शाबर तंत्र साधना से पूर्व आवश्यक निर्देश
किसी भी साधक को कोई भी तांत्रिक प्रयोग अथवा तंत्र-मंत्र-यंत्र साधना करने से पूर्व अपने इष्टदेव का स्मरण तथा अपने पूज्य गुरूदेव का आशीर्वाद व मार्गदर्शन तथा निम्नांकित आवश्यक निर्देशों एवं सावधानियों का पालन करना अत्यावश्यक होता है-
* मंत्रतंत्र का जप अंग-शुद्धि, सरलीकरण एवं विधि-विधान पूर्वक करना उचित है। आत्म-रक्षा के लिए सरलीकरण तथा रक्षा-विधान की आवश्यकता होती है।
* किसी भी तन्त्र अथवा मन्त्र की साधना करते समय उस पर पूर्ण श्रद्धा रखना आवश्यक है, अन्यथा वांछित फल प्राप्त नहीं होगा।
* मन्त्र-तन्त्र साधन के समय शरीर का स्वस्थ एवं पवित्र रहना आवश्यक है। चित्त शान्त हो तथा मन में किसी प्रकार की ग्लानि न रहे।
* शुद्ध, हवादार तथा पवित्र एकान्त स्थान में ही मन्त्र साधना करनी चाहिए। मन्त्र-तन्त्र साधना की समाप्ति तक स्थान परिवर्तन नहीं करना चाहिए।
* जिस मन्त्र-तन्त्र की जैसी साधना-विधि वर्णित है, उसी के अनुरूप सभी कर्म करने चाहिए अन्यथा परिवर्तन करने से विघ्न-बाधाएँ उपस्थित हो सकती हैं तथा सिद्धि में भी सन्देह हो सकता है।
* जिस मन्त्र की जप संख्या आदि जितनी लिखी है उतनी ही संख्या में जप-हवन आदि करना चाहिए। इसी प्रकार जिस दिशा की ओर मुंह करके बैठना लिखा हो तथा जिस रंग के पुष्पों का विधान, हो उन सबका यथावत पालन करना चाहिए।
* एक बार में एक ही तन्त्र की साधना करना उचित है। इसी प्रकार एक समय केवल एक ही मनोभिलाषा की पूर्ति का उद्देश्य रहना चाहिए।
* तेल, सुगन्ध, साबुन, पाउडर आदि का उपयोग न करें।
* साधन काल में शुद्ध देसी घी का अखण्ड दीपक जलायें।
* साधना के समय जल का लोटा अपने पास रखें ।
* साधना एक नियत समय पर ही करें।
* साधना आरम्भ से पूर्व मंत्र को कण्ठस्थ करके फिर जप करें।
* जप के समय जल का जो पात्र समीप में रखे हों, उस पात्र का जल 24 घण्टे बाद किसी वृक्ष पर चढ़ा दें ।
* जप के समय क्रोध, लड़ाई, चिंता आदि से बचें।
* जप काल में झूठ का त्याग अवश्य करें।
* साधना काल में धूम्रपान या कोई अन्य नशा आदि न करें।

मंत्र जप से पूर्व आवश्यक सावधानियाँ
मंत्र साधक कोई भी मंत्र सिद्धि प्रारंभ करने से पूर्व निम्नांकित निर्देशों एवं नियमों का पालन करते हुए ही साधना आरंभ करें तथा पुज्य गुरूदेव का आशीर्वाद व मार्गदर्शन भी अवश्य ले लेवें
* जप शुरू करने से पहले अपनी रक्षा विधि अवश्य करें।
* जप साधना में असली शुद्ध सामग्री का ही उपयोग करें।
* जप काल में भोग आदि सामग्री, फूल॒फल, मिठाई आदि ताजा एवं शुद्ध होनी चाहिए।
* साधना काल में साधक अपने वस्त्र, जूठे बर्तन आदि स्वयं साफ करें।
* साधक साधना में उपयोग की सामग्री (नैवेद्य, भोग) तथा अपना भोजन स्वयं तैयार करें ।
* साधना रात्रि के शान्त वातावरण में करें।
* साधक, अनुष्ठान, जप के बाद भी नियमित मंत्र जप करते रहें।
* साधक को मंत्र का अर्थ जानना भी जरूरी है। मंत्र का अर्थ समझे बगैर मंत्र का जप करना फलीभूत नहीं है। किन्तु शाबर मंत्रों में जिनका कि प्रकट बोधगम्य मंत्र का अर्थ नहीं है, जिन मंत्रों का स्वरूप स्पष्ट नहीं है, उन पर यह नियम लागू नहीं होता है।
