June 8, 2019 | Leave a comment ॥ राधामाधव प्रातः स्तवराज ॥ प्रातः स्मरामि युगकेलिरसाभिषिक्तं वृन्दावनं सुरमणीयमुदारवृक्षम् । सौरीप्रवाहवृतमात्मगुणप्रकाशं युग्माङ्घ्रिरेणुकणिकाञ्चितसर्वसत्त्वम् ॥ १ ॥ जहाँपर सगुण हुए परमात्मा के दिव्य लीलागुणों का प्रकाश हुआ है, जो यमुनाजी के जलप्रवाह से आवेष्टित, अतीव रमणीय तथा वांछित फल देनेवाले वृकषों से समन्वित है और जिसमें अवस्थित सकल प्राणिसमुदाय युगल-स्वरूप की चरण-धूलिसे परिपूत है । राधामाधव-युगल के लीलारस से अभिषिञ्चित ऐसे श्रीवृन्दावनधाम का मैं प्रात:काल स्मरण करता हूँ ॥ १ ॥ प्रातः स्मरामि दधिघोषविनीतनिद्रं निद्रावसान-रमणीयमुखानुरागम् । उन्निद्रपद्मनयनं नवनीरदाभं हृद्यानवद्यललनाञ्चितवामभागम् ॥ २ ॥ दधिमन्थनघोष के कारण जिनकी निद्रा निवृत्त हो चुकी है, सोकर उठने पर अलसाया हुआ जिनका अनुरागरंजित मुख अतिमनोहर प्रतीत हो रहा है, जो खिले हुए कमल के सदृश नेत्रों तथा नवीन मेघ-सी कान्तिवाले हैं तथा जिनके वामांग में विशुद्ध स्वरूपवाली परम सुन्दरी श्रीराधा शोभायमान हैं — ऐसे (श्यामसुन्दर) —का मैं प्रातःकाल स्मरण करता हूँ ॥ २ ॥ प्रातर्भजामि शयनोत्थितयुग्मरूपं सर्वेश्वरं सुखकरं रसिकेशभूपम् । अन्योन्यकेलिरसचिह्नसखीदृगौघं सख्यावृतं सुरतकाममनोहरञ्च ॥ ३ ॥ जिनकी पारस्परिक विलासलीलाएँ सखियों के अवलोकन का विषय हैं, जो सर्वेश्वर, सुखप्रद, रसिक-भक्तोंका परमाश्रय, सहचरीवृन्द से आवृत तथा रति-काम की शोभा का अतिक्रमण करनेवाले सौन्दर्य से समन्वित हैं । शयन से उठे हुए ऐसे श्रीराधा-माधव युगल स्वरूप का मैं प्रातःकाल भजन करता हूँ ॥ ३ ॥ प्रातर्भजे सुरतसारपयोधिचिह्नं गण्डस्थलेन नयनेन च सन्दधानौ । रत्याद्यशेषशुभदौ समुपेतकामौ श्रीराधिकावरपुरन्दरपुण्यपुञ्जौ ॥ ४ ॥ विलासरससिन्धु के (विलोडन से उत्पन्न हुए रत्नों के सदृश प्रतीत होनेवाले) चिह्नों को नेत्रों तथा कपोलों पर धारण किये हुए, प्रेमाभक्ति आदि समस्त शुभ फलों को प्रदान करनेवाले, आप्तकाम तथा पुरन्दर (नन्दजी एवं वृषभानुजी)— के पुण्यसमूहरूप श्रीराधा-माधव का मैं प्रातःकाल भजन करता हूँ ॥ ४ ॥ प्रातर्धरामि हृदयेन हृदीक्षणीयं युग्मस्वरूपमनिशं सुमनोहरं च । लावण्यधाम ललनाभिरुपेयमानम् उत्थाप्यमानमनुमेयमशेषवेषैः ॥ ५ ॥ व्रजसुन्दरियों (की अनन्य प्रीतिके कारण उन) — के प्राप्यरूप तथा उनके द्वारा प्रभातवेला में जगाये जाते हुए, सभी प्रकार की वेष-रचनाओं से समन्वित हुए जो चिन्तन का विषय बनते हैं, जो निरतिशय सौन्दर्य के आश्रय तथा (भक्तों के द्वारा) अन्त:करण में निरन्तर चिन्तनयोग्य हैं — ऐसे उन राधा-माधव के युगल स्वरूप का मैं प्रातःकाल अपने हृदय में ध्यान करता हूँ ॥ ५ ॥ प्रातर्ब्रवीमि युगलावपि सोमराजौ राधामुकुन्दपशुपालसुतौ वरिष्ठौ । गोविन्दचन्द्रवृषभानुसुतौ वरिष्ठौ सर्वेश्वरौ स्वजनपालनतत्परेशौ ॥ ६ ॥ वृषभानु गोप की पुत्री श्रीराधा तथा (नन्द-)-गोपात्मज गोविन्दचन्द्र मुकुन्द जो स्वजनों के पालन में तत्पर, सर्वातिशायी, ऐश्वर्यसम्पन्न, सबके स्वामी, परमोत्कृष्ट तथा सोमवंश को विभूषित करनेवाले हैं । ऐसे उस राधामाधव युगल का मैं प्रातःकाल कीर्तन करता हूँ ॥ ६ ॥ प्रातर्नमामि युगलाङ्घ्रिसरोजकोशम् अष्टाङ्गयुक्तवपुषा भवदुःखदारम् । वृन्दावने सुव्चरन्तमुदारचिह्नं लक्ष्म्याउरोजधृतकुङ्कुमरागपुष्टम् ॥ ७ ॥ भगवती लक्ष्मी के वक्षःस्थल में विलिप्त कुंकुमद्रव से जो आरंजित हैं, (ध्वज-वज्र आदि) उदार चिह्नों से जो समलंकृत हैं और वृन्दावन में मनोहर रीति से विचरण कर रहे हैं । राधामाधवयुगल के उन भवदु:खहारी तथा कमलकोश के सदृश (सुकोमल) श्रीचरणों की मैं अष्टांगप्रणामोद्यत शरीर से वन्दना करता हूँ ॥ ७ ॥ प्रातर्नमामि वृषभानुसुतापदाब्जं नेत्रालिभिः परिणुतं व्रजसुन्दरीणाम् । प्रेमातुरेण हरिणा सुविशारदेन श्रीमद्व्रजेशतनयेन सदाऽभिवन्द्यम् ॥ ८ ॥ परमकुशल व्रजेन्द्रनन्दन श्रीहरि प्रीतिपरवश होकर जिनका सतत अभिनन्दन करते हैं तथा व्रजांगनाओं के लोचनभृंग चारों ओर मँडराते हुए जिनका सेवन करते हैं, वृषभानुसुता श्रीराधा के ऐसे चरणकमलों की मैं प्रातःकाल वन्दना करता हूँ ॥ ८ ॥ सञ्चितनीयमनुमृत्यमभीष्टदोहं संसारतापशमनं चरणं महार्हम् । नन्दात्मजस्य सततं मनसा गिरा च संसेवयामि वपुषा प्रणयेन रम्यम् ॥ ९ ॥ जो (ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भी) अन्वेषण किये जानेयोग्य, अभिमत फलों को प्रदान करनेवाले, सांसारिक तापों के शामक, सर्वातिशायि तथा भली-भाँति चिन्तनीय हैं, नन्दनन्दन श्रीकृष्ण के ऐसे मनोहर श्रीचरणों की मैं निरन्तर मन, वाणी तथा शरीर से प्रीतिपूर्वक सेवा करता हूँ ॥ ९ ॥ प्रातः स्तवमिमं पुण्यं प्रातरुत्थाय यः पठेत् । सर्वकालं क्रियास्तस्य सफलाः स्युः सदा ध्रुवाः ॥ १० ॥ इस प्रातःकालीन पवित्र (युगल) स्तवन का जो साधक प्रभातवेला में प्रबुद्ध होकर पाठ करेगा, उसकी सभी सक्रियाएँ सदा सर्वदा सफल एवं नियत परिणामवाली होंगी ॥ १० ॥ [ श्रीनिम्बार्काचार्यप्रणीत प्रातःस्तवराज] ॥ इति श्रीनिम्बार्काचार्यविरचितं श्रीकृष्णप्रातःस्मरणस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥ Related