महाकवि श्रीहर्ष और चिन्तामणि मन्त्र
बात तो है बारहवीं शताब्दी की, किन्तु लगती है कल की जैसी। वैसा प्रखर पाण्डित्य, उतनी गहराएयों के साथ दार्शनिक अनुशीलन की शक्ति, संस्कृत भाषा पर अद्भुत अधिकार, काव्य-निर्माण की अद्वितीय अप्रतिहत प्रतिज्ञा और कारयित्री तथा भावयित्री प्रतिभाओं का अविछिन्न संगम ‘महाकवि’- “श्रीहर्ष” के रोम-रोम में प्रवाहित हो रहा था। कहते है, पण्डित-राज श्रीहर्ष की भाषा और उनके द्वारा उद्घाटित तथ्य समझने में जब कोई समर्थ न हुआ, तो उन्हें भगवती सरस्वती के निर्देशानुसार कुछ उपाय करके बुद्धि को जड़ बनाना पड़ा, तभी वे बोध-गम्य हुए।
पण्डित-राज श्रीहर्ष के पिता ‘हीर’ पण्डित काशी के राजा ‘विजयचन्द्र’ की सभा में प्रधान पण्डित थे। एक दिन सभा में किसी विशिष्ट पण्डित (उदयन) के साथशास्त्रार्थ में वे हार गए। पराजय का दुःख मिट न सका। मरते समय उन्होंने पुत्र ‘श्रीहर्ष’ को पास बुलाकर कहा – ‘वत्स! यदि मेरे सत्पुत्र हो, तो उस पण्डित को शास्त्रार्थ में अवश्य पराजित करना।’
श्रीहर्ष के समक्ष कई समस्याएँ थी। उम्र बहुत कम, परिवार का गुरुतर भार और फिर शास्त्रार्थ-रुपी पहाड़ जैसा काम ! घर त्याग कर, आचार्यों से विविध शास्त्रों का अध्ययन करते हुए, योग्य गुरु से ‘दीक्षा’ लेकर, ‘गंगा’-तट पर एक वर्ष तक “चिन्तामणि-मन्त्र” की साधना में वे संलग्न हुए। माँ प्रसन्न हुई। विद्या इतनी अधिक मिली कि कोई भी पण्डित इनकी वाणी समझने में समर्थ न हुआ। पुनः इन्होंने माता सरस्वती को प्रत्यक्ष करके कहा- ‘माँ ! मुझमें अतिशय बुद्धि-दोष आ गया है। अब बुद्धि कम करो, जिससे मेरी बात लोग समझ सकें।’ तब माता सरस्वती ने कहा- ‘आधी रात में माथा भिगोकर दही पियो। कफ की वृद्धि होगी, फिर बुद्धि जड़ हो जाएगी।’
उन्होंने ऐसा ही किया और फल भी अनुरुप ही पाया। उन्होंने ‘खण्डन-खण्ड-खाद्य’ इत्यादि उत्कृष्ट दार्शनिक ग्रन्थ लिखे। फिर काशी-नरेश की सभा में आकर शास्त्रार्थ की घोषणा की। इनके पाण्डित्य और प्रतिभा को देखकर, पिता का प्रतिद्वन्द्वी पण्डित सर्वथा साहस खो बैठा और इनके समक्ष अपना आत्म-समर्पण कर दिया। पण्डित-समाज और स्वयं राजा अतिशय प्रभावित हुए। राजा ने एक लक्ष स्वर्ण-मुद्रा से इनका अभिनन्दन किया।
राजा के आग्रह पर इन्होंने ‘नैषधीय चरितम्’ की रचना की और इस काव्य को लेकर कश्मीर आए। माता सरस्वती के हाथ में इन्होंने अपना काव्य समर्पित किया, किन्तु माता सरस्वती ने इसे दूर फेंक दिया। श्रीहर्ष नाराज होकर बोले- ‘माता ! तुम्हारी बुद्धि भी जड़ हि गई है क्या? यह किसी ऐसे-वैसे का काव्य नहीं, मेरा है। क्या किसी और का समझ कर फेंक दिया ?’ माता सरस्वती ने कहा- ‘तुम असत्य-भाषी हो। इस काव्य के ११ वें सर्ग के ६४ वें श्लोक में तुमने विष्णु-पत्नी के रुप में मेरा वर्णन किया है। यह कहकर, तुमने मेरे चिरन्तन कन्यात्व का खण्डन किया है। इसलिए मैंने पुस्तक फेंक दी।’ श्रीहर्ष ने कहा- ‘माँ! क्या तुमने एक अवतार में नारायण को पति नहीं बनाया था? पुराणों में जो वर्णन आ चुका है, उस सत्य को उद्घाटित करने में क्यों कुपित होती हो ? कुपित होकर कलंक से छुट जाओगी क्या?’ फिर सरस्वती ने उस पुस्तक को स्वयं उठा लिया।
पण्डित-समुदाय ने सरस्वती का अभिमत प्राप्त हुआ जानकर भी श्रीहर्ष को कश्मीर के राजा ‘माधवदेव’ से नहीं मिलने दिया। कई महीने बीत गए। काशी से आई सामग्री समाप्त हो चुकी थी। एक समय वे कुएँ के पास ही रुद्र-जप कर रहे थे। घड़े लेकर दो स्त्रियाँ पानी लेने आई। कुएँ पर ही दोनों स्त्रियों में झगड़ा हो गया, बात बढ़ चुकने पर बेतरह गाली-गलौज हुआ और अन्त में दोनों एक-दुसरे पर घड़े फेंककर घायल हो गई। दोनों अपना मुकदमा लेकर राज-दरबार पहुँची। राजा ने गवाह माँगा, पर कोई गवाह नहीं था। फिर दोनों ने कहा कि ‘एक ब्राह्मण वहाँ जप कर रहा था। उस जगह वही एक-मात्र आदमी था।’ जब श्रीहर्ष को गवाह के रुप में राज-सभा में ले जाया गया, तो इन्होंने कहा- ‘मैं यहाँ की भाषा बिल्कुल नहीं जानता, किन्तु प्रारम्भ से अन्त तक सारे शब्दों को कह सकता हूँ, अर्थ आप समझ लीजिएगा।’ और उन्होंने ऐसा ही किया। राजा ऐसी अश्रुत प्रतिभा से चकित हो गए। पूरी कहानी जानकर वहाँ के पण्डितों को राजा ने काफी धिक्कारा। महाराज ने इनका भव्य स्वागत किया और पण्डितों ने भी हार्दिक स्वागत किया। पुनः वे काशी लौट आए।
पिता ‘हीर’ और माता ‘मामल्ल देवी’ ने श्रीहर्ष का पालन-पोषण किया था। ‘चिन्तामणि-मन्त्र-चिन्तन’ के फलस्वरुप इन्होंने श्रृंगार-शिरोमणि नैषधीय महा-काव्य की रचना की थी। इस महा-काव्य के १४ वें सर्ग में आपने ‘चिन्तामणि-मन्त्र’ का स्वरुप, फल और अर्चन-विधान पर प्रकाश डाला है। यहाँ ‘मेरु-तन्त्र’ के आधार पर ‘चिन्तामणि-मन्त्र’ के विधान पर प्रकाश डाला जा रहा है।
तारं मायां च हसरानैकाराढ्यान् स-विन्दुकान्। पुनर्मायां च तारं च, वदेत् ङेन्तां सरस्वतीम्।।
उक्त मन्त्रोद्धार से ‘एकादशाक्षर मन्त्र’ बनता हैः- “ॐ ह्रीं ह्स्त्रैं ह्रीं ॐ सरस्वत्यै नमः।”

