शिवमहापुराण — कैलाससंहिता — अध्याय 17
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
कैलाससंहिता
सत्रहवाँ अध्याय
अद्वैत शैववाद एवं सृष्टिप्रक्रियाका प्रतिपादन

वामदेवजी बोले- हे भगवन्! आपने पहले कहा कि प्रकृतिके नीचे नियति और ऊपर पुरुष है, अब आप अन्यथा कैसे कह रहे हैं ? हे प्रभो ! मायासे जिसका स्वरूप ढका हुआ है, उस जीवरूप पुरुषको तो मायासे नीचे होना चाहिये । हे नाथ! आप मेरा यह सन्देह तत्त्वतः दूर कीजिये ॥ १-२॥

सुब्रह्मण्य बोले— यह अद्वैत शैववाद है, जो किसी भी प्रकार द्वैतमतको स्वीकार नहीं करता है; क्योंकि द्वैत नश्वर है और अद्वैत अविनाशी परब्रह्म है । शिवजी सर्वज्ञ, सर्वकर्ता, सर्वेश्वर, निर्गुण, त्रिदेवोंके जनक, ब्रह्म एवं सच्चिदानन्द स्वरूपवाले हैं ॥ ३-४ ॥ वही महादेव शंकर अपनी इच्छासे तथा अपनी मायासे संकुचितरूप धारणकर पुरुषरूप हो गये ॥ ५ ॥ कलादि पंचकंचुकके कारण यह पुरुष भोक्ता बनता है तथा प्रकृतिमें रहकर प्रकृतिके गुणोंको भोगता है । इस प्रकार दोनों स्थानमें स्थित होनेपर भी पुरुषका प्रकृतिसे कोई विरोध नहीं है, क्योंकि वह अपने रूपको संकुचित करनेपर भी ज्ञानरूपसे समष्टिमें स्थित है ॥ ६-७ ॥ वह सत्त्व गुणोंसे साध्य है एवं बुद्धि आदि त्रितयसे युक्त है, सत्त्व आदि गुणोंके कारण वह चित्- प्रकृतितत्त्व भी है। सात्त्विक आदि भेदसे तीनों गुण प्रकृतिसे उत्पन्न हुए हैं, इन्हीं गुणोंसे वस्तुका निश्चय करानेवाली बुद्धि उत्पन्न हुई है। उस बुद्धिसे महान्, महान्से अहंकार, अहंकारसे ज्ञानेन्द्रियाँ उत्पन्न हुई हैं, [उसी तैजस अहंकारसे मन भी उत्पन्न हुआ है । ] मनका रूप संकल्प-विकल्पात्मक है ॥ ८-१० ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, जिह्वा और नासिका—ये ज्ञानेन्द्रियाँ हैं । शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये श्रोत्र आदिके क्रमसे ज्ञानेन्द्रियोंके गुण कहे गये हैं । वैकारिक अहंकारसे क्रमशः तन्मात्राएँ उत्पन्न होती हैं ॥ ११- १२ ॥ तत्त्वद्रष्टा मुनियोंने उन तन्मात्राओंको सूक्ष्म [ भूत] कहा है। कर्मेन्द्रियोंको उनके कार्योंके सहित समझना चाहिये। हे विप्रर्षे! वे वाणी, हाथ, पैर, पायु और उपस्थ हैं; उनके कार्य बोलना, ग्रहण करना, चलना, मलत्याग तथा आनन्द लेना है। भूतादि अहंकारसे क्रमश: तन्मात्राओंकी उत्पत्ति हुई है, उन्हीं सूक्ष्मभूतोंको शब्दादि सूक्ष्म तन्मात्रा कहा जाता है ॥ १३–१५ ॥ उन्हींसे क्रमशः आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वीकी उत्पत्ति जाननी चाहिये । हे मुनिशार्दूल ! इन्हें ही पंचभूत भी कहा जाता है । अवकाश प्रदान करना, वहन करना, पकाना, वेग एवं धारण करना – ये उनके कार्य कहे गये हैं ॥ १६-१७ ॥

