महापुरुषों के अपमान से विपत्ति

प्राचीनकाल की बात है, दम्भोद्भव नाम का एक सार्वभौम राजा था। वह महारथी सम्राट् नित्यप्रति प्रात:काल उठकर ब्राह्मण और क्षत्रियों से पूछा करता था कि ‘क्या ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों में कोई ऐसा शस्त्रधारी है, जो युद्ध में मेरे समान अथवा मुझसे बढ़कर हो ?’ इस प्रकार कहते हुए वह राजा अत्यन्त गर्वोन्मत्त होकर इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर विचरता था । राजा का ऐसा घमण्ड देखकर कुछ तपस्वी ब्राह्मणों ने उससे कहा, ‘इस पृथ्वी पर ऐसे दो सत्पुरुष हैं, जिन्होंने संग्राम में अनेकों को परास्त किया है । उनकी बराबरी तुम कभी नहीं कर सकोगे ।’ इस पर उस राजा ने पूछा, ‘वे वीर पुरुष कहाँ हैं ? उन्होंने कहाँ जन्म लिया है ? वे क्या काम करते हैं ? और वे कौन हैं ?’
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ब्राह्मणों ने कहा, ‘वे नर और नारायण नाम के दो तपस्वी हैं, इस समय वे मनुष्यलोक में ही आये हुए हैं; तुम उनके साथ युद्ध करो । वे गन्धमादनपर्वत पर बड़ा ही घोर और अवर्णनीय तप कर रहे हैं ।’

राजा को यह बात सहन नहीं हुई । वह उसी समय बड़ी भारी सेना सजाकर उनके पास चल दिया और गन्धमादन पर जाकर उनकी खोज करने लगा । थोड़ी ही देर में उसे वे दोनों मुनि दिखायी दिये । उनके शरीर की शिराएँ तक दीखने लगी थीं । शीत, घाम और वायु को सहन करने के कारण वे बहुत ही कृश हो गये थे । राजा उनके पास गया और चरणस्पर्श कर उनसे कुशल पूछी । मुनियों ने भी फल, मूल, आसन और जल से राजा का सत्कार करके पूछा, ‘कहिये, हम आपका क्या काम करें ?’ राजा ने उन्हें आरम्भ से ही सब बातें सुनाकर कहा कि इस समय मैं आपसे युद्ध करने के लिये आया हूँ । यह मेरी बहुत दिनों की अभिलाषा है, इसलिये इसे स्वीकार करके ही आप मेरा आतिथ्य कीजिये ।’

नर-नारायण ने कहा, ‘राजन् ! इस आश्रम में क्रोध-लोभ आदि दोष नहीं रह सकते; यहाँ युद्ध की तो कोई बात ही नहीं है, फिर अस्त्र-शस्त्र या कुटिल प्रकृति के लोग कैसे रह सकते हैं ? पृथ्वी पर बहुत-से क्षत्रिय हैं, तुम उनसे युद्ध के लिये प्रार्थना करो ।’ नर-नारायण के इस प्रकार बार-बार समझाने पर भी दम्भोद्भव की युद्ध-लिप्सा शान्त न हुई और वह इसके लिये उनसे आग्रह करता ही रहा ।

तब भगवान् नर ने एक मुट्ठी सींकें लेकर कहा, “अच्छा, तुम्हें युद्ध की बड़ी लालसा है तो अपने हथियार उठा लो और अपनी सेना को तैयार करो ।’ यह सुनकर दम्भोद्भव और उसके सैनिकों ने उनपर बड़े पैने बाणों की वर्षा करना आरम्भ कर दिया । भगवान् नर ने एक सींक को अमोघ अस्त्र के रूप में परिणत करके छोड़ा । इससे यह बड़े आश्चर्य की बात हुई कि मुनिवर नर ने उन सब वीरों के आँख, नाक और कानों को सींकों से भर दिया । इसी प्रकार सारे आकाश को सफेद सींकों से भरा देखकर राजा दम्भोद्भव उनके चरणों में गिर पड़ा और मेरी रक्षा करो, मेरी रक्षा करो’ इस प्रकार चिल्लाने लगा ।

तब शरणागतवत्सल नर ने शरणापन्न राजा से कहा, ‘राजन् ! ऐसा काम फिर कभी मत करना । तुम बुद्धि का आश्रय लो और अहंकारशून्य, जितेन्द्रिय, क्षमाशील, मृदु और शान्त होकर प्रजा का पालन करो । अब भविष्य में तुम किसी का अपमान मत करना ।’

इसके बाद राजा दम्भोद्भव उन मुनीश्वरों के चरणों में प्रणामकर अपने नगर में लौट आया । उसका अहंकार नष्ट हो गया और वह सबसे अच्छी तरह धर्मानुकूल व्यवहार करने लगा ।
[महाभारत-उद्योगपर्व]

 

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