October 11, 2024 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण — कैलाससंहिता — अध्याय 23 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥ श्रीशिवमहापुराण कैलाससंहिता तेईसवाँ अध्याय यतिके द्वादशाह – कृत्यका वर्णन, स्कन्द और वामदेवका कैलासपर्वतपर जाना तथा सूतजीके द्वारा इस संहिताका उपसंहार स्कन्दजी बोले – [ वामदेव !] बारहवें दिन प्रातःकाल उठकर श्राद्धकर्ता पुरुष स्नान और नित्यकर्म करके शिवभक्तों, यतियों अथवा शिवके प्रति प्रेम रखनेवाले ब्राह्मणोंको * निमन्त्रित करे । मध्याह्नकालमें स्नान करके पवित्र हुए उन ब्राह्मणोंको बुलाकर भक्तिभावसे विधिपूर्वक भाँति-भाँतिके स्वादिष्ट अन्नका भोजन कराये ॥ १-२ ॥ फिर परमेश्वरके निकट बिठाकर पंचावरण-पद्धतिसे उनका पूजन करे । तत्पश्चात् मौनभावसे प्राणायाम करके [देश-काल आदिके कीर्तनपूर्वक] महान् संकल्पकी प्रणालीके अनुसार संकल्प करते हुए – अस्मद्गुरोरिह पूजां करिष्ये (मैं अपने गुरुकी यहाँ पूजा करूँगा) ‘ ऐसा कहकर कुशोंका स्पर्श करे ॥ ३-४ ॥ फिर ब्राह्मणोंके पैर धोकर आचमन करके श्राद्धकर्ता मौन रहे और भस्मसे विभूषित उन ब्राह्मणोंको पूर्वाभिमुख आसनपर बिठाये । वहाँ सदाशिव आदिके क्रमसे उन आठ ब्राह्मणोंका बड़े आदरके साथ चिन्तन करे अर्थात् उन्हें सदाशिव आदिका स्वरूप माने । मुने! अन्य [चार] ब्राह्मणोंका भी [ चार गुरुओंके रूपमें] चिन्तन करे ॥ ५-६ ॥ महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥ चारों गुरु ये हैं – गुरु, परम गुरु, परात्पर गुरु और परमेष्ठी गुरु । परमेष्ठी गुरुका उनमें उमासहित महेश्वरकी भावना करते हुए चिन्तन करे । अपने गुरुका नाम लेकर ध्यान करे | उन सबके लिये ‘इदमासनम्’ ऐसा कहकर पृथक्-पृथक् आसन रखे। आदिमें प्रणव, बीचमें द्वितीयान्त गुरु तथा अन्तमें ‘आवाहयामि नमः’ बोलकर आवाहन करे । यथा – ॐ अमुकनामानं गुरुम् आवाहयामि नमः । ॐ परमगुरुम् आवाहयामि नमः । ॐ परात्परगुरुम् आवाहयामि नमः । ॐ परमेष्ठिगुरुम् आवाहयामि नमः । इस प्रकार आवाहन करके अर्धोदक (अर्धेमें रखे हुए जल) – से पाद्य, आचमन और अर्घ्य निवेदन करे । फिर वस्त्र, गन्ध और अक्षत देकर ‘ॐ गुरवे नमः इत्यादि रूपसे गुरुओंको तथा ‘ॐ सदाशिवाय नमः ‘ इत्यादि रूपसे आठ नामोंके उच्चारणपूर्वक आठ अन्य ब्राह्मणोंको सुगन्धित फूलोंसे अलंकृत करे ॥ ७–१० ॥ तत्पश्चात् धूप, दीप देकर ‘कृतमिदं सकलमाराधनं सम्पूर्णमस्तु (की गयी यह सारी आराधना पूर्णरूपसे सफल हो)’ ऐसा कहकर खड़ा हो नमस्कार करे ॥ ११ ॥ इसके बाद केलेके पत्तोंको पात्ररूपमें बिछाकर जलसे शुद्ध करके उनपर शुद्ध अन्न, खीर, पूआ, दाल और साग आदि व्यंजन परोसकर केलेके फल, नारियल और गुड़ भी रखे । पात्रोंको रखनेके लिये आसन भी गुड़ अलग-अलग दे। उन आसनोंका क्रमशः प्रोक्षण करके उन्हें यथास्थान रखे। फिर भोजनपात्रका भी प्रोक्षण एवं अभिषेक करके हाथसे उसका स्पर्श करते हुए कहे- ‘विष्णो! हव्यमिदं रक्षस्व ( हे विष्णो ! इस हविष्यको आप सुरक्षित रखें)’ फिर उठकर उन ब्राह्मणोंको पीनेके लिये जल देकर उनसे इस प्रकार प्रार्थना करे – ‘सदा- शिवादयो मे प्रीता वरदा भवन्तु (सदाशिव आदि मुझपर प्रसन्न हो अभीष्ट वर देनेवाले हों) ‘ ॥ १२–१५ ॥ इसके बाद ‘ये देवा’ (शु० यजु० १७ । १३-१४) आदि मन्त्रका उच्चारण करके अक्षतसहित इस अन्नका त्याग करे। फिर नमस्कार करके उठे और ‘सर्वत्रामृतमस्तु ।’ ऐसा कहकर ब्राह्मणोंको संतुष्ट करके ‘गणानां त्वा ( शु० यजु० २३ । १९) इस मन्त्रका पहले पाठ करके चारों वेदोंके आदिमन्त्रोंका, रुद्राध्यायका, चमकाध्यायका, रुद्रसूक्तका तथा सद्योजातादि पाँच ब्रह्ममन्त्रोंका पाठ करे ॥ १६-१७ ॥ ब्राह्मण-भोजनके अन्तमें भी यथासम्भव मन्त्र बोले और अक्षत छोड़े, फिर आचमनादिके लिये जल दे। हाथ-पैर और मुँह धोनेके लिये भी जल अर्पित करे ॥ १८ ॥ आचमनके पश्चात् सब ब्राह्मणोंको सुखपूर्वक आसनोंपर बिठाकर शुद्ध जल देनेके अनन्तर मुखशुद्धिके लिये यथोचित कपूर आदिसे युक्त ताम्बूल अर्पित करे । फिर दक्षिणा, चरणपादुका, आसन, छाता, व्यजन, चौकी और बाँसकी छड़ी देकर परिक्रमा और नमस्कारके द्वारा उन ब्राह्मणोंको सन्तुष्ट करे तथा उनसे आशीर्वाद ले । पुनः प्रणाम करके गुरुके प्रति अविचल भक्तिके लिये प्रार्थना करे ॥ १९–२१ ॥ [ तत्पश्चात् विसर्जनकी भावनासे कहे—] ‘सदाशिवादयः प्रीता यथासुखं गच्छन्तु’ (सदाशिव आदि सन्तुष्ट हो सुखपूर्वक यहाँसे पधारें ) । इस प्रकार विदा करके दरवाजेतक उनके पीछे-पीछे जाय। फिर उनके रोकनेपर आगे न जाकर लौट आये। लौटकर द्वारपर बैठे हुए ब्राह्मणों, बन्धुजनों, दीनों और अनाथोंके साथ स्वयं भी भोजन करके सुखपूर्वक रहे ॥ २२-२३ ॥ ऐसा करनेसे उसमें कहीं भी विकृति नहीं हो सकती। यह सब सत्य है, सत्य है और बारंबार सत्य है । इस प्रकार प्रतिवर्ष गुरुकी उत्तम आराधना करनेवाला शिष्य इस लोकमें महान् भोगोंका उपभोग करके अन्तमें शिवलोकको प्राप्त कर लेता है ॥ २४ ॥ सूतजी बोले- अपने शिष्य मुनिवर वामदेवपर इस प्रकार शीघ्र ही परम अनुग्रहकर निर्मलबुद्धि, ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ महात्मा स्कन्ददेव पुनः कहने लगे- यह बात मुनीश्वर व्यासने नैमिषारण्यवासी मुनियोंसे कही थी, इसलिये वे आदिगुरु हैं और आप जगत् में दूसरे गुरुके रूपमें प्रसिद्ध हैं । मुनीन्द्र सनत्कुमार आपके मुखकमलसे इस बातको सुनकर शिवभक्तिमें पूर्ण रहेंगे। वे महाशैव सनत्कुमार व्यासजीको उपदेश करेंगे और वे महर्षि व्यास शुकदेवको उपदेश करेंगे, जिससे वे शिवभक्तिमें पूर्ण होंगे ॥ २५–२७ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! इन शिवभक्त महात्माओंकी प्रत्येक शिष्यपरम्परामें चार-चार शिष्य होंगे, जो निरन्तर वेदाध्ययन एवं धर्मसंस्थापनके कार्यमें लगे रहेंगे । वैशम्पायन, पैल, जैमिनि एवं सुमन्तु — ये चार व्यासजीके महातेजस्वी शिष्य होंगे ॥ २८-२९ ॥ हे वामदेव ! हे महामुने! अगस्त्य, पुलस्त्य, पुलह एवं क्रतु — ये महात्मा आपके शिष्य होंगे ॥ ३० ॥ सनक, सनन्दन, सनातनमुनि और सनत्सुजात-ये योगियोंमें श्रेष्ठ, शिवप्रिय तथा सभी वेदार्थोंके ज्ञाता मुनिगण सनत्कुमारके शिष्य होंगे। गुरु, परमगुरु, परात्परगुरु और परमेष्ठी गुरु — यह [ गुरुचतुष्टय ] योगी शुकदेवजीका पूज्य है ॥ ३१-३२ ॥ यह प्रणव- विज्ञान इन्हीं व्यास, वामदेव, सनत्कुमार एवं शुकदेव – इन चार वर्गोंकी परम्परामें सुरक्षित रहेगा । यह ज्ञान सर्वोत्तम है और काशीमें मुक्ति प्रदान करनेवाला है ॥ ३३ ॥ जो अद्भुत स्वरूपवाला, परमशिवका साक्षात् अधिष्ठान, वेदान्तके तात्पर्य-विचारमें निरत बुद्धिवाले यतीन्द्रोंके द्वारा परम पूजनीय तथा वेदादिकी शाखा प्रशाखाओं में उपनिबद्ध और महाकाश आदिके द्वारा आवृत है, ऐसा वह संसारको श्रेय तथा श्री प्रदान करनेवाला [ प्रणववेत्ताओंका ] मण्डल आपको परम आनन्द प्रदान करनेवाला हो ॥ ३४ ॥ मुने ! यह साक्षात् भगवान् शिवका कहा हुआ उत्तम रहस्य है, जो वेदान्तके सिद्धान्तसे निश्चित किया गया है। तुमने मुझसे जो कुछ सुना है, उसे विद्वान् पुरुष तुम्हारा ही मत कहेंगे । यति इसी मार्गसे चलकर ‘शिवोऽहमस्मि’ ( मैं शिव हूँ) इस रूपमें आत्मस्वरूप शिवकी भावना करता हुआ शिवरूप हो जाता है ॥ ३५-३६ ॥ सूतजी बोले- इस प्रकार मुनीश्वर वामदेवको उपदेश देकर दिव्य ज्ञानदाता गुरु देवेश्वर कार्तिकेय पिता-माताके सर्वदेव – वन्दित चरणारविन्दोंका चिन्तन करते हुए अनेक शिखरोंसे आवृत, शोभाशाली एवं परम आश्चर्यमय कैलासशिखरको चले गये ॥ ३७-३८ ॥ श्रेष्ठ शिष्योंसहित वामदेव भी मयूर – वाहन कार्तिकेयको प्रणाम करके शीघ्र ही परम अद्भुत कैलासशिखरपर जा पहुँचे और महादेवजीके निकट जा उन्होंने उमासहित महेश्वरके मायानाशक मोक्षदायक चरणोंका दर्शन किया ॥ ३९-४० ॥ फिर भक्तिभावसे अपना सारा कलेवर भगवान् शिवको समर्पित करके, वे शरीरकी सुधि भुलाकर उनके निकट दण्डकी भाँति पड़ गये और बारंबार उठ-उठकर नमस्कार करने लगे। तत्पश्चात् उन्होंने भाँति-भाँति के स्तोत्रोंद्वारा, जो वेदों और आगमोंके रससे पूर्ण थे, जगदम्बा और पुत्रसहित परमेश्वर शिवका स्तवन किया ॥ ४१-४२ ॥ इसके बाद देवी पार्वती और महादेवजीके चरणारविन्दको अपने मस्तकपर रखकर उनका पूर्ण अनुग्रह प्राप्त करके वे वहीं सुखपूर्वक रहने लगे । तुम सभी ऋषि भी इसी प्रकार प्रणवके अर्थभूत महेश्वरका तथा वेदोंके गोपनीय रहस्य, वेदसर्वस्व और मोक्षदायक तारक मन्त्र ॐकारका ज्ञान प्राप्त करके यहीं सुखसे रहो तथा विश्वनाथजीके चरणों में [अवस्थित] सायुज्यरूपा अनुपम एवं उत्तम मुक्तिका चिन्तन किया करो ॥ ४३–४५ ॥ अब मैं गुरुदेवकी सेवाके लिये बदरिकाश्रमतीर्थको जाऊँगा। तुम्हें फिर मेरे साथ सम्भाषणका एवं सत्संगका अवसर प्राप्त हो ॥ ४६ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत छठी कैलाससंहितामें द्वादशाहकृत्यवर्णनपूर्वक व्यासादिशिष्यवर्गकथनवर्णन नामक तेईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २३ ॥ ॥ छठी कैलाससंहिता पूर्ण हुई ॥ * धर्मसिन्धुके अनुसार सोलह ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करना चाहिये । इनमेंसे चार तो गुरु, परमगुरु, परमेष्ठि गुरु और परात्पर गुरुके लिये होते हैं और बारह ब्राह्मणोंकी केशवादि नामसे पूजा होती है । परंतु इस पुराणमें दिये गये वर्णनके अनुसार बारह ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करना आवश्यक है। Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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