मधुसूक्त [ मधुविद्या ]

अथर्ववेद के नवमकाण्ड में मधुविद्या विषयक एक मनोहर सूक्त प्राप्त है। इस सूक्त के ऋषि अथर्वा तथा देवता मधु एवं अश्विनीकुमार हैं। इस सूक्त में विशेषरूप से गो महिमा वर्णित है। गोदुग्धरूपी अमृतरस के स्रोत गौ – को बहुत महत्त्वपूर्ण तथा देवताओं की दिव्य शक्तियों से उत्पन्न बताया गया है। गोदुग्ध को मनुष्यों के लिये सोमरस के तुल्य मूल्यवान् बताकर उससे तेजोवृद्धि की प्रेरणा दी गयी है। इस सूक्त में गो- के विश्वरूप अर्थात् समस्त प्रकृति में चतुर्दिक् व्याप्त मधुरता को अपने अन्दर आयत्त करने की उदात्त प्रार्थना है। इसका नियमित पाठ करने से व्यक्तित्व में विशेष मधुरता का संचार होकर सद्गुणों तथा सौभाग्य में वृद्धि होती है।

दिवस्पृथिव्या अन्तरिक्षात् समुद्रादग्नेर्वातान्मधुकशा हि जज्ञे ।
तां चायित्वामृतं वसानां हृद्भिः प्रजाः प्रति नन्दन्ति सर्वाः ॥ १ ॥
महत् पयो विश्वरूपमस्याः समुद्रस्य त्वोत रेत आहुः ।
यत एति मधुकशा रराणा तत् प्राणस्तदमृतं निविष्टम् ॥ २ ॥
पश्यन्त्यस्याश्चरितं पृथिव्या पृथङ्नरो बहुधा मीमांसामानाः ।
अग्नेर्वातान्मधुकशा हि जज्ञे मरुतामुग्रा नप्तिः ॥ ३ ॥

द्युलोक, अन्तरिक्ष और पृथ्वी, समुद्र के जल, अग्नि और वायु से मधुकशा ( मधुर दूध देने वाली गोमाता ) उत्पन्न होती है। अमृत का धारण करने वाली उस मधुकशा को सुपूजित करके सब प्रजाजन हृदय से आनन्दित होते हैं ॥ १ ॥
इसका दूध ही महान् विश्वरूप है और इसे ही समुद्र का तेज कहते हैं। जहाँ से यह मधुकशा शब्द करती हुई जाती है, वह प्राण है, वह सर्वत्र प्रविष्ट अमृत है ॥ २ ॥
बहुत प्रकार से पृथक्-पृथक् विचार करने वाले लोग इस पृथ्वी पर इसका चरित्र अवलोकन करते हैं। यह मधुकशा अग्नि और वायु से उत्पन्न हुई है। यह मरुतों की उग्र पुत्री है ॥ ३ ॥

मातादित्यानां दुहिता वसूनां प्राणः प्रजानाममृतस्य नाभिः ।
हिरण्यवर्णा मधुकशा घृताची महान् भर्गश्चरति मर्त्येषु ॥ ४ ॥
मधो: कशामजनयन्त देवास्तस्या गर्भो अभवद् विश्वरूपः ।
तं जातं तरुणं पिपर्ति माता स जातो
विश्वा भुवना वि चष्टे ॥ ५ ॥
कस्तं प्र वेद क उ तं चिकेत यो
अस्या हृदः कलशः सोमधानो अक्षितः ।
ब्रह्मा सुमेधाः सो अस्मिन् मदेत ॥ ६ ॥
स तौ प्र वेद वेद स उ तौ चिकेत
यावस्याः स्तनौ सहस्रधारावक्षितौ ।
ऊर्जं दुहाते अनपस्फुरन्तौ ॥ ७ ॥

यह आदित्यों की माता, वसुओं की दुहिता, प्रजाओं का प्राण और यह अमृत का केन्द्र है, सुवर्ण के समान वर्ण वाली यह मधुकशा घृत का सिंचन करने वाली है, यह मयों में महान् तेज का संचार करती है ॥ ४ ॥
इस मधु की कशा (गौ) – को देवों ने बनाया हैं, उसका यह विश्वरूप गर्भ हुआ है। उस जन्मे हुए तरुण को वही माता पालती है, वह होते ही सब भुवनों का निरीक्षण करता है ॥ ५ ॥
कौन उसे जानता है, कौन उसका विचार करता है ? इसके हृदय के पास जो सोमरस से भरपूर पूर्ण कलश विद्यमान हैं, इसमें वह उत्तम मेधावाला ब्रह्मा आनन्द करेगा ॥ ६ ॥
वह उनको जानता है, वह उनका विचार करता है, जो इसके सहस्रधारायुक्त अक्षय स्तन हैं, वे अविचलित होते हुए बलवान् रस का दोहन करते हैं ॥ ७ ॥

हिङ्करिक्रती बृहती वयोधा उच्चैर्घोषाभ्येति या व्रतम् ।
त्रीन् घर्मानभि वावशाना मिमाति मायुं पयते पयोभिः ॥ ८ ॥
यामापीनामुपसीदन्त्यापः शाक्वरा वृषभा ये स्वराजः ।
ते वर्षन्ति ते वर्षयन्ति तद्विदे काममूर्जमापः ॥ ९ ॥
स्तनयित्नुस्ते वाक् प्रजापते वृषा शुष्मं क्षिपसि भूम्यामधि ।
अग्नेर्वातान्मधुकशा हि जज्ञे मरुतामुग्रा नप्तिः ॥ १० ॥
यथा सोमः प्रातः सवने अश्विनोर्भवति प्रियः ।
एवा मे अश्विना वर्च आत्मनि ध्रियताम् ॥ ११ ॥
यथा सोमो द्वितीये सवन इन्द्राग्न्योर्भवति प्रियः ।
एवा मे इन्द्राग्नी वर्च आत्मनि ध्रियताम् ॥ १२ ॥

जो हिंकार करने वाली, अन्न देने वाली, उच्च स्वर से पुकारने वाली व्रत के स्थान को प्राप्त होती है। तीनों यज्ञों को वश में रखने वाली सूर्य का मापन करती है और दूध की धाराओं से दूध देती है ॥ ८ ॥
जो वर्षा से भरने वाले बैल तेजस्वी शक्तिशाली जल जिस पान करने वाली के पास पहुँचते हैं। तत्त्वज्ञानी को यथेच्छ बल देने वाले अन्न की वे वृष्टि करते हैं, वे वृष्टि कराते हैं ॥ ९ ॥
हे प्रजापालक ! तेरी वाणी गर्जना करने वाला मेघ है, तू बलवान् होकर भूमि पर बल को फेंकता है। अग्नि और वायु से मधुकशा उत्पन्न हुई है, यह मरुतों की उग्र पुत्री है ॥ १० ॥
जैसा सोमरस प्रातः सवन यज्ञ में अश्विनी देवों को प्रिय होता है, हे अश्विदेवो ! इस प्रकार मेरे आत्मा में तेज धारण करें ॥ ११ ॥
जैसा सोमरस द्वितीयसवन – माध्यन्दिनसवन-यज्ञ में इन्द्र और अग्नि को प्रिय होता है, हे इन्द्र और अग्नि ! इस प्रकार मेरे आत्मा में तेज धारण करें ॥ १२ ॥

यथा सोमस्तृतीये सवन ऋभूणां भवति प्रियः ।
एवा मे ऋभवो वर्च आत्मनि ध्रियताम् ॥ १३ ॥
मधु जनिषीय मधु वंशिषीय ।
पयस्वानग्न आगमं तं मा सं सृज वर्चसा ॥ १४ ॥
सं माग्ने वर्चसा सृज सं प्रजया समायुषा ।
विद्युर्मे अस्य देवा इन्द्रो विद्यात् सह ऋषिभिः ॥ १५ ॥
यथा मधु मधुकृतः सम्भरन्ति सम्भरन्ति मधावधि ।
एवा मे अश्विना वर्च आत्मनि ध्रियताम् ॥ १६ ॥
यथा मक्षा इदं मधु न्यञ्जन्ति मधावधि ।
एवा मे अश्विना वर्चस्तेजो बलमोजश्च ध्रियताम् ॥ १७ ॥

