने बड़े कष्ट से मुझे अपने उदरप्रदेश में धारण किया, आपके अनुग्रह से मुझे यह संसार देखने को मिला, आपको बार-बार नमस्कार है । पृथ्वी पर जितने तीर्थ और सागर आदि हैं उन सबकी स्वरूप-भूता आपको अपनी कल्याण-प्राप्ति के लिये मैं नमस्कार करता हूँ ।

जिन गुरुदेव के प्रसाद से मैंने यशस्करी विद्या प्राप्त की है, उन भवसागर के सेतु-स्वरुप शिवरूप गुरुदेव को मेरा नमस्कार है ।

अग्रजन्मन् ! वेद और वेदाङ्ग-शास्त्रों के तत्त्व आपमें प्रतिष्ठित हैं । आप सभी प्राणियों के आधार हैं, आपको मेरा नमस्कार है ।

ब्राह्मण सम्पूर्ण संसार के चलते-फिरते परम पावन तीर्थस्वरूप हैं । अतः हे विष्णुरुपी भूदेव ! आप मेरा पाप नष्ट करें, आपको मेरा नमस्कार है ।’द्विजो ! जैसे पिता श्रेष्ठ है, उसी प्रकार पिता के बड़े-छोटे भाई और अपने बड़े भाई भी पिता के समान ही मान्य एवं पूज्य हैं । आचार्य ब्रह्मा की, पिता प्रजापति की, माता पृथ्वी की और भाई अपनी ही मूर्ति है । पिता मेरुस्वरूप एवं वसिष्ठ स्वरुप सनातन धर्ममूर्ति हैं । ये ही प्रत्यक्ष देवता हैं, अतः इनकी आज्ञा का पालन करना चाहिये । इसी प्रकार पितामह एवं पितामही (दादा-दादी) के भी पूजन-वन्दन, रक्षण, पालन और सेवन की अत्यन्त महिमा है । इनकी सेवा के पुण्यों की तुलना में कोई नहीं हैं, क्योंकि ये माता-पिता के भी परम पूज्य हैं ।
(अध्याय ६)

See Also :-

1.  भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१६
2.
भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १
3. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय २ से ३
4.
भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय ४
5.
भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय ५

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