मन्युसूक्त

ऋग्वेद के दशम मण्डल में दो सूक्त (८३-८४वाँ) साथ-साथ पठित हैं, जो मन्युदेवता परक होने से मन्युसूक्त कहलाते हैं। इन दोनों सूक्तों के ऋषि मन्युस्तापस हैं। मन्युदेवता का अर्थ उत्साहशक्ति सम्पन्न देव किया गया है। इन सूक्तों में ऋषि ने जीव की उत्साहशक्ति को परमशक्ति से जोड़ा है और प्रार्थना की है कि हे मन्युदेव ! हम आपकी उपासना से सब प्रकार की सामर्थ्य प्राप्त करें और अपने काम-क्रोधादि शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सकें। मन्यु देवता में इन्द्र, वरुण आदि देवों की शक्ति प्रतिष्ठित बतायी गयी है और कहा गया है कि जैसे इन्द्रादि देव मन्यु के सहयोग से असुरों पर विजय प्राप्त करते हैं, वैसे ही हम भी अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करें।

यस्ते मन्योऽविधद्वज्र सायक सह ओजः पुष्यति विश्वमानुषक् ।
साह्याम दासमार्यं त्वया युजा सहस्कृतेन सहसा सहस्वता ॥ १ ॥
मन्युरिन्द्रो मन्युरेवास देवो मन्युर्होता वरुणो जातवेदाः ।
मन्युं विश ईळते मानुषीर्याः पाहि नो मन्यो तपसा सजोषाः ॥ २ ॥
अभीहि मन्यो तवसस्तवीयान् तपसा युजा वि जहि शत्रून् ।
अमित्रहा वृत्रहा दस्युहा च विश्वा वसून्या भरा त्वं नः ॥ ३ ॥

हे वज्र के समान कठोर और बाण के समान हिंसक उत्साह! जो तेरा सत्कार करता है, वह सब शत्रु को पराभव करने का सामर्थ्य तथा बल का एक साथ पोषण करता है। तेरी सहायता से तेरे बल बढ़ाने वाले, शत्रु का पराभव करने वाले और महान् सामर्थ्य से हम दास और आर्य शत्रुओं का पराभव करें ॥ १ ॥
मन्यु इन्द्र है, मन्यु ही देव है, मन्यु होता वरुण और जातवेद अग्नि है। जो सारी मानवी प्रजाएँ हैं, वे सब मन्यु की ही स्तुति करती हैं, अतः हे मन्यु! तप से शक्तिमान् होकर हमारा संरक्षण कर ॥ २ ॥
हे उत्साह ! यहाँ आ । तू अपने बल से महाबलवान् हो । द्वन्द्व सहन करने की शक्ति से युक्त होकर शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर, तू शत्रुओं का संहारक, दुष्टों का विनाशक और दुःखदायिओं का नाश करने वाला है। तू हमारे लिये सब धन भरपूर भर दे ॥ ३ ॥

त्वं हि मन्यो अभिभूत्योजाः स्वयंभूर्भामो अभिमातिषाहः ।
विश्वचर्षणिः सहुरि : सहावानस्मास्वोजः पृतनासु धेहि ॥ ४ ॥
अभागः सन्नप परेतो अस्मि तव क्रत्वा तविषस्य प्रचेतः ।
तं त्वा मन्यो अक्रतुर्जिहीळाहं स्वा तनूर्बलदेयाय मेहि ॥ ५ ॥
अयं ते अस्म्युप मेह्यर्वाङ् प्रतीचीनः सहुरे विश्वधायः ।
मन्यो वज्रिन्नभि मामा ववृत्स्व हनाव दस्यूँरुत बोध्यापेः ॥ ६ ॥
अभि प्रेहि दक्षिणतो भवा मे ऽधा वृत्राणि जङ्घनाव भूरि ।
जुहोमि ते धरुणं मध्वो अग्रमुभा उपांशु प्रथमा पिबाव ॥ ७ ॥

हे मन्यु ! तेरा सामर्थ्य शत्रु को हराने वाला है, तू स्वयं अपनी शक्ति से रहने वाला है, तू स्वयं तेजस्वी हैं और शत्रु पर विजय प्राप्त करने वाला है, शत्रुओं का पराभव करने वाला बलवान् है, तू हमारी सेनाओं में बल बढ़ा ॥ ४ ॥
हे विशेष ज्ञानवान् मन्यु! महत्त्व से युक्त ऐसे तेरे कर्म से यज्ञ में भाग न देने वाला होने के कारण मैं पराभूत हुआ हूँ। उस तुझमें यज्ञ न करने के कारण मैंने क्रोध उत्पन्न किया है। अतः इस मेरे शरीर में बल बढ़ाने के लिये मेरे पास आ ॥ ५ ॥
हे शत्रु का पराभव करने वाले तथा सबके धारण करने वाले उत्साह ! यह मैं तेरा हूँ। मेरे पास आ जा, मेरे समीप रह । हे वज्रधारी ! मेरे पास आकर रह, हम दोनों मिलकर शत्रुओं को मारें। निश्चय से तू हमारा बन्धु है, यह जान ॥ ६ ॥
हमारे पास आ । मेरा दाहिना हाथ होकर रह । इससे हम बहुत शत्रुओं को मारें । तेरे लिये मधुर रस के भाग का मैं हवन करता हूँ। इस मधुर रस को हम दोनों एकान्त में पहले पीयेंगे ॥ ७ ॥