वामदेवजी बोले – हे स्कन्द ! आपने पहले कलाओंसे भूतसृष्टि कही थी, किंतु अब आप इसके विपरीत क्यों कह रहे हैं, इस विषयमें मुझे महान् सन्देह हो रहा है। आपने कहा था ‘हे वामदेव ! अकार आत्मतत्त्व है, उकार विद्यातत्त्व है, मकार शिवतत्त्व है, ऐसा समझना चाहिये। बिन्दु – नादको सर्वतत्त्वार्थक जानना चाहिये। हे मुने! उसके जो देवता हैं, उन्हें अब सुनिये। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, महेश्वर और सदाशिव – ये सभी साक्षात् शिवकी ही मूर्तियाँ हैं, जो श्रुतिमें कही गयी हैं’ – ऐसा आपने पहले कहा था, किंतु अब उसके विपरीत कह रहे हैं कि ये तन्मात्राओंसे होती हैं, मुझे इस विषयमें महान् सन्देह है । हे स्कन्दजी ! आप दया करके इस सन्देहको दूर कीजिये । मुनिका यह वचन सुनकर कुमार कहने लगे – ॥ १८-२३ ॥

श्रीसुब्रह्मण्य बोले – हे मुने! हे महाप्राज्ञ ! ‘तस्माद्वा’ इस श्रुतिसे प्रारम्भकर भूतसृष्टिक्रमको मैं कह रहा हूँ, उसे सावधान होकर आदरपूर्वक सुनें ॥ २४ ॥ कलाओंसे पंचमहाभूत उत्पन्न हुए हैं । यह तो निश्चित ही है। अतः स्थूल प्रपंचरूप वे पंचमहाभूत शिवजीके शरीर हैं । शिवतत्त्वसे लेकर पृथ्वीतत्त्वपर्यन्त सभी तत्त्व क्रमसे तन्मात्राओं द्वारा उत्पन्न होते हैं । हे मुने ! अब मैं क्रमसे उन्हीं तत्त्वोंको कहूँगा ॥ २५-२६ ॥ सभी भूतोंके जो कारण हैं, वे कला तथा तन्मात्राएँ एक ही वस्तु हैं। हे ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ! इनमें विरोध मत समझिये ॥ २७ ॥

इस स्थूल सूक्ष्मात्मक संसारमें नक्षत्रोंके सहित सूर्य, चन्द्रादि ग्रह तथा अन्य ज्योतिर्गण उत्पन्न हुए हैं । ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वरादि देवता, समस्त भूतसमुदाय, इन्द्रादि दिक्पाल, देवता, पितर, असुर, राक्षस, मनुष्य एवं अन्य प्रकारके जंगम प्राणी, पशु, पक्षी, कीट, पन्नग (सर्प) आदि नाम भेदवाले जीव, वृक्ष, गुल्म, लता, औषधि, पर्वत, गंगा आदि आठ प्रसिद्ध नदियाँ तथा महान् ऋद्धिसम्पन्न सात समुद्र और जो कुछ भी वस्तुएँ हैं, वे सब इसीमें प्रतिष्ठित हैं, बाहर नहीं, हे मुनिश्रेष्ठ ! इसे बुद्धिसे विचार करना चाहिये ॥ २८ – ३२ ॥ शिवज्ञानविशारद आप-जैसे बुद्धिमानोंको इसीकी उपासना करनी चाहिये; क्योंकि यह सारा स्त्री – पुरुषरूप विश्व शिवशक्तिस्वरूप है ॥ ३३ ॥
हे मुने ! यह सब ब्रह्म है, यह सब रुद्र है – ऐसा मानकर उपासना करनी चा

ये – श्रुति ऐसा कहती है तथा इसीलिये सदाशिव इस प्रपंचकी आत्मा कहे जाते हैं ॥ ३४ ॥ अड़तीस कलाओंके न्याससम्पादनमें जो समर्थ हैं तथा ‘मैं सदा शिवसे सर्वथा अभिन्न हूँ’, ऐसी अद्वैत भावनासे युक्त जो गुरु हैं, वे साक्षात् सदाशिव ही हैं तथा शिवस्वरूप गुरु ही प्रपंच, देवता, यन्त्र तथा मन्त्रस्वरूप भी हैं, इसमें संशय नहीं है। इस प्रकारसे विचार करनेवाला वह श्रेष्ठ शिष्य गुरुकी भाँति शिवस्वरूप हो जाता है ॥ ३५-३६ ॥ हे विप्र ! आचार्यकी कृपासे सभी बन्धनोंसे मुक्त होकर शिवजीके चरणोंमें आसक्त हुआ शिष्य निश्चित रूपसे महान् आत्मावाला हो जाता है ॥ ३७ ॥

[इस जगत् में] जो भी वस्तु है, वह सब गुणोंकी प्रधानताके कारण समष्टि और व्यष्टिरूपसे प्रणवके ही अर्थको कहती है । रागादि दोषोंसे रहित, वेदोंका सारस्वरूप, शिवप्रिय तथा शिवजीद्वारा कथित यह अद्वैतज्ञान मैंने आपसे प्रेमपूर्वक कह दिया ॥ ३८-३९ ॥ जो अहंकारमें भरकर मेरी बातको मिथ्या कहेगा, वह देवता, दानव, सिद्ध, गन्धर्व अथवा मनुष्य कोई भी हो, मैं अवश्य ही उस दुरात्माका सिर शत्रुओंके लिये कालाग्निके समान अपनी महान् शक्तिसे काट दूँगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४०-४१ ॥ हे मुने! आप तो साक्षात् शैवाद्वैतवेत्ताओंमें सर्वश्रेष्ठ हैं और शिवज्ञानके उपदेश [करनेमें कुशल] तथा शिवाचारके प्रदर्शक हैं, जिन आपके देहकी भस्मके स्पर्शमात्रसे अपवित्र महापिशाचने भी पापराशिको ध्वस्तकर आपकी कृपासे सद्गतिको प्राप्त किया था ‘स्कन्दपुराणके ब्राह्मखण्डान्तर्गत ब्रह्मोत्तर नामक उपखण्डके पन्द्रहवें अध्यायमें भस्ममाहात्म्यके प्रसंगमें यह कथा आयी है ।॥ ४२-४३ ॥

त्रैलोक्यका ऐश्वर्य धारण करनेवाले आप शिवयोगी कहे जाते हैं। आपकी कृपादृष्टिके पड़ते ही पशु भी पशुपति अर्थात् साक्षात् शिव हो जाता है । आपने जो आदरपूर्वक मुझसे प्रश्न किया, वह तो केवल लोकशिक्षाके लिये किया; क्योंकि साधुलोग लोकोपकारके लिये ही इस लोकमें विचरण करते हैं ॥ ४४-४५ ॥ यह परम रहस्य सदा आपमें प्रतिष्ठित है ही, अत: आप श्रद्धा एवं भक्तिभावसे आदरपूर्वक अपने मनको प्रणवमें लगाकर उन संसारी जीवोंको परमेश्वरमें युक्त करके उन्हें भस्म और रुद्राक्षमाला [ धारण-विधिके उपदेश ] सहित शिवाचारकी शिक्षा प्रदान करें ॥ ४६-४७॥
आप कल्याणमय हैं, शैवोचित आचरण करते हैं और अद्वैत भावनाको प्राप्त हैं, अतः लोकरक्षाहेतु विचरण करते हुए आप अक्षय सुख प्राप्त करें ॥ ४८ ॥

सूतजी बोले- स्कन्दजीद्वारा कथित इस अद्भुत वेदान्तनिष्ठित मतको सुनकर महर्षि वामदेव विनम्र हो कार्तिकेयको पृथ्वीपर बार-बार दण्डवत् प्रणामकर उनके चरणकमलके मकरन्दका भ्रमरके समान आस्वादन करते हुए तत्त्वज्ञ हो गये ॥ ४९ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत छठी कैलाससंहितामें शिवाद्वैतज्ञानकथनादिसृष्टिकथन नामक सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १७ ॥

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