* मंत्र जप काल में मंत्र के किसी अंग को भूल जाना, अनावश्यक पुनरावृति कर बैठना तथा अर्थ भूल जाना भी जप दोष है। मूल मंत्र को उसके पूर्ण स्वरूप में जपते हुये साधक जप के साथ ही मंत्रार्थ का भी ध्यान करते रहे।
* मंत्र जप में मंत्र जप की संख्या भी पूर्ण संतुलित होनी चाहिये। मंत्र की जप संख्या (जितनी निर्धारित हो) को साधना अनुष्ठान क्रम में दिवस वार अर्थात् तिथिवार विभाजित करके जाप करना चाहिये।
* इस प्रकार मंत्र जप के प्रथम दिन मंत्र जप की जितनी संख्या में जप किया जाय प्रतिदिन उतनी ही संख्या में मंत्र का जप करना चाहिये। इस क्रम में मंत्र जप की संख्या कम करना अथवा किसी दिन बढ़ा देने को भी दोषयुक्त माना गया है।
* मंत्र जप करते समय यदि बोलना आवश्यक हो जाये तो वार्तालाप कर ले। लेकिन उसके बाद यथावत रूप में ही मंत्र जप में प्रवृत न हो जाये, बल्कि पूर्व विधि द्वारा पूजन कर आरंभ से जप करे।
* मंत्र जप काल में यदि साधक को नित्य-कर्म निवृति की आवश्यकता प्रतीत हो तो वह इसके वेग को बलपूर्वक रोके नहीं बल्कि नित्यकर्म से निवृत होने के पश्चात् पुन: स्नान कर वस्त्र परिवर्तन कर आचमन कर पूर्व विधि द्वारा पूजन कर मंत्र का पुन: जप करना चाहिये।
* मंत्र जप करते समय साधक को आलस्य, प्रमाद, अंगड़ाई, जम्हाई इत्यादि क्रियाये नहीं करनी चाहिये। इस समय थूकना, छींकना, खाँसना, भय, क्रोध, तृष्णा आदि अन्य विषय चिन्तन तथा जननेन्द्रिय एवं शरीर खुजलाना आदि कार्य भी वर्जित है।
* इन्हीं दोषों द्वारा जपकाल में विघ्न न आने देने के लिये एकाहार, अल्पाहार, मौन तथा सात्विक आहार की व्यवस्था की है।
* मंत्र जपकाल मंत्र में जप का क्रम भंग नहीं करना चाहिये यानि मंत्र जप अभंग क्रम में करना चाहिये ।
* मंत्र का जप संतुलित स्थिति में होना चहिये अर्थात् मंत्र का न तो खूब जल्दी जप करना चहिये और न अत्यन्त धीमी गति से करना चाहिये।
* मंत्र के संयुक्ताक्षरो, हलन्त विसर्ग एवं चन्द्र-बिन्दु तथा हर स्वदीर्घ, ईकार, ऊकार इत्यादि का यथा रूप सस्वर अथवा मौन जप करना चाहिये ।
* मंत्रों को गाकर अथवा खण्ड रूप में विभाजित करके नहीं जप करना चाहिये।
* मंत्र जप काल में शरीर हिलाना, अंग संकोचन क्रिया तथा लिखकर मंत्र जप करना भी वर्जित है।
* आहार ग्रहण करते समय तथा निद्रा, आलस्य या अन्य किसी संवेग से ग्रसित होने पर प्रवृत होना वर्जित है।
* मंत्र जप काल में दोनों पैर फैलाकर मंत्र का जप करना भी निषिद्ध है। जप से प्रारंभ से लेकर उसकी समाप्ति तक इन सारी बातों का ध्यान रखना चाहिये।
* उपर्युक्त व्यवस्था द्वारा मंत्र साधना कर मंत्र की सिद्धि में प्रवृत होने वाले साधक के लिये पूर्ण पालनीय है।
* सिद्धि प्राप्त सिद्ध मंत्र पुरुष जो कि मंत्र-निष्ठ स्थिति को प्राप्त कर चुका है । इन नियमों बन्धनों से मुक्त स्थिति में है उस पर ये बाते इतनी कठिन स्थिति में लागू नहीं होती है।

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