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त्वया मन्यो सरथमारुजन्तो हर्षमाणासो धृषिता मरुत्वः ।
तिग्मेषव आयुधा संशिशाना अभि प्र यन्तु नरो अग्निरूपाः ॥ १ ॥
अग्निरिव मन्यो त्विषितः सहस्व सेनानीर्नः सहुरे हूत एधि ।
हत्वाय शत्रून् वि भजस्व वेद ओजो मिमानो वि मृधो नुदस्व ॥ २ ॥
सहस्व मन्यो अभिमातिमस्मे रुजन् मृणन् प्रमृणन् प्रेहि शत्रून् ।
उग्रं ते पाजो नन्वा रुरुध्रे वशी वशं नयस एकज त्वम् ॥ ३ ॥
एको बहूनामसि मन्यवीळितो विशंविशं युधये सं शिशाधि ।
अकृत्तरुक् त्वया युजा वयं द्युमन्तं घोषं विजयाय कृण्महे ॥ ४ ॥

हे उत्साह! तेरे साथ एक रथ पर चढ़कर हर्षित और धैर्यवान् होकर हे सैनिको ! तीक्ष्ण बाण वाले, आयुधों को तीक्ष्ण करने वाले तथा अग्नि के समान तेजस्वी वीर आगे चलें ॥ १ ॥
हे उत्साह ! अग्नि के समान तेजस्वी होकर शत्रुओं का पराभव कर । हे शत्रुओं का पराभव करने वाले मन्यु! तुझे बुलाया गया है। हमारा सेनापति हो। शत्रुओं को मारकर धन हमें विभक्त करके दे, हमारा बल बढ़ाकर शत्रुओं को मार ॥ २ ॥
हे उत्साह! हमारे लिये शत्रु का पराभव कर, शत्रुओं को कुचलकर, मारकर तथा उनका विनाश करता हुआ शत्रुओं को दूर कर, तेरा बल बड़ा है, सचमुच उसका कौन प्रतिबन्ध कर सकता है ? तू अकेला ही सबको वश में करने वाला होकर अपने वश में सबको करता है ॥ ३ ॥
हे उत्साह! तू बहुतों में अकेला ही प्रशंसित हुआ है। युद्ध के लिये प्रत्येक मनुष्य को तीक्ष्ण कर तैयार कर तेरे से युक्त होने से हमारा तेज कम नहीं हो। हम अपनी विजय के लिये तेजस्वी घोषणा करें ॥ ४ ॥

विजेषकृदिन्द्र इवानवब्रवो३ ऽस्माकं मन्यो अधिपा भवेह |
प्रियं ते नाम सहुरे गृणीमसि विद्मा तमुत्सं यत आबभूथ ॥ ५ ॥
आभूत्या सहजा वज्र सायक सहो बिभर्ष्यभिभूत उत्तरम् ।
क्रत्वा नो मन्यो सह मेद्येधि महाधनस्य पुरुहूत संसृजि ॥ ६ ॥
संसृष्टं धनमुभयं समाकृतमस्मभ्यं दत्तां वरुणश्च मन्युः ।
भियं दधाना हृदयेषु शत्रवः पराजितासो अप नि लयन्ताम् ॥ ७ ॥

[ ऋग्वेद १०।८३-८४]

हे उत्साह! इन्द्र के समान विजय प्राप्त करने वाला और स्तुति के योग्य तू हमारा संरक्षक यहाँ हो। हे शत्रु को परास्त करने वाले ! तेरा प्रिय नाम हम लेते हैं, उस बल बढ़ाने वाले उत्साह को हम जानते हैं और जहाँ से वह उत्साह प्रकट होता है, वह भी हम जानते हैं ॥ ५ ॥
हे वज्र के समान बलवान् और बाण के समान तीक्ष्ण उत्साह! शत्रु से पराभव प्राप्त करने के कारण उत्पन्न हुआ तू हे पराभूत मन्यो ! अधिक उच्च सामर्थ्य धारण करता है, पराभव होने पर तेरा सामर्थ्य बढ़ता है । हे बहुत स्तुति जिसकी होती है, ऐसे उत्साह! हमारे कर्म से सन्तुष्ट होकर युद्ध शुरू होने पर बुद्धि के साथ हमारे समीप आ ॥ ६ ॥
वरुण और उत्साह उत्पन्न किया हुआ तथा संग्रह किया हुआ – दोनों प्रकार का धन हमें दें। पराजित हुए शत्रु अपने हृदयों में भय धारण करते हुए दूर भाग जायँ ॥ ७ ॥

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