October 3, 2024 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण — उमासंहिता — अध्याय 20 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥ श्रीशिवमहापुराण उमासंहिता बीसवाँ अध्याय तपस्यासे शिवलोककी प्राप्ति, सात्त्विक आदि तपस्याके भेद, मानवजन्मकी प्रशस्तिका कथन व्यासजी बोले – हे सर्वज्ञ ! सनत्कुमार! हे सत्तम ! अब आप उस [ शिवलोक ] – की प्राप्तिका वर्णन करें, जहाँ जाकर शिवभक्त मनुष्य फिर नहीं लौटते हैं ॥ १ ॥ सनत्कुमार बोले – हे पराशरपुत्र व्यास ! अब आप शुद्ध शिवभक्तजनों तथा तपस्वियोंकी शुभ गति तथा पवित्र व्रतको प्रीतिपूर्वक सुनिये ॥ २ ॥ शुद्ध कर्म करनेवाले एवं अत्यन्त शुद्ध तपस्यासे युक्त जो मनुष्य प्रतिदिन शिवजीकी पूजा करते हैं, वे सब प्रकारसे सर्वदा वन्दनीय हैं ॥ ३ ॥ हे महामुने! तपस्या नहीं करनेवाले उस निर्विकार शिवलोकमें नहीं जा सकते हैं, शिवजीकी कृपाका मूल हेतु तपस्या ही है । यह प्रत्यक्ष है कि तपके प्रभावसे ही देवता, ऋषि और मुनिलोग स्वर्गमें आनन्द प्राप्त करते हैं, मेरे इस वचनको सत्य जानिये ॥ ४-५ ॥ जो अत्यन्त कठिन, दुराराध्य, अत्यन्त दूर एवं पार न पानेयोग्य है, वह सब तपस्यासे सिद्ध हो जाता है, निश्चय ही तपस्याका अतिक्रमण नहीं किया जा सकता। ब्रह्मा, विष्णु तथा हर नित्य तपमें स्थित रहते हैं । सम्पूर्ण देवताओं तथा देवियोंने भी तपस्यासे ही दुर्लभ फल प्राप्त किया है ॥ ६-७ ॥ महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥ जिस-जिस भावमें स्थित होकर लोग जो तपस्या करते हैं, वे उस तपसे उसी प्रकारका फल इस लोकमें प्राप्त करते हैं, इसमें सन्देह नहीं है । हे व्यासजी ! सात्त्विक, राजस तथा तामस – यह तीन प्रकारका तप कहा गया है, तपको सम्पूर्ण साधनोंका साधन जानना चाहिये ॥ ८-९ ॥ देवताओं, संन्यासियों एवं ब्रह्मचारियोंका तप सात्त्विक होता है । दैत्यों एवं मनुष्योंका तप राजस होता है तथा राक्षसों एवं क्रूर कर्म करनेवाले मनुष्योंका तप तामस होता है ॥ १० ॥ तत्त्वदर्शी महर्षियोंने उनका फल भी तीन प्रकारका बताया है। भक्तिपूर्वक देवगणोंका जप, ध्यान एवं अर्चन । शुभ होता है । वह सात्त्विक कहा गया है, जो सभी फलोंको प्रदान करता है । यह तप इस लोकमें और परलोकमें भी मनोरथोंको सिद्ध करनेवाला है ॥ ११-१२ ॥ किसी प्रकारकी कामनाकी सिद्धिको उद्देश्य करके जो तप किया जाता है, वह राजस तप कहा जाता है । देहको सुखानेवाले और दुस्सह तपोंसे शरीरको पीड़ितकर जो तप किया जाता है, वह तामस तप कहा जाता है, वह भी मनोरथ सिद्ध करनेवाला है ॥ १३-१४ ॥ सात्त्विक तपको सर्वोत्तम जानना चाहिये । निश्चल धर्मबुद्धि, स्नान, पूजा, जप, होम, शुद्धता, शौच, अहिंसा, व्रत-उपवास, मौन, इन्द्रियनिग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य, अक्रोध, दान, क्षमा, दम, दया, बावली – कूप-बावली-कूप- सरोवर एवं प्रासादका निर्माण, कृच्छ्र, चान्द्रायण आदि व्रत, यज्ञ, श्रेष्ठ तीर्थ और आश्रमका निवास — ये सभी धर्मके स्थान हैं और बुद्धिमानोंको सुख देनेवाले हैं। हे व्यास ! इस प्रकार विषुव संक्रान्ति (मेष – तुला संक्रान्ति)- में सम्पन्न ये सद्धर्म शिवभक्तिके परम कारण हैं । किसी शब्दरहित स्थानमें उन्मनी भावसे ज्योतिका तीनों कालोंमें ध्यान करना ही धारणा है। रेचक, पूरक और कुम्भक – यह तीन प्रकारका प्राणायाम कहा गया है। प्रत्याहारद्वारा इन्द्रियोंका निरोध एवं नाड़ीसंचारका ज्ञान होता है ॥ १५ – २० ॥ यह तुरीयावस्था होती है। अणिमादि अष्टसिद्धियोंको प्राप्त करना अधोबुद्धि है। इसमें पूर्व-पूर्व उत्तम भेद कहे गये हैं, जो ज्ञानविशेषके साधन हैं । काष्ठावस्था, मृतावस्था और हरितावस्था – ये तीन अवस्थाएँ कही गयी हैं। ये अवस्थाएँ अनेक उपलब्धियोंवाली तथा सभी पापोंको विनष्ट करनेवाली हैं ॥ २१-२२ ॥ नारी, शय्या, पान, वस्त्र, धूप, सुगन्धित चन्दन आदिका लेप, ताम्बूलभक्षण, पाँच राजैश्वर्य विभूतियाँ, सुवर्णकी अधिकता, ताँबा, घर, रत्न, धेनु, वेद-शास्त्रोंका पाण्डित्य, गीत, नृत्य, आभूषण, शंख, वीणा, मृदंग, गजेन्द्र, छत्र एवं चामर—ये सभी भोगस्वरूप हैं। इनमें [ विषयोंमें] आसक्त प्राणी ही अनुरक्त होता है ॥ २३ – २५ ॥ हे मुने! ये सभी पदार्थ दर्पणमें पड़े प्रतिबिम्बके समान अवास्तविक तथा आभासमात्र हैं तथापि इनमें यथार्थबुद्धि करके संसारीपुरुष तेलके लिये तिलके समान बारंबार इस संसारचक्रमें पेरा जाता है और माया उसे अज्ञानसे मोहित कर लेती है ॥ २६ ॥ वह सब कुछ जानते हुए भी घड़ीके यन्त्रके समान स्थावर, जंगम आदि सभी योनियोंमें दुखी होकर घूमता रहता है। इस प्रकार समस्त योनियोंमें भ्रमणकर बहुत समयके बाद अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य जन्म प्राप्त करता है और कभी-कभी पुण्यकी महिमासे बीचमें ही मानवशरीर प्राप्त कर लेता है; क्योंकि कर्मोंके गौरव तथा लाघवके कारण उनकी गतियाँ बड़ी विचित्र कही गयी हैं ॥ २७–२९ ॥ जो पुरुष स्वर्ग एवं मोक्षके साधनभूत इस मनुष्यजन्मको पाकर अपना परम कल्याण नहीं करता है, वह मरनेके बाद बहुत कालतक शोक करता रहता है । सभी देवताओं एवं असुरोंके लिये भी यह मनुष्यजन्म अति दुर्लभ है। अतः उसे प्राप्त करके वैसा कर्म करना चाहिये, जिससे नरकमें न जाना पड़े ॥ ३०-३१ ॥ दुर्लभ मनुष्ययोनि प्राप्त करके यदि स्वर्ग तथा मोक्षके लिये प्रयत्न नहीं किया जाता है तो उस जन्मको व्यर्थ कहा गया है ॥ ३२ ॥ हे व्यासजी ! धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष – इन सम्पूर्ण पुरुषार्थोंका मूल मनुष्यजन्म कहा गया है, अतः मनुष्यजन्मको प्राप्तकर धर्मानुसार उसका यत्नपूर्वक पालन करते रहना चाहिये । धर्मके आधार तथा समस्त अर्थोंके साधनभूत इस मनुष्यजन्मको प्राप्त करके यदि [ परमार्थ-] लाभके लिये यत्न होता है तभी उससे मूल अर्थात् मनुष्य जीवन सुरक्षित समझना चाहिये ॥ ३३-३४ ॥ मनुष्यजन्ममें भी अति दुर्लभ ब्राह्मणत्वको पाकर जो अपना पारलौकिक कल्याण नहीं करता है, उससे अधिक जड़ और कौन है ? | सभी द्वीपोंमें यह [ भारतभूमि ही ] कर्मभूमि कही जाती है, यहींपर कर्म करके स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त किया जाता है ॥ ३५-३६ ॥ इस भारतवर्षमें अस्थिर मनुष्यजन्मको प्राप्तकर जिसने अपना कल्याण नहीं किया, उसने मानो अपनी ही आत्माको ठगा है ॥ ३७ ॥ हे विप्र ! यही कर्मभूमि और यही फलभूमि भी कही गयी है। यहाँ जो कर्म किया जाता है, उसीका फलभोग स्वर्गमें किया जाता है। जबतक शरीर स्वस्थ रहे, तबतक धर्माचरण करते रहना चाहिये; क्योंकि अस्वस्थ हो जानेपर दूसरोंके द्वारा प्रेरित किये जानेपर भी मनुष्य कुछ भी करनेमें समर्थ नहीं होता है ॥ ३८-३९ ॥ अस्थिर शरीरसे जो स्थिर [ मोक्ष] – को सिद्ध नहीं करता, उसका स्थिर [ मोक्ष] भी नष्ट हो जाता है और यह अध्रुव शरीर तो नष्ट होनेवाला ही है ॥ ४० ॥ [ मनुष्यकी ] आयुके एक-एक क्षण रात-दिनके रूपमें उसके आगे ही नष्ट होते जाते हैं, फिर भी उसे बोध क्यों नहीं होता है ? जब यह ज्ञात नहीं है कि किसकी मृत्यु कब होगी, तब सहसा मृत्यु होनेपर कौन धैर्य धारण कर सकता है ? ॥ ४१-४२ ॥ जब यह निश्चित है कि सब कुछ छोड़कर अकेले ही जाना है, तब मनुष्य जानेके समय मार्गके खर्चके लिये इस धनका दान क्यों नहीं करता ? ॥ ४३ ॥ जिसने दानफलरूप पाथेयको प्राप्त कर लिया है, वह सुखपूर्वक यमलोकको जाता है, यदि ऐसा न हुआ तो प्राणी पाथेयरहित मार्गमें दुःख प्राप्त करता है । हे व्यास ! सभी प्रकारसे जिनके पुण्य परिपूर्ण हैं, उनको स्वर्गमार्गमें जाते समय पग-पगपर लाभ होता है ॥ ४४-४५ ॥ ऐसा जानकर मनुष्यको पुण्य करते रहना चाहिये और पापको सर्वथा छोड़ देना चाहिये । पुण्यसे वह देवत्व प्राप्त करता है और पुण्यरहित होनेपर नरकको जाता है ॥ ४६ ॥ जो लोग थोड़ा भी देवेश शिवकी शरणमें चले जाते हैं, वे घोर यमको और नरकको नहीं देखते हैं, किंतु महान् व्यामोह उत्पन्न करनेवाले पापोंके कारण शिवजीकी आज्ञासे मनुष्य कुछ दिनके लिये वहाँ निवास करते हैं और उसके बाद शिवलोकमें चले जाते हैं । जो लोग सर्वभावसे महेश्वर शिवके शरणागत हैं, वे जलसे कमलपत्रकी भाँति पापसे लिप्त नहीं होते हैं ॥ ४७–४९ ॥ हे मुनिसत्तम ! जिन्होंने ‘शिव-शिव’ तथा ‘हर- हर’ इस नामका उच्चारण किया है, उन्हें नरक और यमराजसे भय नहीं होता है ॥ ५० ॥ शिव- ये दो अक्षर परलोकके लिये पाथेय, अनामय, मोक्ष – साधन एवं पुण्यसमूहका एकमात्र स्थान हैं ॥ ५१ ॥ संसाररूपी महारोगोंका नाश करनेवाला [ एकमात्र ] शिव नाम ही है। मुझे संसाररूपी रोगका नाश करनेवाला अन्य कोई उपाय नहीं दिखायी देता है ॥५२॥ प्राचीनकालमें पुल्कस हजारों ब्रह्महत्याएँ करके भी विमल शिवनामको सुनकर मुक्त हो गया । इसलिये बुद्धिमान्को चाहिये कि सदा ईश्वरके प्रति [अपनी] भक्ति बढ़ाये। हे महाप्राज्ञ ! शिवभक्तिसे प्राणी भोग तथा मोक्ष प्राप्त कर लेता है ॥ ५३-५४ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें मनुविशेषकथन नामक बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २० ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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