जैसा सोम तृतीयसवन-सायंसवन-यज्ञ में ऋभुओं को प्रिय होता है, हे ऋभुदेवो! इस प्रकार मेरे आत्मा में तेज धारण करें ॥ १३ ॥
मिठास उत्पन्न करूँगा, मिठास प्राप्त करूँ। हे अग्ने ! दूध लेकर मैं आ गया हूँ, उस मुझको तेज से संयुक्त करें ॥ १४ ॥
हे अग्ने ! आप मुझे तेज से, प्रजा से और आयु से संयुक्त करें। मुझे सब देव जानें, ऋषियों के साथ इन्द्र भी मुझे जानें ॥ १५ ॥
जैसे मधुमक्खियाँ अपने मधु में मधु संचित करती हैं, हे अश्विदेवो ! इस प्रकार मेरा ज्ञान, तेज, बल और वीर्य संचित हो, बढ़ता जाय ॥ १६ ॥
जैसी मधुमक्षिकाएँ इस मधु को अपने पूर्वसंचित मधु में संगृहीत करती हैं, इस प्रकार हे अश्विदेवो! मेरा ज्ञान, तेज, बल और वीर्य संचित हो, बढ़े ॥ १७ ॥

यद् गिरिषु पर्वतेषु गोष्वश्वेषु यन्मधु ।
सुरायां सिच्यमानायां यत् तत्र मधु तन्मयि ॥ १८ ॥
अश्विना सारघेण मा मधुनाङ्क्तं शुभस्पती ।
यथा वर्चस्वतीं वाचमावदानि जनाँ अनु ॥ १९ ॥
स्तनयित्नुस्ते वाक् प्रजापते वृषा
शुष्मं क्षिपसि भूम्यां दिवि ।
तां पशव उप जीवन्ति सर्वे तेनो सेषमूर्जं पिपर्ति ॥ २० ॥
पृथिवी दण्डोन्तरिक्षं गर्भो द्यौः कशा
विद्युत् प्रकशो हिरण्ययो बिन्दुः ॥ २१ ॥

जैसा पहाड़ों और पर्वतों पर तथा गौओं और अश्वों में जो मधुरता है, सिंचित होने वाले वृष्टिजल में उसमें जो मधु है; वह मुझमें हो ॥ १८ ॥
हे शुभ के पालक अश्विदेवो! मधुमक्खियों के मधु से मुझे युक्त करें; जिससे मैं लोगों के प्रति तेजस्वी भाषण बोलूँ ॥ १९ ॥
हे प्रजापालक ! तू बलवान् है और तेरी वाणी मेघगर्जना है, तू भूमि पर और द्युलोक में बल की वर्षा करता है, उसपर सब पशुओं की जीविका होती है और उससे वह अन्न और बलवर्धक रस की पूर्णता करती है ॥ २० ॥
पृथिवी दण्ड है, अन्तरिक्ष मध्यभाग है, द्युलोक तन्तु हैं, बिजली उसके धागे हैं और सुवर्णमय बिन्दु हैं ॥ २१ ॥

यो वै कशायाः सप्त मधूनि वेद मधुमान् भवति ।
ब्राह्मणश्च राजा च धेनुश्चानड्वांश्च
व्रीहिश्च यवश्च मधु सप्तमम् ॥ २२ ॥
मधुमान भवति मधुमदस्याहार्यं भवति ।
मधुमतो लोकान् जयति य एवं वेद ॥ २३ ॥
यद् वीध्रे स्तनयति प्रजापतिरेव तत् प्रजाभ्यः प्रादुर्भवति ।
तस्मात् प्राचीनोपवीतस्तिष्ठे प्रजापतेऽनु मा बुध्यस्वेति ।
अन्वेनं प्रजा अनु प्रजापतिर्बुध्यते य एवं वेद ॥ २४ ॥

[ अथर्ववेद ]

जो इस (मधु) कशा के सात मधु जानता है, वह मधुवाला होता है । ब्राह्मण और राजा, गाय और बैल, चावल और जौ तथा सातवाँ मधु है ॥ २२ ॥
जो यह जानता है, वह मधुवाला होता है, उसका सब संग्रह मधुयुक्त होता है और मीठे लोकों को प्राप्त करता है ॥ २३ ॥
जो आकाश में गर्जना होती है, प्रजापति ही वह प्रजाओं के लिये मानो प्रकट होता है। इसलिये दायें भाग में वस्त्र लेकर खड़ा होता हूँ, हे प्रजापालक ईश्वर ! मेरा स्मरण रखो। जो यह जानता है, इसके अनुकूल प्रजाएँ होती हैं तथा इसको प्रजापति अनुकूलतापूर्वक स्मरण में रखता है ॥ २४ ॥

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