October 12, 2015 | aspundir | 2 Comments शारदीय नव-रात्र में कलश-स्थापन चारों नव-रात्रों में “शारदीय-नव-रात्र’ का विशेष महत्त्व है। कहा भी है- शरत्-काले महा-पूजा, क्रियते या च वार्षिकी । तस्याह सकलां बाधां, नाशयिष्याम्यसंशयम् ।। ऐसी दशा में ‘शारदीय नव-रात्र’ के पूजा-विधान पर विशेष रुप से ध्यान देना आवश्यक है। भगवान् आशुतोष कथित अनेक तन्त्र-शास्त्र एवं स्मार्त-शास्त्र इस पूजा के उत्तमोत्तम विधि-विधान से भरे पडे हैं। ‘कलश-स्थापन’ के सम्बन्ध में भी अनेक मत हैं। पूजा और कलश-स्थापन के विभिन्न मतों के अवलोकन से सामान्य साधक या जिज्ञासु संशय में पड जाता है। उसके सामने पूजा प्रायः दुरुह लगने लगती है। यद्यपि माँ की अर्चना सर्व-काल में मंगल-मय है, वह कभी अनिष्ट नहीं कर सकती, तथापि जन-सामान्य के कल्याण की भावना से कुछ शास्त्रीय प्रमाण यहाँ उल्लेखनीय हैं – १॰ भगवती काली की पूजा का आरम्भ अमा-युक्त प्रतिपदा में न करें। (काली-तन्त्र) २॰ ‘देवी-पुराण’ एवं ‘डामर-तन्त्र’ के अनुसार अमावस्या से युक्त प्रतिपदा मिले, तो द्वितीया में पूजा आरम्भ करें। ३॰ प्रतिपदा से युक्त अमा अमंगल-कारिणी है। अतः अमा-सहित प्रतिपदा को त्याग दें। (मार्कण्डेय-पुराण) ४॰ हे राजन् ! अमा से युक्त प्रतिपदा प्रयत्नतः त्याग दें। (डामर-तन्त्र) ५॰ हे राजन् ! आश्विन शुक्ल पक्ष की द्वितीया आदि तिथियों में जो मेरी पूजा करता है तथा प्रतिपदा-युक्त द्वितीया में जो मेरी पूजा आरम्भ करता है, वह निश्चित रुप से सुखी और कल्याण का भागी होता है। (देवी-पुराण) ६॰ जो व्यक्ति अमावस्या से युक्त प्रतिपदा में, जो अत्यन्त निन्दित मुहूर्त है, पूजा आरम्भ करता है, वह दुर्भिक्ष-ग्रस्त होता है। (रुद्र-यामल) ७॰ प्रातःकाल में भगवती का आवाहन, पत्रिका-प्रवेश, पूजा एवं विसर्जन करे। (देवी-पुराण, निर्णय-सिन्धु) ८॰ यदि शुभ लग्न, नक्षत्र एवं योगों का अभाव हो, तो सूर्यास्त-काल, चन्द्रोदय-काल-व्यापी गोधूलि के अभिजित-काल में पूजा आरम्भ करे, पर वैधृति में कसापि न करे। (चण्डी-तन्त्र) ९॰ प्रातः-काल या सन्ध्या-काल उतना दोष-प्रद नहीं है, जितना वैधृति या अमा-प्रतिपदा का योग। (चण्डी-रहस्य) १०॰ यदि तिथि की वृद्धि या ह्रास हो जाये, तो उसका कोई प्रभाव ‘नव-रात्र’ पर नहीं होता। तिथि-ह्रास में अष्ट-रात्र ही नव-रात्र हो जाता है। (निर्णय-सिन्धु) ११॰ आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को यदि वैधृति योग हो, चित्रा हो, तो उसका प्रथम चरण त्याग कर नव-रात्र आरम्भ किया जा सकता है। (निर्णय-सिन्धु) १२॰ वैधृति एवं चित्रा में ‘कलश-स्थापन’ से क्रमशः पुत्र एवं धन का नाश होता है, इसलिए पुत्र एवं धन की कामना करने वाले साधक चित्रा-वैधृति में भूलकर भी कलश-स्थापना न करें। (रुद्र-यामल) १३॰ सूर्योदय से दस घटी (२४० मिनट) पर्यन्त की प्रातःकालीन संज्ञा है (विष्णु-धर्मोत्तर-पुराण) १४॰ रात्रि में ‘कलश-स्थापन’ या कुम्भाभिषेक न करे। (मत्स्य-पुराण) १५॰ सायं-काल स्थापना एवं अभिषेक के लिए उतना दोष-पूर्ण नहीं, जितना वैधृति या चित्रा। (भवानी-तन्त्र) १६॰ हे राजन् ! आश्विन शुक्ल प्रतिपदा की ऊर्ध्व-गामिनी शुद्ध तिथि में भगवती चण्डिका की पूजा प्रारम्भ करे। (कालिका-पुराण) १७॰ पूर्वाह्न में देवी-घट स्थापित करने वाला वैश्व-देव न करे, परन्तु अपराह्न में करनेवाले को वैश्व-देव करना पडता है। १८॰ कल्याण की कामना करने वाला पूर्वा विद्धा प्रतिपदा में कलश स्थापित न करे। (स्कन्द-पुराण) १९॰ यदि प्रतिपदा को चित्रा-वैधृति आदि योग उपस्थित हो जाए, तो उसके अन्त में घर में कलश स्थापित करे। (दुर्गार्चन-कल्पतरु) २०॰ यदि वैधृति आदि योगों का परिहार करते-करते प्रतिपदा-द्वितीया नहं मिले, तो आदि-पाद को छोडकर भगवती का स्मरण कर मध्याह्न में अभिजित-मुहूर्त में कलश को स्थापित करे। (रुद्र-यामल) २१॰ कलश की स्थापना – हस्त नक्षत्र में करना चाहिए। आर्द्रा में भगवती का अवबोधन कर ‘हस्त’ में कलश स्थापित करे। मूल में आवाहित कर ‘पूर्वा उत्तरा’ में पूजनादि एवं बलिदान आदि से भगवती को सन्तुष्ट कर ‘श्रवण’ में सादर विसर्जित कर आगामी दिन विजयोत्सव माने, किन्तु कभी भी प्रमाद-वश महाऽष्टमी में ‘बलि-दान’ न करे। (दुर्गार्चन-प्रदीप) उक्त शास्त्रीय प्रमाणों से यही सिद्ध होता है कि – – कलश-स्थापन – प्रतिपदा-द्वितीया योगवाली प्रतिपदा को प्रातः-काल करे। प्रातः हस्त नक्षत्र प्राप्त रहे, वैधृति का अभाव हो, चन्द्रादि ग्रह विहित स्थान में हो, तो प्रातः-कालीन कलश-स्थापन अत्यन्त मंगल-कारी होता है। – यदि अमावस्या-प्रतिपदा के योग में हस्त हो, वैधृति का अभाव हो और ग्रह-लग्न आदि उत्तम बनते हों, तो भी कलश-स्थापना उस दिन न करे, प्रत्युत दूसरे दिन करे। – यदि प्रतिपदा दिन-रात हो और दूसरे दिन एक पल भी मिलती हो, तो दूसरे दिन ही कलश स्थापित करे। – यदि प्रतिपदा के पूर्वाह्न में चित्रा या वैधृति हो, तो उसके बीत जाने पर कलश स्थापित करे। – अपराह्न तक भी वैधृति और चित्रा मिले, तो सन्ध्या में चन्द्रोदय-काल में कलश स्थापित करे। पश्चात् रात्रि में कलश स्थापित न करे। – यदि सन्ध्या में पूजा आरम्भ हो जाए और अन्त होते-होते रात्रि हो जाए, तो उसे रात्रि-दोष नहीं माना जाता। – यदि प्रतिपदा में कभी भी शुभ लग्न न मिले, तो मध्याह्न में ही कलश स्थापित करे। – वामा-क्रम से मध्य-रात्रि में भी कलश स्थापित कर सकते हैं, ऐसा प्रमाण आगमों में प्राप्त है। Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe