शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [तृतीय-पार्वतीखण्ड] – अध्याय 39
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
उनतालीसवाँ अध्याय
भगवान् शिव का नारदजी के द्वारा सब देवताओं को निमन्त्रण दिलाना, सबका आगमन तथा शिव का मंगलाचार एवं ग्रहपूजन आदि करके कैलास से बाहर निकलना

नारदजी बोले — हे विष्णुशिष्य ! हे महाप्राज्ञ ! हे तात ! हे विधे ! आपको प्रणाम है । हे कृपानिधे ! हमलोगों ने आपसे यह अद्भुत कथा सुनी । अब मैं शिवजी के वैवाहिक चरित्र को सुनना चाहता हूँ, जो परम मंगलदायक तथा सब प्रकार की पापराशि का विनाश करनेवाला है ॥ १-२ ॥ मंगलपत्रिका प्राप्त करने के बाद महादेवजी ने क्या किया ? परमात्मा शिवजी की वह दिव्य कथा सुनाइये ॥ ३ ॥

शिवमहापुराण

ब्रह्माजी बोले — हे वत्स ! हे महाप्राज्ञ ! महादेवजी ने मंगलपत्रिका प्राप्त करने के पश्चात् जो किया, भगवान् शंकर के उस यश को सुनिये ॥ ४ ॥ विभु शिवजी प्रसन्नतापूर्वक मंगलपत्रिका ग्रहण कर जोर से हँसे और उन्होंने प्रसन्नचित्त होकर उन लग्नपत्रिका लानेवालों का बड़ा स्वागत-सम्मान किया ॥ ५ ॥ उन्होंने उस लग्नपत्रिका को सम्यक पढकर विधि-विधान से स्वीकार किया तथा उन लोगों को आदर से बहुत सम्मानितकर विदा कर दिया । उन्होंने सप्तर्षियों से कहा कि आपलोगों ने यह परम कल्याणकारी कार्य ठीक से सम्पन्न किया । अब मैंने विवाह स्वीकार कर लिया है, अतः मेरे विवाह में आपलोग [अवश्य] आइयेगा ॥ ६-७ ॥

शिवजी के इस प्रकार के वचन को सुनकर वे परम प्रसन्न हो गये और उनको प्रणामकर तथा उनकी प्रदक्षिणा करके अपने परम भाग्य की सराहना करते हुए अपने घर चले गये । हे मुने ! तब महान् लीला करनेवाले, देवताओं के सहित देवेश्वर प्रभु शिवजी ने लौकिकाचार का आश्रयण करते हुए शीघ्र आपका स्मरण किया ॥ ८-९ ॥ उस समय आप अपने सौभाग्य की प्रशंसा करते हुए बड़ी प्रसन्नता के साथ वहाँ आये और हाथ जोड़कर सिर झुकाकर विनम्रता से उन्हें प्रणाम करते हुए बारम्बार ‘जय’ शब्द का उच्चारण करके आपने उनकी स्तुति की । हे मुने ! उसके बाद अपने भाग्य की प्रशंसा करते हुए शिवजी से आज्ञा प्रदान करने के लिये आपने निवेदन किया ॥ १०-११ ॥ हे मुनिवर ! तब प्रसन्नचित्त होकर लौकिकी गति को दिखाते हुए शुभ वचनों से आपको प्रसन्न करते हुए शिवजी कहने लगे — ॥ १२ ॥

शिवजी बोले — हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं जो कहता हूँ, उसे प्रेमपूर्वक सुनिये । आप मेरे परमप्रिय तथा भक्तराजशिरोमणि हैं, इसलिये आपसे कहता हूँ ॥ १३ ॥ आपकी आज्ञा से पार्वती ने जिस प्रकार की महान् तपस्या की थी, उससे सन्तुष्ट होकर मैंने उसे पति बनने के लिये वरदान दे दिया है ॥ १४ ॥ मैं उसकी भक्ति के वशीभूत होकर अब विवाह करना चाहता हूँ । सप्तर्षियों ने सारा कार्य सम्पन्न कर दिया है और विवाह का लग्न भी निश्चित कर दिया है ॥ १५ ॥ हे नारद ! वह विवाह आज के सातवें दिन होगा । मैं लोकरीति का आश्रय लेकर [वैवाहिक] महोत्सव करूँगा ॥ १६ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे तात ! इस प्रकार परमात्मा शंकर का वचन सुनकर आप परम प्रसन्न हो उन प्रभु को प्रणाम करके यह वचन कहने लगे — ॥ १७ ॥

नारदजी बोले — आपका यह व्रत है कि आप भक्तों के अधीन रहते हैं और ऐसा सभी का मत भी है, इसलिये आपने यह उचित ही किया; क्योंकि पार्वती यही चाहती भी थीं । हे विभो ! अब मेरे योग्य जो कोई कार्य हो, आप मुझे बताइये, आपको प्रणाम है, आप मुझे अपना सेवक मानकर कृपा कीजिये ॥ १८-१९ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे मुनीश्वर ! जब आपने शिवजी से इस प्रकार कहा, तब भक्तवत्सल शिवजी प्रसन्नचित्त होकर आदरपूर्वक आपसे कहने लगे — ॥ २० ॥

शिवजी बोले — हे मुने ! आप मेरी ओर से विष्णु आदि देवों, मुनियों, सिद्धों तथा अन्य लोगों को भी चारों ओर निमन्त्रण दीजिये । मेरी आज्ञा को मानते हुए उपर्युक्त सभी लोग उत्साह तथा शोभा से युक्त हो अपनी स्त्री, पुत्र तथा गणों के सहित इस विवाह में आयें ॥ २१-२२ ॥ हे मुने ! जो इस विवाहोत्सव में सम्मिलित नहीं होंगे, उन्हें मैं अपना नहीं मानूंगा, चाहे वे देवता ही क्यों न हों ॥ २३ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे मुने ! ईश्वर की इस आज्ञा को स्वीकार करके शिवप्रिय आपने शीघ्रता से उन-उनके यहाँ जाकर सबको निमन्त्रण दे दिया ॥ २४ ॥ हे नारद ! इस प्रकार शिवजी के दूत का कार्य शीघ्रता से सम्पन्नकर शिवजी के पास आकर आप मुनिवर उनकी आज्ञा से वहीं बैठ गये । शिवजी भी उन लोगों के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे । उनके गण सभी जगह नृत्य-गान-पूर्वक उत्सव करने लगे ॥ २५-२६ ॥

इसी समय अत्यन्त सुन्दर वेश-भूषा से सुसज्जित होकर भगवान् विष्णु अपने परिकरों के साथ कैलास आये ॥ २७ ॥ वे अपनी भार्या तथा पार्षदों के साथ भक्तिपूर्वक प्रणामकर उनकी आज्ञा प्राप्त करके प्रसन्नचित्त हो बैठ गये । उसके बाद मैं भी अपने गणों के साथ प्रसन्नतापूर्वक कैलासपर्वत पर गया और प्रभु को प्रणाम करके अपने गणोंसहित आनन्दित हो बैठ गया ॥ २८-२९ ॥ इन्द्र आदि लोकपाल भी अपनी पत्नियों तथा सेवकों के सहित नाना प्रकार के अलंकारों से अलंकृत हो उत्सव मनाते हुए वहाँ आये ॥ ३० ॥

इसी प्रकार निमन्त्रित मुनि, नाग, सिद्ध तथा उपदेव एवं अन्य दूसरे लोग भी वहाँ आये ॥ ३१ ॥ उस समय महेश्वर ने वहाँ आये उन सभी देवता आदि का प्रसन्नता से पृथक्-पृथक् सत्कार किया ॥ ३२ ॥ उस समय कैलास पर देवस्त्रियों ने यथायोग्य नृत्य आदि करना प्रारम्भ कर दिया तथा वहाँ अद्भुत एवं महान् उत्सव होने लगा ॥ ३३ ॥ हे मुने ! इसी समय जो विष्णु आदि देवगण शिव के यहाँ आये हुए थे, वे सब शिव की वरयात्रा की तैयारी कराने के लिये प्रसन्नता से निवास करने लगे ॥ ३४ ॥

उस समय शिवजी की आज्ञा से आये हुए सभी लोग शिवजी के कार्य को यह मेरा ही कार्य है — ऐसा समझकर शिव की सेवा करने लगे ॥ ३५ ॥ सप्तमातृकाओं ने शिवजी के विवाह का दूलह वेष बड़े प्रेम से शिवजी के अनुरूप सजाया ॥ ३६ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! परमेश्वर प्रभु की इच्छा से ही उनके स्वाभाविक वेष को भूषणों से सजाया गया ॥ ३७ ॥ सप्तमातृकाओं ने मुकुट के स्थान पर चन्द्रमा को बाँध दिया । उनके ललाट में रहनेवाला तीसरा नेत्र तिलकरूप से शोभित किया गया ॥ ३८ ॥ हे मुने ! नाना रत्नों से देदीप्यमान दो सर्प दोनों कानों को अलंकृत करनेवाले कुण्डल के रूप में शोभित हुए ॥ ३९ ॥

उनके अंग में निवास करनेवाले अन्य सर्प अनेक रत्नों से युक्त आभूषणों के समान सुशोभित हुए ॥ ४० ॥ उनके शरीर में लगी हुई विभूति चन्दनादि पदार्थों से उत्पन्न उत्तम अंगराग हो गया । उनका परम सुन्दर गजचर्म दिव्य दुकूल के समान हो गया ॥ ४१ ॥ उस समय शिवजी का ऐसा सुन्दर रूप हो गया, जो अवर्णनीय था । वे साक्षात् ईश्वर हैं, अतः उन्होंने सभी ऐश्वर्य धारण कर लिया था । उस समय सभी देवता, दानव, नाग, पन्नग, अप्सराएँ तथा महर्षिगण उत्सव से युक्त होकर शिवजी के समीप जाकर प्रसन्न हो कहने लगे ॥ ४२-४३ ॥

सभी लोग कहने लगे — हे महादेव ! हे महेश्वर ! हिमालयपुत्री महादेवी पार्वती से विवाह करने के लिये आप हम सभी के साथ कृपापूर्वक प्रस्थान करें ॥ ४४ ॥ तदुपरान्त शिवतत्त्व को जानने के कारण प्रसन्न चित्तवाले विष्णु ने भक्तिपूर्वक शिवजी को प्रणामकर उस प्रस्ताव के अनुरूप कहना प्रारम्भ किया ॥ ४५ ॥

विष्णु बोले — हे देवदेव ! हे महादेव ! हे शरणागतवत्सल ! आप अपने भक्तों का मनोरथ पूर्ण करनेवाले हैं । अतः हे प्रभो ! मेरा निवेदन सुनें ॥ ४६ ॥ हे शम्भो ! हे शंकर ! आप गृह्यसूत्र की विधि से गिरीशसुता देवी पार्वती के साथ अपने विवाह का कर्म कीजिये । हे हर ! यदि आप गृह्यसूत्र की विधि से विवाहकर्म करेंगे, तो सारे लोक में इसी प्रकार से विवाह की विधि प्रसिद्ध हो जायगी । हे नाथ ! इस लोक में आप अपने यश की घोषणा करते हुए कुलधर्म के अनुसार मण्डपस्थापन तथा नान्दीमुख-कृत्य प्रसन्नतापूर्वक कीजिये ॥ ४७-४९ ॥

ब्रह्माजी बोले — विष्णु के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर परमेश्वर शंकरजी ने समस्त लौकिकाचार मुझ ब्रह्मा के द्वारा सम्पन्न करवाया । [हे नारद!] उन्होंने सारे अभ्युदय का कार्यभार मेरे ऊपर सौंप दिया और मैंने भी मुनियों के साथ प्रेमपूर्वक सभी कृत्यों को पूरा किया ॥ ५०-५१ ॥ हे महामुने ! कश्यप, अत्रि, वसिष्ठ, गौतम, भागुरि, गुरु, कण्व, बृहस्पति, शक्ति, जमदग्नि, पराशर, मार्कण्डेय, शिलापाक, अरुणपाल, अकृतश्रम, अगस्त्य, च्यवन, गर्ग, शिलाद, दधीचि, उपमन्यु, भरद्वाज, अकृतव्रण, पिप्पलाद, कुशिक, कौत्स, शिष्यों के सहित व्यास — ये तथा अन्य बहुत-से ऋषिगण शिवजी के समीप आये और मेरी प्रेरणा से उन्होंने विधिवत् क्रिया सम्पन्न की ॥ ५२-५५ ॥

वेद-वेदांग के पारगामी उन ऋषियों ने शिवजी का समस्त कौतुक-मंगलकर वेदरीति के अनुसार उनकी रक्षा का विधान किया । उन सम्पूर्ण ऋषियों ने ऋक्, यजुः, साम एवं अन्य नाना प्रकार के रक्षोघ्नसूक्तों से अनेक प्रकार से मंगलपाठ किये । उन्होंने विघ्नशान्ति के लिये मुझसे तथा श्रीशिवजी से मण्डपस्थ देवताओं तथा समस्त ग्रहों का पूजन करवाया ॥ ५६-५८ ॥

इस प्रकार शिवजी ने प्रसन्न होकर समस्त लौकिक कुलाचार तथा वैदिक विधि का सम्पादनकर प्रसन्नतापूर्वक ब्राह्मणों को प्रणाम किया । उसके बाद देवताओं और ब्राह्मणों को आगेकर सर्वेश्वर शिवजी अपने पर्वतोत्तम कैलास से प्रसन्नतापूर्वक चले ॥ ५९-६० ॥ लीला करने में प्रवीण वे शिवजी उन देवताओं तथा ब्राह्मणों के साथ कैलास के बहिर्भाग में आकर प्रेम से स्थित हो गये ॥ ६१ ॥ देवताओं ने उस समय महेश की प्रसन्नता के लिये अनेक प्रकार के गाने-बजाने तथा नृत्य-सम्बन्धी अनेक प्रकार के उत्सव किये ॥ ६२ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के तृतीय पार्वतीखण्ड में देवनिमन्त्रण, देवागमन, शिवयात्रावर्णन नामक उनतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३९ ॥

 

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