विनियोगः- ॐ अस्य श्रीचिन्तामणि-मन्त्रस्य कण्ठः ऋषि, त्रिष्टुप् छन्दः, चिन्तामणि-सरस्वती देवता, ह्स्त्रैं बीजं, ह्रीं शक्तिः, श्रीचिन्तामणि-सरस्वती-प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः।
ऋष्यादि-न्यासः- कण्ठः ऋषये नमः शिरसि। त्रिष्टुप् छन्दसे नमः मुखे। चिन्तामणि-सरस्वती देवतायै नमः हृदि। ह्स्त्रैं बीजाय नमः गुह्ये। ह्रीं शक्तये नमः पादयोः। श्रीचिन्तामणि-सरस्वती-प्रीत्यर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे।
षडङग-न्यास स्वर-सम्पुटित कादि-वर्गों से करे।
ध्यानः-
हंसारुढां मौक्तिकाभां, मन्द-हास्येन्दु-शेखरां।
वीणामृत-घटाक्ष-स्त्रक्-दीप्त-हस्ताम्बुज-स्थिताम्।।

‘ध्यान’ करके, ‘मानसिक-पूजन’ और ‘बाह्यार्चन’ करना चाहिए। षडंगावरण के साथ अष्ट-दल में प्रज्ञा, मेधा, श्रुति, स्मृति, शक्ति, वागीश्वरी, वसुमति और स्वस्ति का पूजन करना चाहिए। ब्राह्मी इत्यादि शक्तियों और दिक्-पालों का भी पूजन करना चाहिए। पुरश्चरण में ‘एकादशाक्षर-मन्त्र’ का बारह लाख ‘जप’ करे तथा जप पूर्ण होने पर घृत, धान्य, चम्पक पुष्प से प्रज्वलित अग्नि में बारह हजार आहुति दें।
पण्डित-राज श्रीहर्ष स्वयं कहते हैं- ‘किञ्चित पुण्य के कारण मेरा चिन्तामणि-मन्त्र जिसके हृदय में स्थित रहता है, वह सर्वांगीण साहित्य का साक्षात्कार कर, वाणी में बृहस्पति होता है और वह संसार में जो भी चाहता है, प्राप्त करता है।’

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