रात्रिसूक्त
ऋग्वेद के दशम मण्डल दशम अध्याय का १२७वाँ सूक्त रात्रिसूक्त कहलाता है, इसमें आठ ऋचाएँ पठित हैं, जिनमें रात्रिदेवी की महिमा का गान किया गया है । इस सूक्त में बताया गया है कि रात्रिदेवी जगत् के समस्त जीवों के शुभाशुभ कर्मों की साक्षी है और तदनुरूप फल प्रदान करती हैं । ये सर्वत्र व्याप्त हैं और अपनी ज्ञानमयी ज्योति से जीवों के अज्ञानान्धकार का नाश कर देती हैं । करुणामयी रात्रिदेवी के अंक में सुषुप्तावस्था में समस्त जीवनिकाय सुखपूर्वक सोया रहता है । dugraविनियोगः- रात्रीत्याद्यष्टर्चस्य सूक्तस्य कुशिकः सौभरो रात्रिर्वा भारद्वाजो ऋषिः, रात्रिर्देवता, गायत्री छन्दः, देवीमाहात्म्यपाठे विनियोग: ।

ॐ रात्री व्यख्यदायती पुरुत्रा देव्यक्षभिः ।
विश्वा अधि श्रियोऽधित ॥ १ ॥

महत्तत्वादिरूप व्यापक इन्द्रियों से सब देशों में समस्त वस्तुओं को प्रकाशित करनेवाली ये रात्रिरूपा देवी अपने उत्पन्न किये हुए जगत् के जीवों के शुभाशुभ कर्मों को विशेषरूपसे देखती हैं और उनके अनुरूप फल की व्यवस्था करने के लिये समस्त विभूतियों को धारण करती हैं ॥ १ ॥

ओर्वप्रा अमर्त्या निवतो देव्युद्वतः ।
ज्योतिषा बाधते तमः ॥ २ ॥

ये देवी अमर हैं और सम्पूर्ण विश्व को नीचे फैलनेवाली लता आदि को तथा ऊपर बढ़ने वाले वृक्षों को भी व्याप्त करके स्थित हैं; इतना ही नहीं ये ज्ञानमयी ज्योति से जीवों के अज्ञानान्धकार का नाश कर देती हैं ॥ २ ॥

निरु स्वसारमस्कृतोषसं देव्यायती ।
अपेदु हासते तमः ॥ ३ ॥

परा चिच्छक्तिरूपा रात्रिदेवी आकर अपनी बहिन ब्रह्मविद्यामयी उषादेवी को प्रकट करती हैं, जिससे अविद्यामय अन्धकार स्वतः नष्ट हो जाता है ॥ ३ ॥

सा नो अद्य यस्या वयं नि ते यामन्नविक्ष्महि ।
वृक्षे न वसतिं वयः ॥ ४ ॥

वे रात्रिदेवी इस समय मुझ पर प्रसन्न हों, जिनके आने पर हमलोग अपने घरों में सुख से सोते हैं — ठीक वैसे ही, जैसे रात्रि के समय पक्षी वृक्षों पर बनाये हुए अपने घोंसलों में सुखपूर्वक शयन करते हैं ॥ ४ ॥

नि ग्रामासो अविक्षत नि पद्वन्तो नि पक्षिणः ।
नि श्येनासश्चिदर्थिनः ॥५॥

उस करुणामयी रात्रिदेवी के अंक में सम्पूर्ण ग्रामवासी मनुष्य, पैरों से चलने वाले गाय, घोड़े आदि पशु, पंखों से उड़नेवाले पक्षी एवं पतंग आदि, किसी प्रयोजन से यात्रा करनेवाले पथिक और बाज आदि भी सुखपूर्वक सोते हैं ॥ ५ ॥

यावया वृक्यं वृकं यवय स्तेनमूर्म्ये ।
अथा नः सुतरा भव ॥ ६ ॥

हे रात्रिमयी चिच्छक्ति ! तुम कृपा करके वासनामयी वृकी तथा पापमय वृक को हमसे अलग करो । काम आदि तस्कर समुदाय को भी दूर हटाओ । तदनन्तर हमारे लिये सुखपूर्वक तरने योग्य हो जाओ — मोक्षदायिनी एवं कल्याणकारिणी बन जाओ ॥ ६ ॥

उप मा पेपिशत्तमः कृष्णं व्यक्तमस्थित ।
उष ऋणेव यातय ॥ ७ ॥

हे उषा ! हे रात्रि की अधिष्ठात्री देवी ! सब ओर फैला हुआ यह अज्ञानमय काला अन्धकार मेरे निकट आ पहुँचा है । तुम इसे ऋण की भाँति दूर करो जैसे धन देकर अपने भक्तों के ऋण दूर करती हो, उसी प्रकार ज्ञान देकर इस अज्ञान को भी हटा दो ॥ ७ ॥

उप ते गा इवाकरं वृणीष्व दुहितर्दिवः ।
रात्रि स्तोमं न जिग्युषे ॥ ८ ॥

हे रात्रिदेवी ! तुम दूध देनेवाली गौ के समान हो । मैं तुम्हारे समीप आकर स्तुति आदि से तुम्हें अपने अनुकूल करता हूँ । व्योम-स्वरूप परमात्मा की परम पुत्री ! तुम्हारी कृपा से मैं काम आदि शत्रुओं को जीत चुका हूँ, तुम स्तोम की भाँति मेरे इस हविष्य को भी ग्रहण करो ॥ ८ ॥

ऋग्वेद……मं० १० अ० १० सू० १२७ मन्त्र १ से ८ तक । (देवीपुराण)

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