July 30, 2019 | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [प्रथम-सृष्टिखण्ड] – अध्याय 11 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः ग्यारहवाँ अध्याय शिवपूजन की विधि तथा उसका फल ऋषि बोले — हे व्यासशिष्य महाभाग सूतजी ! आपको नमस्कार है, आज आपने भगवान् शिव की अद्भुत एवं परम पवित्र कथा सुनायी है ॥ १ ॥ उसमें अद्भुत, महादिव्य तथा कल्याणकारिणी लिंगोत्पत्ति हमलोगों ने सुनी, जिसके प्रभाव को सुनने से इस लोक में दुःखों का नाश हो जाता है ॥ २ ॥ हे दयानिधे ! ब्रह्मा और नारदजी के संवाद के अनुसार आप हमें शिवपूजन की वह विधि बताइये, जिससे भगवान् शिव सन्तुष्ट होते हैं ॥ ३ ॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र — सभी शिव की पूजा करते हैं । वह पूजन कैसे करना चाहिये ? आपने व्यासजी के मुख से इस विषय को जिस प्रकार सुना हो, वह बताइये ॥ ४ ॥ शिवमहापुराण महर्षियों का वह कल्याणप्रद एवं श्रुतिसम्मत वचन सुनकर सूतजी उन मुनियों के प्रश्न के अनुसार सब बातें प्रसन्नतापूर्वक बताने लगे ॥ ५ ॥ सूतजी बोले — मुनीश्वरो ! आपलोगों ने बहुत अच्छी बात पूछी है, परंतु वह रहस्य की बात है । मैंने इस विषय को जैसा सुना है और जैसी मेरी बुद्धि है, उसके अनुसार आज कह रहा हूँ ॥ ६ ॥ जैसे आपलोग पूछ रहे हैं, उसी तरह पूर्वकाल में व्यासजी ने सनत्कुमारजी से पूछा था । फिर उसे उपमन्युजी ने भी सुना था ॥ ७ ॥ तब व्यासजी ने शिवपूजन आदि जो भी था, उसे सुनकर लोकहित की कामना से मुझे पढ़ा दिया था ॥ ८ ॥ इसी विषय को भगवान् श्रीकृष्ण ने महात्मा उपमन्यु से सुना था । पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने नारदजी से इस विषय में जो कुछ कहा था, वही इस समय मैं कहूँगा ॥ ९ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे नारद ! मैं संक्षेप में लिंगपूजन की विधि बता रहा हूँ, सुनिये । हे मुने ! इसका वर्णन सौ वर्षों में भी नहीं किया जा सकता है । जो भगवान् शंकर का सुखमय, निर्मल एवं सनातन रूप है, सभी मनोवांछित फलों की प्राप्ति के लिये उसका उत्तम भक्तिभाव से पूजन करे ॥ १०-११ ॥ दरिद्रता, रोग, दुःख तथा शत्रुजनित पीड़ा — ये चार प्रकार के पाप-कष्ट तभी तक रहते हैं, जबतक मनुष्य भगवान् शिव का पूजन नहीं करता है ॥ १२ ॥ भगवान् शिव की पूजा होते ही सारे दुःख विलीन हो जाते हैं और समस्त सुखों की प्राप्ति हो जाती है । तत्पश्चात् [समय आनेपर उपासक की] मुक्ति भी हो जाती है ॥ १३ ॥ जो मानवशरीर का आश्रय लेकर मुख्यतया सन्तानसुख की कामना करता है, उसे चाहिये कि सम्पूर्ण कार्यों और मनोरथों के साधक महादेवजी की पूजा करे ॥ १४ ॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी सम्पूर्ण कामनाओं तथा प्रयोजनों की सिद्धि के लिये क्रम से विधि के अनुसार भगवान् शंकर की पूजा करें ॥ १५ ॥ प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त में उठकर गुरु तथा शिव का स्मरण करके पुनः तीर्थों का चिन्तन करके भगवान् विष्णु का ध्यान करे । हे मुने ! इसके बाद मेरा, देवताओं का और मुनि आदि का भी स्मरण-चिन्तन करके स्तोत्र-पाठपूर्वक शंकरजी का विधिपूर्वक नाम ले ॥ १६-१७१/२ ॥ उसके बाद शय्या से उठकर निवासस्थान से दक्षिण दिशा में जाकर मलत्याग करे । हे मुने ! एकान्त में मलोत्सर्ग करना चाहिये । उससे शुद्ध होने के लिये जो विधि मैंने सुन रखी है, आप लोगों से उसीको आज कहता हूँ, मन को एकाग्र करके सुनें ॥ १८-१९ ॥ ब्राह्मण [गुदाकी] शुद्धिके लिये पाँच बार मिट्टी का लेप करे और धोये । क्षत्रिय चार बार, वैश्य तीन बार और शूद्र दो बार विधिपूर्वक गुदा की शुद्धि के लिये उसमें मिट्टी लगाये । लिंग में भी एक बार प्रयत्नपूर्वक मिट्टी लगानी चाहिये ॥ २०-२१ ॥ तत्पश्चात् बायें हाथ में दस बार और दोनों हाथों में सात बार मिट्टी लगाये । हे तात ! प्रत्येक पैर में तीन-तीन बार मिट्टी लगाये, फिर दोनों हाथों में भी तीन बार मिट्टी लगाकर धोये ॥ २२ ॥ स्त्रियों को शूद्र की भाँति अच्छी तरह मिट्टी लगानी चाहिये । हाथ-पैर धोकर पूर्ववत् शुद्ध मिट्टी का संग्रह करना चाहिये ॥ २३ ॥ इसके बाद मनुष्यको अपने वर्ण के अनुसार दातौन करना चाहिये । ब्राह्मण को बारह अँगुल की दातौन करनी चाहिये । क्षत्रिय ग्यारह अँगुल, वैश्य दस अँगुल और शूद्र नौ अँगुल की दातौन करे । दातौन का यह मान बताया गया है । मनुस्मृति के अनुसार कालदोषका विचार करके ही दातौन करे या त्याग दे ॥ २४-२६ ॥ हे तात ! षष्ठी, प्रतिपदा, अमावस्या, नवमी, व्रत का दिन, सूर्यास्त का समय, रविवार तथा श्राद्धदिवस — ये दन्तधावन के लिये वर्जित हैं ॥ २७ ॥ [दन्तधावनके पश्चात्] तीर्थ आदि में विधिपूर्वक स्नान करना चाहिये, विशेष देश-काल आनेपर मन्त्रोच्चारणपूर्वक स्नान करना चाहिये ॥ २८ ॥ [स्नान के पश्चात्] पहले आचमन करके धुला हुआ वस्त्र धारण करे । फिर सुन्दर एकान्त स्थल में बैठकर सन्ध्याविधि का अनुष्ठान करे ॥ २९ ॥ यथायोग्य सन्ध्याविधि करके पूजा का कार्य आरम्भ करे । मन को सुस्थिर करके पूजागृह में प्रवेशकर वहाँ पूजनसामग्री लेकर सुन्दर आसन पर बैठे । पहले न्यास आदि करके क्रमशः महादेवजी की पूजा करे ॥ ३०-३१ ॥ [शिव की पूजासे] पहले गणेशजी की, द्वारपालों की और दिक्पालों की भली-भाँति पूजा करके बाद में देवता के लिये पीठ की स्थापना करे ॥ ३२ ॥ अथवा अष्टदलकमल बनाकर पूजाद्रव्य के समीप बैठकर उस कमल पर ही भगवान् शिव को समासीन करे । तत्पश्चात् तीन बार आचमन करके पुनः दोनों हाथ धोकर तीन प्राणायाम करके मध्यम प्राणायाम अर्थात् कुम्भक करते समय त्रिनेत्रधारी भगवान् शिव का इस प्रकार ध्यान करे — पंचवक्त्रं दशभुजं शुद्धस्फटिकसन्निभम् । सर्वाभरणसंयुक्तं व्याघ्रचर्मोत्तरीयकम् ॥ ३५ ॥ उनके पाँच मुख हैं, दस भुजाएँ हैं, शुद्ध स्फटिक के समान उनकी कान्ति है, वे सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित हैं तथा वे व्याघ्रचर्म का उत्तरीय ओढ़े हुए हैं । उनके सारूप्य की भावना करके मनुष्य सदा के लिये अपने पाप को भस्म कर डाले । [इस प्रकार की भावनासे युक्त होकर] वहाँ पर शिव को प्रतिष्ठापितकर उन परमेश्वर की पूजा करे ॥ ३३-३६ ॥ शरीरशुद्धि करके मूलमन्त्र का क्रमशः न्यास करे अथवा सर्वत्र प्रणव से ही षडंगन्यास करे ॥ ३७ ॥ इस प्रकार हृदयादि न्यास करके पूजा आरम्भ करे । पाद्य, अर्घ्य और आचमन के लिये पात्रों को तैयार करके रखे ॥ ३८ ॥ बुद्धिमान् पुरुष विधिपूर्वक भिन्न-भिन्न प्रकार के नौ कलश स्थापित करे । उन्हें कुशाओं से ढककर कुशाओं से ही जल लेकर उन सबका प्रोक्षण करे । उन-उन सभी पात्रों में शीतल जल डाले । तत्पश्चात् बुद्धिमान् पुरुष देख-भालकर प्रणवमन्त्र के द्वारा उनमें इन द्रव्यों को डाले । खस और चन्दन को पाद्यपात्र में रखे । चमेली के फूल, शीतलचीनी, कपूर, बड़ की जड़ तथा तमाल — इन सबको यथोचितरूप से [कूट-पीसकर चूर्ण बनाकर आचमनीय पात्र (पंचपात्र)-में डाले । यह सब चन्दनसहित सभी पात्रों में डालना चाहिये ॥ ३९-४२ ॥ देवाधिदेव महादेवजी के पार्श्वभाग में नन्दीश्वर का पूजन करे । गन्ध, धूप, दीप आदि विविध उपचारों से शिव की पूजा करे ॥ ४३ ॥ फिर प्रसन्नतापूर्वक लिंगशुद्धि करके मनुष्य उचित रूप से मन्त्रसमूहों के आदि में ‘प्रणव’ तथा अन्त में ‘नमः’ पद जोड़कर उनके द्वारा [इष्टदेवके लिये] अथवा प्रणव का उच्चारण करके स्वस्ति, पद्म आदि आसन की कल्पना करे । पुनः यह भावना करे कि इस कमल का पूर्वदल साक्षात् अणिमा नामक ऐश्वर्यरूप तथा अविनाशी है । दक्षिणदल लघिमा है । पश्चिमदल महिमा है । उत्तरदल प्राप्ति है । अग्निकोण का दल प्राकाम्य है । नैऋत्यकोण का दल ईशित्व है । वायव्यकोण का दल वशित्व है । ईशानकोण का दल सर्वज्ञत्व है और उस कमल की कर्णिका को सोम कहा जाता है ॥ ४४-४७ ॥ इस सोम के नीचे सूर्य है, सूर्य के नीचे यह अग्नि है और अग्नि के भी नीचे धर्म आदि की क्रमशः कल्पना करे । इसके पश्चात् चारों दिशाओं में अव्यक्त आदि की तथा सोम के नीचे तीनों गुणों की कल्पना करे । इसके बाद ‘ॐ सद्योजातं प्रपद्यामि’ इत्यादि मन्त्र से परमेश्वर शिव का आवाहन करके ‘ॐ वामदेवाय नमः’ इत्यादि वामदेवमन्त्र से उन्हें आसन पर विराजमान करे । फिर ‘ॐ तत्पुरुषाय विद्महे’ इत्यादि रुद्रगायत्री द्वारा इष्टदेव का सान्निध्य प्राप्त करके उन्हें ‘ॐ अघोरेभ्योऽथ’ इत्यादि अघोर मन्त्र से वहाँ निरुद्ध करे । तत्पश्चात् ‘ॐ ईशानः सर्वविद्यानाम्’ इत्यादि मन्त्र से आराध्य देव का पूजन करे । पाद्य और आचमनीय अर्पित करके अर्घ्य दे ॥ ४८-५१ ॥ तत्पश्चात् गन्ध और चन्दनमिश्रित जल से विधिपूर्वक रुद्रदेव को स्नान कराये । फिर पंचगव्यनिर्माण की विधि से पाँचों द्रव्यों को एक पात्र में लेकर प्रणव से ही अभिमन्त्रित करके उन मिश्रित गव्यपदार्थों द्वारा भगवान् को स्नान कराये । तत्पश्चात् पृथक्-पृथक् दूध, दही, मधु, गन्ने के रस तथा घी से नहलाकर समस्त अभीष्टों के दाता और हितकारी पूजनीय महादेवजी का प्रणव के उच्चारणपूर्वक पवित्र द्रव्यों द्वारा अभिषेक करे ॥ ५२-५४ ॥ साधक श्वेत वस्त्र से उस जल को यथोचित रीति से छान ले और पवित्र जलपात्रों में मन्त्रोच्चारणपूर्वक जल डाले ॥ ५५ ॥ जलधारा तबतक बन्द न करे, जबतक इष्टदेव को चन्दन न चढ़ाये । तब सुन्दर अक्षतों द्वारा प्रसन्नतापूर्वक शंकरजी की पूजा करे । उनके ऊपर कुश, अपामार्ग, कपूर, चमेली, चम्पा, गुलाब, श्वेत कनेर, बेला, कमल और उत्पल आदि भाँति-भाँति के अपूर्व पुष्पों एवं चन्दन से उनकी पूजा करे । परमेश्वर शिव के ऊपर जल की धारा गिरती रहे, इसकी भी व्यवस्था करे ॥ ५६-५८ ॥ जल से भरे भाँति-भाँति के पात्रों द्वारा महेश्वर को स्नान कराये । इस प्रकार मन्त्रोच्चारणपूर्वक समस्त फलों को देनेवाली पूजा करनी चाहिये ॥ ५९ ॥ हे तात ! अब मैं आपको समस्त मनोवांछित कामनाओं की सिद्धि के लिये उन [पूजासम्बन्धी] मन्त्रों को भी संक्षेप में बता रहा हूँ, सावधानी के साथ सुनिये ॥ ६० ॥ पावमानमन्त्र से, ‘वाङ्म०’ इत्यादि मन्त्र से, रुद्रमन्त्र से, नीलरुद्रमन्त्र से, सुन्दर एवं शुभ पुरुषसूक्त से, श्रीसूक्त से, सुन्दर अथर्वशीर्ष के मन्त्र से, ‘आ नो भद्रा०’ इत्यादि शान्तिमन्त्र से, शान्तिसम्बन्धी दूसरे मन्त्रों से, भारुण्ड मन्त्र और अरुणमन्त्रों से, अर्थाभीष्टसाम तथा देवव्रतसाम से, ‘अभि त्वा०’ इत्यादि रथन्तरसाम से, पुरुषसूक्त से, मृत्युंजयमन्त्र से तथा पंचाक्षरमन्त्र से पूजा करे ॥ ६१-६४ ॥ एक सहस्र अथवा एक सौ एक जलधाराएँ वैदिक विधि से शिव के नाममन्त्र से प्रदान करे ॥ ६५ ॥ तदनन्तर भगवान् शंकर के ऊपर चन्दन और फूल आदि चढ़ाये । प्रणव से ताम्बूल आदि अर्पित करे ॥ ६६ ॥ इसके बाद जो स्फटिकमणि के समान निर्मल, निष्कल, अविनाशी, सर्वलोककारण, सर्वलोकमय, परमदेव हैं, जो ब्रह्मा, इन्द्र, उपेन्द्र, विष्णु आदि देवताओं को भी गोचर न होनेवाले, वेदवेत्ता विद्वानों के द्वारा वेदान्त में [मन-वाणीसे] अगोचर बताये गये हैं, जो आदि-मध्य-अन्त से रहित, समस्त रोगियों के लिये औषधरूप, शिवतत्त्व के नाम से विख्यात तथा शिवलिंग के रूप में प्रतिष्ठित हैं, उन भगवान् शिव का शिवलिंग के मस्तक पर प्रणवमन्त्र से ही पूजन करे । धूप, दीप, नैवेद्य, सुन्दर ताम्बूल, सुरम्य आरती, स्तोत्रों तथा नाना प्रकार के मन्त्रों एवं नमस्कारों द्वारा यथोक्त विधि से उनकी पूजा करे ॥ ६७-७१ ॥ तत्पश्चात् अर्घ्य देकर भगवान् के चरणों में फूल बिखेरकर और साष्टांग प्रणाम करके देवेश्वर शिव की आराधना करे ॥ ७२ ॥ इसके बाद हाथ में फूल लेकर खड़ा हो करके दोनों हाथ जोड़कर इस मन्त्र से सर्वेश्वर शंकर की पुनः प्रार्थना करे — अज्ञानाद्यदि वा ज्ञानाज्जपपूजादिकं मया । कृतं तदस्तु सफलं कृपया तव शंकर ॥ हे शिव ! मैंने अनजान में अथवा जान-बूझकर जो जप-पूजा आदि सत्कर्म किये हों, वे आपकी कृपा से सफल हों ॥ ७३-७४ ॥ इस प्रकार पढ़कर भगवान् शिव के ऊपर प्रसन्नतापूर्वक फूल चढ़ाये । तत्पश्चात् स्वस्तिवाचन१ करके नाना प्रकार की आशीः२ प्रार्थना करे । फिर शिव के ऊपर मार्जन3 करना चाहिये । इसके बाद नमस्कार करके अपराध के लिये क्षमाप्रार्थना४ करते हुए पुनरागमन के लिये विसर्जन५ करना चाहिये । इसके बाद अघोर मन्त्र६ का उच्चारण करके नमस्कार करे । फिर सम्पूर्ण भाव से युक्त होकर इस प्रकार प्रार्थना करे — शिवे भक्तिः शिवे भक्तिः शिवे भक्तिर्भवे भवे । अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम॥ प्रत्येक जन्म में शिव में मेरी भक्ति हो, शिव में भक्ति हो, शिव में भक्ति हो । आपके अतिरिक्त दूसरा कोई मुझे शरण देनेवाला नहीं है । हे महादेव ! आप ही मेरे लिये शरणदाता हैं ॥ ७५-७८ ॥ इस प्रकार प्रार्थना करके पराभक्ति के द्वारा सम्पूर्ण सिद्धियों के दाता देवेश्वर शिव का पूजन करे । विशेषतः गले की ध्वनि से भगवान् को सन्तुष्ट करे ॥ ७९ ॥ तत्पश्चात् परिवारजनों के साथ नमस्कार करके अनुपम प्रसन्नता प्राप्त करके समस्त [लौकिक] कार्य सुखपूर्वक करता रहे ॥ ८० ॥ जो इस प्रकार शिवभक्तिपरायण होकर प्रतिदिन पूजन करता है, उसे अवश्य ही पग-पग पर सब प्रकार की सिद्धि प्राप्त होती है ॥ ८१ ॥ वह उत्तम वक्ता होता है तथा उसे मनोवांछित फल की निश्चय ही प्राप्ति होती है । रोग, दुःख, शोक, दूसरों के निमित्त से होनेवाला उद्वेग, कुटिलता, विष तथा अन्य जो-जो कष्ट उपस्थित होता है, उसे कल्याणकारी परम शिव अवश्य नष्ट कर देते हैं ॥ ८२-८३ ॥ उस उपासक का कल्याण होता है । जैसे शुक्लपक्ष में चन्द्रमा बढ़ता है, वैसे ही शंकर की पूजा से उसमें अवश्य ही सद्गुणों की वृद्धि होती है ॥ ८४ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार मैंने शिव की पूजा का विधान आपको बताया । हे नारद ! अब आप और क्या पूछना तथा सुनना चाहते हैं ? ॥ ८५ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के प्रथम खण्ड में सृष्टि-उपाख्यान में शिवपूजाविधिवर्णन नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ११ ॥ १. ‘ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्ति नस्तार्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥’ इत्यादि स्वस्तिवाचन सम्बन्धी मन्त्र हैं। २. ‘काले वर्षतु पर्जन्यः पृथिवी शस्यशालिनी । देशोऽयं क्षोभरहितो ब्राह्मणाः सन्तु निर्भयाः ॥ सर्वे च सुखिनः सन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:खभाग्भवेत् ॥’ इत्यादि आशीः प्रार्थनाएँ हैं। ३. ॐ आपो हि ष्ठा मयोभुव:’ (यजु० ११ । ५०-५२) इत्यादि तीन मार्जन-मन्त्र कहे गये हैं। इन्हें पढ़ते हुए इष्टदेवपर जल छिड़कना ‘मार्जन’ कहलाता है। ४. ‘अपराधसहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया। तानि सर्वाणि मे देव क्षमस्व परमेश्वर ॥’ इत्यादि क्षमाप्रार्थनासम्बन्धी श्लोक हैं। ५. ‘यान्तु देवगणाः सर्वे पूजामादाय मामकीम् । अभीष्टफलदानाय पुनरागमनाय च ॥’ इत्यादि विसर्जनसम्बन्धी श्लोक हैं। ६. अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः । सर्वेभ्यः सर्वशर्वेभ्यो नमस्तेऽस्तु रुद्ररूपेभ्यः ॥ Related