शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [तृतीय-पार्वतीखण्ड] – अध्याय 38
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
अड़तीसवाँ अध्याय
हिमालयपुरी की सजावट, विश्वकर्मा द्वारा दिव्यमण्डप एवं देवताओं के निवास के लिये दिव्यलोकों का निर्माण करना

ब्रह्माजी बोले — हे मुनिसत्तम ! इसके बाद हिमालय ने प्रसन्न होकर महोत्सवसम्पन्न अपने नगर को विचित्र प्रकार से सजाया ॥ १ ॥ उन्होंने सभी मार्गों पर जल का छिड़काव कराया और सभी प्रकार की ऋद्धि-सिद्धि से नगर को अलंकृतकर प्रत्येक द्वार को केले के खम्भे तथा मंगल-द्रव्यों से सुसज्जित किया ॥ २ ॥

शिवमहापुराण

आँगन में केले के खम्भे लगवाये गये । रेशमी धागों में आम का पल्लव बाँधकर बंदनवार, जिसमें मालती की माला बँधी हुई थी, लटकाया गया और उस आँगन को चारों दिशाओं में कल्याणकारी मंगलद्रव्यों से सुशोभित किया गया । पर्वतराज ने महाप्रभावशाली गर्गाचार्य के आज्ञानुसार अपनी कन्या के विवाह के निमित्त परम प्रसन्नता से युक्त हो सारी सामग्री तथा सभी प्रकार के मंगलद्रव्य एकत्रित किये ॥ ३-५ ॥ उन्होंने विश्वकर्मा को आदरपूर्वक बुलाकर विस्तृत मण्डप तथा मनोहर वेदिका आदि का निर्माण कराया ॥ ६ ॥

हे देवर्षे ! वह [मण्डप] दस हजार योजन लम्बा, अनेक लक्षणों से युक्त तथा अनेक आश्चर्यों से परिपूर्ण था । स्थावर चित्र की रचना जंगम के सदृश ही होने से वह मण्डप चारों ओर अद्भुत पदार्थों से परिपूर्ण हो गया ॥ ७-८ ॥ स्थावर रचना ने विशेष रूप से जंगम को तथा जंगम रचना ने स्थावर रचना को पराजित कर दिया था ॥ ९ ॥ जल की रचना से स्थलभूमि जीत ली गयी । बड़े-बड़े विशेषज्ञों को भी पता नहीं लगता था कि कहाँ जल है और कहाँ स्थल है ॥ १० ॥ कहीं पर कृत्रिम सिंह तथा सारसों की पंक्ति बनी हुई थी तथा कहीं अत्यन्त मनोहर कृत्रिम मोर बने हुए थे ॥ ११ ॥

कहीं पुरुषों के साथ नाचती हुई स्त्रियों के चित्र बनाये गये थे, वे कृत्रिम स्त्रियाँ अपनी दृष्टि से देखते हुए पुरुषों को मानो मोह रही थीं ॥ १२ ॥ इसी प्रकार हाथ में धनुष धारण किये मनोहर द्वारपाल स्थावर होकर भी जंगम के सदृश प्रतीत होते थे ॥ १३ ॥ क्षीरसागर से उत्पन्न हुई सर्वलक्षणयुक्त साक्षात् लक्ष्मी के समान अद्भुत कृत्रिम महालक्ष्मी दरवाजे पर बनायी गयी थी ॥ १४ ॥ अलंकृत हाथी वास्तविक हाथी के समान दिखायी पड़ते थे । इसी प्रकार घुड़सवारों से समन्वित अश्व तथा गजारोहियों से युक्त गज और आश्चर्यपूर्ण रथी से युक्त रथ समता में किसी प्रकार जीवधारी से कम न थे । अनेक प्रकार के वाहन तथा पैदल कृत्रिम होते हुए भी अकृत्रिम जैसे प्रतीत होते थे ॥ १५-१६ ॥

हे मुने ! उन प्रसन्नचित्त विश्वकर्मा ने देवताओं और मुनियों को मोहित करने के लिये यह सब किया था ॥ १७ ॥ हे मुने ! महाद्वार पर शुद्ध स्फटिक के समान अत्यन्त उज्ज्वल नन्दी का चित्र बनाया गया था, वह साक्षात् नन्दी के ही समान था । उसके ऊपर महादिव्य, रत्नजटित एवं मनोहर पल्लवों तथा चामरों से शोभायमान पुष्पक विमान रखा हुआ था ॥ १८-१९ ॥ द्वार के बायें भाग में शुद्ध काश्मीरी रंग के चार दाँतवाले दो हाथी बनाये गये थे, जो महाकान्तिमान् तथा साठ वर्ष के थे और एक-दूसरे से भिड़े हुए थे ॥ २० ॥

उसी प्रकार सूर्य के समान महाकान्तिमान् तथा दिव्य दो घोड़े भी बनाये गये थे, जो चँवरों तथा दिव्य अलंकारों से सुसज्जित थे ॥ २१ ॥ विश्वकर्मा ने श्रेष्ठ रत्नों से विभूषित यथार्थ रूपवाले सभी लोकपालों तथा देवताओं को बनाया था ॥ २२ ॥ इसी प्रकार तपोधन भृगु आदि ऋषियों, अन्य उपदेवताओं, सिद्धों तथा अन्य लोगों के भी चित्रों का निर्माण किया गया था । कृत्रिम विष्णु अपने गरुड़ आदि पार्षदों के साथ इस प्रकार के बनाये गये थे कि उनको देखने से महान् आश्चर्य प्रतीत हो रहा था ॥ २३-२४ ॥

हे नारद ! इसी प्रकार अपने पुत्रों, वेदों एवं परिवार के साथ सूक्तपाठ करते हुए मुझ ब्रह्मा के चित्र का भी निर्माण कराया गया था । विश्वकर्मा ने ऐरावत पर चढ़े हुए अपने दलसहित इन्द्र का निर्माण किया था, जो पूर्णचन्द्र के समान प्रकाशित हो रहे थे ॥ २५-२६ ॥ हे देवर्षे ! बहुत कहने से क्या लाभ ? विश्वकर्मा ने हिमालय से प्रेरित होकर सम्पूर्ण देवसमाज की शीघ्र ही रचना की थी । इस प्रकार दिव्य रूप से युक्त, देवताओं को मोहित करनेवाले तथा अनेक आश्चर्यों से परिपूर्ण उस विशाल मण्डप का निर्माण विश्वकर्मा ने किया ॥ २७-२८ ॥

इसके अनन्तर महाबुद्धिमान् विश्वकर्मा ने हिमालय की आज्ञा पाकर देवताओं आदि के निवास के लिये यत्नपूर्वक उनके लोकों की रचना की ॥ २९ ॥ विश्वकर्मा ने देवताओं को सुख देनेवाले, अत्यधिक प्रभावाले, परम आश्चर्यकारक तथा दिव्य मंचों का भी निर्माण किया ॥ ३० ॥ उन्होंने ब्रह्मा के निवास के लिये क्षणभर में परम दीप्ति से युक्त अद्भुत सत्यलोक की रचना कर डाली ॥ ३१ ॥ उसी प्रकार उन्होंने विष्णु के लिये वैकुण्ठ नामक स्थान क्षणमात्र में बनाया, जो अति उज्ज्वल, दिव्य तथा नाना प्रकार के आश्चर्य से युक्त था ॥ ३२ ॥

उन विश्वकर्मा ने सम्पूर्ण ऐश्वर्य से युक्त, अत्यन्त अद्भुत, दिव्य तथा उत्तम इन्द्रभवन का निर्माण किया ॥ ३३ ॥ उसी प्रकार उन्होंने लोकपालों के लिये सुन्दर, दिव्य, अद्भुत तथा महान् गृहों की प्रीतिपूर्वक रचना की ॥ ३४ ॥ उन्होंने अन्य देवताओं के लिये क्रमशः विचित्र गृहों की रचना की । शिवजी से वर प्राप्त करने के कारण महाबुद्धिमान् विश्वकर्मा ने क्षणभर में शिवजी की प्रसन्नता के लिये सारे स्थान का निर्माण किया ॥ ३५-३६ ॥ उन्होंने शिवलोक में रहनेवाले, परम उज्ज्वल, महान् प्रभावाले, श्रेष्ठ देवताओं से पूजित, गिरीश के चिह्नों से युक्त तथा शोभासम्पन्न शिवगृह का निर्माण किया ॥ ३७ ॥

उन विश्वकर्मा ने शिवजी की प्रसन्नता के लिये इस प्रकार की विचित्र, परम आश्चर्य से युक्त तथा परमोज्ज्वल रचना की थी । इस प्रकार यह सारा लौकिक व्यवहार करके वे हिमालय अत्यन्त प्रेम से शिव के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे । हे देवर्षे ! मैंने हिमालय का आनन्ददायक वृत्तान्त पूर्ण-रूप से कह दिया, अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ ३८–४० ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के तृतीय पार्वतीखण्ड में मण्डपादिरचनावर्णन नामक अड़तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३८ ॥

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