October 11, 2024 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण — कैलाससंहिता — अध्याय 16 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥ श्रीशिवमहापुराण कैलाससंहिता सोलहवाँ अध्याय शैवदर्शनके अनुसार शिवतत्त्व, जगत्-प्रपंच और जीवतत्त्वके विषयमें विशद विवेचन तथा शिवसे जीव और जगत् कीअभिन्नताका प्रतिपादन सूतजी बोले- गुरुके द्वारा उपदिष्ट वेदार्थको सुनकर मुनिवर वामदेव परमात्मविषयक सन्देहोंको आदरपूर्वक पूछने लगे-॥ १ ॥ वामदेवजी बोले- हे ज्ञानशक्तिके धारक ! हे स्वामिन्! हे परमानन्दविग्रह ! मैंने आपके मुखकमलसे बहते हुए प्रणवार्थरूप अमृतका पान किया। अब मेरी बुद्धि दृढ़ हो गयी और मेरा सन्देह दूर हो गया । हे महासेन! अब मैं आपसे कुछ और बात पूछना चाहता हूँ। हे प्रभो! सुनिये ॥ २-३ ॥ सदाशिवसे लेकर कीटपर्यन्त रूपवाले जगत् की स्थिति सभी जगह स्त्री – पुरुषमय दिखायी पड़ती है, इसमें सन्देह नहीं है। इस प्रकारके रूपवाले जगत् काजो सनातन कारण है, वह स्त्रीरूप है अथवा पुरुषरूप अथवा नपुंसक है अथवा मिश्रितरूप है अथवा कोई अन्यरूप है, इसका निर्णय नहीं हुआ । शास्त्रोंके सिद्धान्तसे मोहित हुए विद्वान् लोग अनेक प्रकारकी बातें कहते हैं ॥ ४-६ ॥ महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥ संसारसृष्टिका विधान करनेवाली श्रुतियाँ जगत् के साथ जिस प्रकारसे [ एकीकरणको प्राप्त होती ] हैं और जिसे ब्रह्मा, विष्णु, देवगण एवं सिद्ध भी नहीं जानते, उसे अथवा इस विषयमें अन्य जो भी बातें हैं, उन्हें आप कहें। [लोकमें] जानता हूँ, करता हूँ – इस प्रकारका व्यवहार देखा जाता है, ऐसा सर्वानुभवसिद्ध व्यवहार शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि एवं अहंकारसे उत्पन्न होता है । इसमें किसी भी तरहका विवाद नहीं है परंतु यह जगत् आत्माका ही दृष्टिगोचर होनेवाला परिणाम है, इस मतमें महान् संशय है। इस प्रकार जगत्सृष्टिके विषयमें ये दो विवादास्पद विचित्र मत [लोकमें प्रसिद्ध ] हैं ॥ ७–१० ॥ अत: आप अज्ञानसे उत्पन्न संशयरूपी इस विषवृक्षको उखाड़ दीजिये, जिससे मेरा चित्त शिवाद्वैतरूपी महान् कल्पवृक्षकी [आधार ] भूमि हो जाय । हे देव ! आप मुझपर कृपा करके इस प्रकारका ज्ञान दीजिये कि हे देवेश ! मैं आपके अनुग्रहसे दृढ़ ज्ञानी हो जाऊँ ॥ ११-१२ ॥ सूतजी बोले- इस प्रकार मुनिद्वारा पूछे गये वेदान्तगर्भित रहस्यमय वचनको सुनकर मन्द हास्ययुक्त मुखवाले प्रभु कहने लगे — ॥ १३ ॥ सुब्रह्मण्य बोले – हे मुने! इसी गुह्य तत्त्वको सदाशिवने कहा है । हे वामदेव ! जब वे देवी अम्बासे ! कह रहे थे, उस समय मैं उनका दूध पीकर अत्यन्त तृप्त हो रहा था। उस समय उनके निश्चल विचारको मैंने [स्वस्थचित्त हो] बार-बार सुना और उसपर विचारपूर्वक निश्चय किया। हे वामदेव ! हे महामुने ! मैं उसीको आपसे दयापूर्वक कह रहा हूँ, हे पुत्र ! इस समय आप उस परम गोपनीय श्रेष्ठ रहस्यको सुनिये ॥ १४–१६ ॥ हे मुने ! कर्मास्तितत्त्वसे लेकर जो विस्तृत शास्त्रवाद है अर्थात् कर्मसत्ता प्रतिपादक कर्मफलवादसे आरम्भ करके शास्त्रोंमें विविध विषयोंका जो विशद विवेचन है, उसे विचारवान् पुरुषको विवेकपूर्वक सुनना चाहिये, क्योंकि वह ज्ञान देनेवाला है ॥ १७ ॥ आपने जिन शिष्योंको उपदेश दिया है, उनमें आपके समान कौन है? वे अधम आज भी [ अनीश्वरवादी ] कपिल आदिके शास्त्रोंमें भटक रहे हैं। शिवकी निन्दा करनेवाले वे पहले ही छः मुनियोंके द्वारा शापित हुए हैं, वे अन्यथावादी हैं, अतः उनकी बात नहीं सुननी चाहिये ॥ १८-१९ ॥ जिस प्रकार ईश्वरके विषयमें नैयायिक लोग पंचावयव वाक्य [रूपा अनुमिति – प्रक्रिया ] – का प्रयोगकर धूमदर्शन [- रूपलिंग ]- से अग्निको अनुमानके द्वारा सिद्ध करते हैं, उसी प्रकार यहाँ भी अनुमान प्रयोगका अवकाश तो है ही, इस प्रत्यक्ष प्रपंचके दर्शनरूप हेतुका अवलम्बन करके भी परमेश्वर परमात्माको निस्सन्देह जाना जा सकता है । स्त्री – पुरुषरूप यह विश्व प्रत्यक्ष ही दिखायी पड़ता है ॥ २० -२२ ॥ छः कोशवाले इस शरीरमें प्रथम तीन कोश माताके अंशसे तथा अन्य तीन कोश पिताके अंशसे उत्पन्न होते हैं, ऐसा श्रुतिका कथन है । हे मुने ! इस प्रकार सभी शरीरोंमें स्त्री-पुरुषभावको जाननेवाले विद्वज्जन परमात्मामें भी स्त्री – पुरुषभावको जानते हैं ॥ २३-२४ ॥ श्रुति ब्रह्मके सच्चिदानन्दस्वरूपका प्रतिपादन करती है, इसमें आत्मवाचक सत् शब्दसे असत् की निवृत्ति हो जाती है। ‘चित्’ शब्द जडत्वका निवर्तक है । यद्यपि ‘सत्’ शब्द तीनों लिंगोंमें गृहीत होता है तथापि यहाँ परब्रह्म परमात्माके अर्थमें पुल्लिंग ‘सत्’ शब्द ही ग्रहण करनेयोग्य है ॥ २५-२६ ॥ उस ‘सत्’ शब्दसे प्रकाशका बोध होता है- यह बात स्पष्ट ही है। (प्रकाशके पुल्लिंग होनेसे सत् शब्द ही पुल्लिंगरूपसे ब्रह्मके लिये व्यवहृत होता है ।) ‘चित्’ शब्द ज्ञानवाचक या कि चेतनार्थक है, जो स्त्रीलिंग है अर्थात् परमात्मामें चिद्रूपता उसके स्त्रीभावको सूचित करती है ॥ २७ ॥ प्रकाश पुल्लिंग और चित् चेतना – ये दोनों ही सम्मिलित रूपसे जगत् की उत्पत्तिमें कारण हैं । इसी प्रकार सच्चिदात्मामें जगत् की कारणता प्राप्त होनेमें एकमात्र परमात्मामें ही शिवभाव तथा शक्ति- भावका भेद किया जाता है । तेल और बत्तीके मलिन होनेसे प्रकाश भी मलिन अर्थात् मन्द हो जाता है ॥ २८-२९ ॥ मलिनता और अशिवता दोनों ही चिताकी अग्नि आदिमें देखी जाती हैं, परंतु ये आरोपित हैं, इस आरोपका निवर्तक होनेके कारण वेदोंमें [परमात्माके] शिवत्वका प्रतिपादन किया गया है। यही चित् शक्ति जब जीवोंके आश्रित होती है, तब वह दुर्बल हो जाती है, उसकी निवृत्तिके लिये ही इन (परमात्मामें ) सार्वकालिक चित् शक्ति विद्यमान है, अतः परमात्मा ही बलवान् तथा शक्तिमान् है – [लोकमें] ऐसा व्यवहार देखा जाता है ॥ ३०–३११/२ ॥ हे वामदेव ! हे महामुने ! इस प्रकार लोक तथा वेदमें सदा ही परमात्मामें शिवत्व और शक्तित्व दिखाया गया है। शिव तथा शक्तिके संयोगसे ही सदा आनन्द उदित होता है ॥ ३२-३३ ॥ अतः हे मुने! निष्पाप मुनिगण उन शिवको उद्देश्य करके शिवमें मन लगाकर अनामय शिवको प्राप्त हुए हैं । उन शिव और शक्तिको उपनिषदोंमें सर्वात्मा तथा ब्रह्म कहा गया है। ब्रह्म शब्दसे ही बृंहि धात्वर्थरूप व्यापकता तथा सर्वात्मकताका प्रतिपादन होता है ॥ ३४-३५ ॥ शम्भु नामक विग्रहमें बृंहणत्व तथा बृहत्त्व (व्यापकता एवं विशालता) सदा ही विद्यमान है । ( सद्योजातादि) पंचब्रह्ममय शिवविग्रहमें विद्यमान विश्वप्रतीति ‘ब्रह्म’ शब्दसे व्यवहृत होती है ॥ ३६ ॥ वामदेव ! अब मैं आपके स्नेहवश ‘हंस’ इस पदमें स्थित इसके प्रतिलोमात्मक प्रणव मन्त्रका उद्भव कहता हूँ, आप सावधानीपूर्वक सुनें । हंस – इस मन्त्रका प्रतिलोम करनेपर ‘सोऽहम् ‘ ( पद सिद्ध होता है | ) इसके सकार एवं हकार – इन दो वर्णोंका लोप कर देनेपर स्थूल ओंकारमात्र शेष रहता है, यही शब्द परमात्माका वाचक है। तत्त्वदर्शी महर्षियोंके अनुसार उसे महामन्त्र समझना चाहिये । अब मैं सूक्ष्म महामन्त्रका उद्धार आपसे कह रहा हूँ ॥ ३७–३९ ॥ [ हंसः – इस पदमें तीन अक्षर हैं – ह्, अ, स ।] इनमें आदिस्वर ‘अ’ पन्द्रहवें (अनुस्वार) और सोलहवें [विसर्ग] के साथ है । सकारके साथवाला ‘अ’ विसर्गसहित है। यदि वह सकारके साथ ‘हं’ के आदिमें चला जाय तो सोऽहम् यह महामन्त्र हो जायगा ॥ ४० ॥ हंसका प्रतिलोम कर देनेपर ‘सोऽहम्’ यह महामन्त्र सिद्ध होता है, जिसमें सकारका अर्थ शिव कहा गया है । वे शिव ही शक्त्यात्मक महामन्त्रके वाच्यार्थ हैं— ऐसा ही निर्णय है ॥ ४१ ॥ गुरुके द्वारा उपदेशके समय ‘सोऽहम् ‘ – इस पदसे उसको शक्त्यात्मक शिवका बोध कराना ही अभीष्ट * होता है । अर्थात् वह यह अनुभव करे कि मैं शक्त्यात्मक शिवरूप हूँ। इस प्रकार जब यह महामन्त्र जीवपरक होता है अर्थात् जीवकी शिवरूपताका बोध कराता है तब पशु (जीव) अपनेको शक्त्यात्मक एवं शिवांश जानकर शिवके साथ अपनी एकता सिद्ध हो जानेसे शिवकी समताका भागी हो जाता है ॥ ४२१/२ ॥ ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ – इस ब्रह्मवाक्यमें प्रज्ञानका अर्थ इस प्रकार दिखायी देता है । प्रज्ञान शब्द चैतन्यका पर्याय है, इसमें सन्देह नहीं है। इसीलिये हे मुने! ‘चैतन्यमात्मा’ (अर्थात् आत्मा चैतन्यरूप है) यह शिवसूत्र कहा गया है ॥ ४३-४४ ॥ अब श्रुतिके ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ इस वाक्यमें जो ‘प्रज्ञानम्’ पद आया है, उसके अर्थको दिखाया जा रहा है। ‘प्रज्ञान’ शब्द ‘चैतन्य’ का पर्याय है, इसमें संशय नहीं है। मुने! शिवसूत्रमें यह कहा गया है कि ‘चैतन्यम् आत्मा’ अर्थात् आत्मा (ब्रह्म या परमात्मा ) चैतन्यरूप है । चैतन्य शब्दसे यह सूचित होता है कि जिसमें विश्वका सम्पूर्ण ज्ञान तथा स्वतन्त्रतापूर्वक जगत् के निर्माणकी क्रिया स्वभावतः विद्यमान है, उसीको आत्मा या परमात्मा कहा गया है। इस प्रकार मैंने यहाँ शिवसूत्रोंकी ही व्याख्या की है ॥ ४५१ / २ ॥ ‘ज्ञानं बन्धः ‘ यह दूसरा शिवसूत्र है । इसमें पशुवर्ग (जीवसमुदाय) – का लक्षण बताया गया है। इस सूत्रमें आदि पद ‘ज्ञानम्’ के द्वारा किंचिन्मात्र ज्ञान और क्रियाका होना ही जीवका लक्षण कहा गया है। यह ज्ञान और क्रिया पराशक्तिका प्रथम स्पन्दन है | कृष्ण यजुर्वेदकी श्वेताश्वतर शाखाका अध्ययन करनेवाले विद्वानोंने ‘स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च ‘ * इस श्रुतिके द्वारा इसी पराशक्तिका प्रसन्नतापूर्वक स्तवन किया है । भगवान् शंकरकी तीन दृष्टियाँ मानी गयी हैं – ज्ञान, क्रिया और इच्छारूप। ये तीनों दृष्टियाँ जीवके मनमें स्थित हो अर्थात् इन्द्रियज्ञानगोचर देहमें प्रवेश करके जीवरूप हो सदा जानती और करती हैं । अतः यह दृष्टित्रयरूप जीव आत्मा (महेश्वर) – का स्वरूप ही है, ऐसा निश्चित सिद्धान्त है ॥ ४६-५०१ / २ ॥ अब मैं जगत् प्रपंच के साथ प्रणवकी एकताका बोध करानेवाले प्रपंचार्थका वर्णन करूँगा । ‘ओमितीदं सर्वम्’ (तैत्तिरीय० १।८।१) अर्थात् यह प्रत्यक्ष दिखायी देनेवाला समस्त जगत् ओंकार है – यह सनातन श्रुतिका कथन है। इससे प्रणव और जगत् की एकता सूचित होती है। ‘तस्माद्वा’ ( तैत्तिरीय० २ । १) इस वाक्यसे आरम्भ करके तैत्तिरीय श्रुतिने संसारकी सृष्टिके क्रमका वर्णन किया है। वामदेव! उस श्रुतिका जो विवेकपूर्ण तात्पर्य है, उसे मैं तुम्हारे स्नेहवश बता रहा हूँ, सुनो ॥ ५१-५३ ॥ शिवशक्तिका संयोग ही परमात्मा है, यह ज्ञानी पुरुषोंका निश्चित मत है । शिवकी जो पराशक्ति है, उससे चिच्छक्ति प्रकट होती है। चिच्छक्तिसे आनन्दशक्तिका प्रादुर्भाव होता है, आनन्दशक्तिसे इच्छाशक्तिका उद्भव हुआ है, इच्छाशक्तिसे ज्ञानशक्ति और ज्ञानशक्तिसे पाँचवीं क्रियाशक्ति प्रकट हुई है ॥ ५४ १ / २ ॥ मुने! इन्हींसे निवृत्ति आदि कलाएँ उत्पन्न हुई हैं। चिच्छक्तिसे नाद और आनन्दशक्तिसे बिन्दुका प्राकट्य बताया गया है। इच्छाशक्तिसे मकार प्रकट हुआ है। ज्ञानशक्तिसे पाँचवाँ स्वर उकार उत्पन्न हुआ है और क्रियाशक्तिसे अकारकी उत्पत्ति हुई है । मुनीश्वर ! इस प्रकार मैंने तुम्हें प्रणवकी उत्पत्ति बतलायी है। अब ईशानादि पंच ब्रह्मकी उत्पत्तिका वर्णन सुनो ॥ ५५–५७ ॥ शिवसे ईशान उत्पन्न हुए हैं, ईशानसे तत्पुरुषका प्रादुर्भाव हुआ है, तत्पुरुषसे अघोरका, अघोरसे वामदेवका और वामदेवसे सद्योजातका प्राकट्य हुआ है। इस आदि अक्षर प्रणवसे ही मूलभूत पाँच स्वर और तैंतीस व्यंजनके रूपमें अड़तीस अक्षरोंका प्रादुर्भाव हुआ है ॥ ५८ १ / २ ॥ अब कलाओंकी उत्पत्तिका क्रम सुनो। ईशानसे शान्त्यतीताकला उत्पन्न हुई है । तत्पुरुषसे शान्तिकला, अघोरसे विद्याकला, वामदेवसे प्रतिष्ठाकला और सद्योजातसे निवृत्तिकलाकी उत्पत्ति हुई है। ईशानसे चिच्छक्तिद्वारा मिथुनपंचककी उत्पत्ति होती है। अनुग्रह, तिरोभाव, संहार, स्थिति और सृष्टि-इन पाँच कृत्योंका हेतु होनेके कारण उसे पंचक कहते हैं। यह बात तत्त्वदर्शी ज्ञानी मुनियोंने कही है ॥ ५९–६१ ॥ वाच्य-वाचकके सम्बन्धसे उनमें मिथुनत्वकी प्राप्ति हुई है। कला वर्णस्वरूप इस पंचकमें भूतपंचककी गणना है। मुनिश्रेष्ठ ! आकाशादिके क्रमसे इन पाँचों मिथुनोंकी उत्पत्ति हुई है। इनमें पहला मिथुन है आकाश, दूसरा वायु, तीसरा अग्नि, चौथा जल और पाँचवाँ मिथुन पृथ्वी है ॥ ६२-६३ ॥ [इनमें आकाशसे लेकर पृथ्वीतकके भूतोंका जैसा स्वरूप बताया गया है, उसे सुनो।] आकाशमें एकमात्र शब्द ही गुण है; वायुमें शब्द और स्पर्श दो गुण हैं; अग्निमें शब्द, स्पर्श और रूप- इन तीन गुणोंकी प्रधानता है; जलमें शब्द, स्पर्श, रूप और रस- ये चार गुण माने गये हैं तथा पृथ्वी शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध – इन पाँच गुणोंसे सम्पन्न है। यही भूतोंका व्यापकत्व कहा गया अर्थात् शब्दादि गुणोंद्वारा आकाशादि भूत वायु आदि परवर्ती भूतोंमें किस प्रकार व्यापक हैं, यह दिखाया गया है। इसके विपरीत गन्धादि गुणोंके क्रमसे वे भूत पूर्ववर्ती भूतोंसे व्याप्य हैं अर्थात् गन्ध गुणवाली पृथ्वी जलका और रसगुणवाला जल अग्निका व्याप्य है, इत्यादि रूपसे इनकी व्याप्यताको समझना चाहिये ॥ ६४-६६ ॥ पाँच भूतोंका यह विस्तार ही ‘प्रपंच’ कहलाता है । सर्वसमष्टिका जो आत्मा है, उसीका नाम ‘विराट् ‘ है और पृथ्वीतत्त्वसे लेकर क्रमशः शिवतत्त्वतक जो तत्त्वोंका समुदाय है, वही ‘ब्रह्माण्ड’ है। वह क्रमशः तत्त्वसमूहमें लीन होता हुआ अन्ततोगत्वा सबके जीवनभूत चैतन्यमय परमेश्वरमें ही लयको प्राप्त होता है और सृष्टिकालमें फिर शक्तिद्वारा शिवसे निकलकर स्थूल प्रपंचके रूपमें प्रलय – कालपर्यन्त सुखपूर्वक स्थित रहता है ॥ ६७–६९ ॥ अपनी इच्छासे संसारकी सृष्टिके लिये उद्यत हुए महेश्वरका जो प्रथम परिस्पन्द है, उसे ‘शिवतत्त्व’ कहते हैं। यही इच्छाशक्ति-तत्त्व है; क्योंकि सम्पूर्ण कृत्योंमें इसीका अनुवर्तन होता है ॥ ७० १ / २ ॥ मुनीश्वर ! ज्ञान और क्रिया- इन दो शक्तियोंमें जब ज्ञानका आधिक्य हो, तब उसे सदाशिवतत्त्व समझना चाहिये; जब क्रिया-शक्तिका उद्रेक हो तब उसे महेश्वरतत्त्व जानना चाहिये तथा जब ज्ञान और क्रिया दोनों शक्तियाँ समान हों तब वहाँ शुद्ध विद्यात्मक तत्त्व समझना चाहिये ॥ ७१-७२ ॥ समस्त भाव-पदार्थ परमेश्वरके अंगभूत ही हैं; तथापि उनमें जो भेदबुद्धि होती है, उसका नाम माया- तत्त्व है। जब शिव अपने परम ऐश्वर्यशाली रूपको मायासे निगृहीत करके सम्पूर्ण पदार्थोंको ग्रहण करने लगते हैं, तब उनका नाम ‘पुरुष’ होता है । ‘तत्सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशत् ‘ ( उस शरीरको रचकर स्वयं उसमें प्रविष्ट हुआ) इस श्रुतिने उनके इसी स्वरूपका प्रतिपादन किया है अथवा इसी तत्त्वका प्रतिपादन करनेके लिये उक्त श्रुतिका प्रादुर्भाव हुआ है ॥ ७३-७४ ॥ यही पुरुष मायासे मोहित होकर संसारी (संसारबन्धनमें बँधा हुआ) पशु कहलाता है । शिवतत्त्वके ज्ञानसे शून्य होनेके कारण उसकी बुद्धि नाना कर्मोंमें आसक्त हो मूढ़ताको प्राप्त हो जाती है । वह जगत्को शिवसे अभिन्न नहीं जानता तथा अपनेको भी शिवसे भिन्न ही समझता है। प्रभो ! यदि शिवसे अपनी तथा जगत् की अभिन्नताका बोध हो जाय तो इस पशु (जीव) – को मोहका बन्धन न प्राप्त हो। जैसे इन्द्रजाल-विद्याके ज्ञाता ( बाजीगर ) – को अपनी रची हुई अद्भुत वस्तुओंके विषयमें मोह या भ्रम नहीं होता है, उसी प्रकार ज्ञानयोगीको भी नहीं होता । गुरुके उपदेशद्वारा अपने ऐश्वर्यका बोध प्राप्त हो जानेपर वह चिदानन्दघन शिवरूप ही हो जाता है ॥ ७५–७७ ॥ शिवकी पाँच शक्तियाँ हैं – १ – सर्व-कर्तृत्वरूपा, २-सर्वतत्त्वरूपा, ३- पूर्णत्वरूपा, ४- नित्यत्वरूपा और ५-व्यापकत्वरूपा। ये शक्तियाँ सूर्यके समान अपने स्वरूपको संकुचित करनेमें भी समर्थ हैं । संकुचित होनेपर भी ये सदैव भासित होती रहती हैं ॥ ७८-७९ ॥ जीवकी पाँच कलाएँ हैं – १ – कला, २ – विद्या, ३- राग, ४-काल और ५ – नियति । इन्हें कलापंचक कहते हैं। जो यहाँ पाँच तत्त्वोंके रूपमें प्रकट होती है, उसका नाम ‘कला’ है। जो कुछ-कुछ कर्तृत्वमें हेतु बनती है और कुछ तत्त्वका साधन होती है, उस कलाका नाम ‘विद्या’ है। जो विषयोंमें आसक्ति पैदा करनेवाली है, उस कलाका नाम ‘राग’ है ॥ ८०-८१ ॥ जो भाव पदार्थों और प्रकाशोंका भासनात्मकरूपसे क्रमशः अवच्छेदक होकर सम्पूर्ण भूतोंका आदि कहलाता है, वही ‘काल’ है। यह मेरा कर्तव्य है और यह नहीं है—इस प्रकार नियन्त्रण करनेवाली जो विभुकी शक्ति है, उसका नाम ‘नियति’ है। उसके आक्षेपसे जीवका पतन होता है। ये पाँचों ही जीवके स्वरूपको आच्छादित करनेवाले आवरण हैं। इसलिये ‘पंचकंचुक ‘ कहे गये हैं। इनके निवारणके लिये अन्तरंग साधनकी आवश्यकता है ॥ ८२–८४ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत छठी कैलाससंहितामें शिवतत्त्ववर्णन नामक सोलहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १६ ॥ * यह श्रुति श्वेताश्वतरोपनिषद् ( ६ । ८ ) की है । इसका पूरा पाठ इस प्रकार है- न तस्य कार्यं करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते । परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च ॥ अर्थात्- देह और इन्द्रियसे उनका है सम्बन्ध नहीं कोई । अधिक कहाँ, उनके सम भी तो दीख रहा न कहीं कोई ॥ ज्ञानरूप, बलरूप, क्रियामय उनकी पराशक्ति भारी । विविध रूपमें सुनी गयी है, स्वाभाविक उनमें सारी ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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