March 19, 2025 | aspundir | Leave a comment रोगनिवारणसूक्त अथर्ववेद के चतुर्थ काण्ड का १३वाँ सूक्त तथा ऋग्वेद के दशम मण्डल का १३७वाँ सूक्त’ रोगनिवारणसूक्त’ के नाम से प्रसिद्ध है। अथर्ववेद में अनुष्टुप् छन्द के इस सूक्त के ऋषि शंताति तथा देवता चन्द्रमा एवं विश्वेदेवा हैं। जबकि ऋग्वेद में प्रथम मन्त्र के ऋषि भरद्वाज, द्वितीय के कश्यप, तृतीय के गौतम, चतुर्थ के अत्रि, पंचम के विश्वामित्र, षष्ठके जमदग्नि तथा सप्तम मन्त्रके ऋषि वसिष्ठजी हैं और देवता विश्वेदेवा हैं। इस सूक्तके जप- पाठसे रोगोंसे मुक्ति अर्थात् आरोग्यता प्राप्त होती है। ऋषिने रोगमुक्तिके लिये ही देवों से प्रार्थना की है। उत देवा अवहितं देवा उन्नयथा पुनः । उतागश्चक्रुषं देवा देवा जीवयथा पुनः ॥ १ ॥ द्वाविमौ वातौ वात आ सिन्धोरा परावतः । दक्षं ते अन्य आवातु व्यन्यो वातु यद्रपः ॥ २ ॥ आ वात वाहि भेषजं वि वात वाहि यद्रपः । त्वं हि विश्वभेषज देवानां दूत ईयसे ॥ ३ ॥ हे देवो! हे देवो! आप नीचे गिरे हुए को फिर निश्चयपूर्वक ऊपर उठाओ। हे देवो! हे देवो ! और पाप करने वाले को भी फिर जीवित करो, जीवित करो ॥ १ ॥ ये दो वायु हैं । समुद्र से आने वाला वायु एक है और दूर भूमि पर से आने वाला दूसरा वायु है। इनमें से एक वायु तेरे पास बल ले आये और दूसरा वायु जो दोष है, उसे दूर करे ॥ २ ॥ हे वायु ! ओषधि यहाँ ले आ। हे वायु ! जो दोष है, वह दूर कर । हे सम्पूर्ण ओषधियों को साथ रखने वाले वायु ! निःसन्देह तू देवों का दूत- जैसा होकर चलता है, जाता है, बहता है ॥ ३ ॥ त्रायन्तामिमं देवास्त्रायन्तां मरुतां गणाः । त्रायन्तां विश्वा भूतानि यथायमरपा असत् ॥ ४ ॥ आ त्वागमं शंतातिभिरथो शंतातिभिरथो अरिष्टतातिभिः । दक्षं त उग्रमाभारिषं परा यक्ष्मं सुवामि ते ॥ ५ ॥ अयं मे हस्तो भगवानयं भगवानयं मे भगवत्तरः । अयं मे विश्वभेषजोऽयं शिवाभिमर्शनः 1 ॥ ६ ॥ हस्ताभ्यां दशशाखाभ्यां जिह्वा वाचः पुरोगवी । अनामयित्नुभ्यां हस्ताभ्यां ताभ्यां त्वाभि मृशामसि ॥ ७ ॥ [ अथर्व ० ४ । १३] हे देवो ! इस रोगी की रक्षा करो। हे मरुतों के समूहो ! रक्षा करो। सब प्राणी रक्षा करें। जिससे यह रोगी रोग-दोषरहित हो जाय ॥ ४ ॥ आपके पास शान्ति फैलाने वाले तथा अविनाशी करने वाले साधनों के साथ आया हूँ। तेरे लिये प्रचण्ड बल भर देता हूँ। तेरे रोग को दूर कर भगा देता हूँ ॥ ५ ॥ मेरा यह हाथ भाग्यवान् है। मेरा यह हाथ अधिक भाग्यशाली है। मेरा यह हाथ सब औषधियों से युक्त है और यह मेरा हाथ शुभ स्पर्श देनेवाला है ॥ ६ ॥ दस शाखा वाले दोनों हाथों के साथ वाणी को आगे प्रेरणा करने वाली मेरी जीभ है। उन नीरोग करने वाले दोनों हाथों से तुझे हम स्पर्श करते हैं ॥ ७ ॥ 1 ऋग्वेदमें ‘अयं मे हस्तो०’ के स्थान पर यह दूसरा मन्त्र उल्लिखित है- ‘आप इद्वा उ भेषजीरापो अमीवचातनीः । आपः सर्वस्य भेषजीस्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम् ॥’ जल ही निःसंदेह ओषधि है। जल रोग दूर करने वाला है। जल सब रोगों की ओषधि है। वह जल तेरे लिये ओषधि बनाये । Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe