September 9, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [तृतीय-पार्वतीखण्ड] – अध्याय 41 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः इकतालीसवाँ अध्याय नारद द्वारा हिमालयगृह में जाकर विश्वकर्मा द्वारा बनाये गये विवाहमण्डप का दर्शन कर मोहित होना और वापस आकर उस विचित्र रचना का वर्णन करना ब्रह्माजी बोले — हे मुने ! उसके बाद आपस में विचार-विमर्शकर शंकरजी की आज्ञा लेकर भगवान् विष्णु ने पहले आपको हिमालय के घर भेजा । हे नारद ! भगवान् श्रीहरि की प्रेमपूर्ण प्रेरणा से सर्वेश्वर शिव को प्रणामकर आप बरात से आगे हिमालय के नगर को चले ॥ १-२ ॥ शिवमहापुराण हे मुने ! वहाँ जाकर आपने विश्वकर्मा द्वारा रचित लज्जा की मुद्रा से युक्त अपनी कृत्रिम मूर्ति देखी और उसे देखते ही आप विस्मित हो गये । हे महामुने ! विश्वकर्मा द्वारा बनायी गयी अपनी मूर्ति को देखकर तथा विश्वकर्मा का सारा चरित्र जानकर आप श्रान्त हो गये । तत्पश्चात् आपने स्वर्णकलशों से एवं केले के खम्भों से अत्यन्त मण्डित रत्नचित्रित हिमालय के मण्डप में प्रवेश किया ॥ ३-५ ॥ वह मण्डप अति अद्भुत, नाना प्रकार के चित्रों से अलंकृत तथा हजारों खम्भों से युक्त था । उसमें बनी हुई वेदी देखकर आप आश्चर्य में पड़ गये ॥ ६ ॥ हे मुने ! हे नारद ! उस विस्मय के कारण आपका ज्ञान एवं बुद्धि नष्ट हो गयी, पुनः आपने हिमालय से पूछा — ॥ ७ ॥ हे हिमालय ! क्या इस समय विष्णु आदि सभी देवता, महर्षि, सिद्ध एवं गन्धर्व यहाँ पहुँच गये हैं ? हे पर्वतराज ! क्या विवाह हेतु श्वेत बैल पर सवार होकर गणेश्वरों से युक्त सदाशिव पधार चुके हैं ? यह बात आप सत्य-सत्य कहिये ॥ ८-९ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे मुने ! विस्मितचित्त हुए आपके इस प्रकार के वचन को सुनकर पर्वत हिमालय आपसे तथ्ययुक्त वचन कहने लगे — ॥ १० ॥ हिमवान् बोले — हे नारद ! हे महाप्राज्ञ ! अभी पार्वती के विवाह के लिये अपने गणों तथा बरातियों को लेकर शिवजी नहीं आये हैं ॥ ११ ॥ हे नारद ! आप उत्तम बुद्धि से विश्वकर्मा के द्वारा रचित चित्र जानिये । हे देवर्षे ! आप आश्चर्य का त्याग कीजिये, स्वस्थ हो जाइये और शिव का स्मरण कीजिये ॥ १२ ॥ आप मुझपर कृपाकर भोजन तथा विश्राम करके मैनाक आदि पर्वतों के साथ शंकर के समीप जाना ॥ १३ ॥ हे महामते ! जिनके चरणकमल की अर्चना देवता तथा असुर भी किया करते हैं, उन शिव की प्रार्थनाकर आप इन पर्वतों को साथ लेकर देवताओं तथा महर्षियों सहित उन्हें यहाँ शीघ्र ले आइये ॥ १४ ॥ ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] तब आपने ‘तथास्तु’ कहा और वहाँ का सारा कृत्य अच्छी तरह सम्पन्नकर भोजन करके महामनस्वी आप हिमालय के पुत्रोंसहित बड़ी प्रसन्नता से शीघ्र शिवजी के समीप गये ॥ १५ ॥ वहाँ आपने देवताओं से घिरे हुए महादेवजी को देखा । आपने तथा उन पर्वतों ने भक्ति से उन कान्तिमान् शिव को प्रणाम किया ॥ १६ ॥ तत्पश्चात् हे मुने ! अनेक प्रकार के अलंकारों से युक्त मैनाक, सह्य, मेरु आदि पर्वतों को देखकर सन्देह से आकुल मनवाले मैंने, विष्णु ने तथा इन्द्र से युक्त देवताओं एवं रुद्रानुचरों ने विस्मित होकर आपसे पूछा — ॥ १७-१८ ॥ देवता बोले — हे नारद ! हे महाप्राज्ञ ! आप तो आश्चर्य से चकित दिखायी पड़ते हैं, हिमालय ने आपका सत्कार किया या नहीं । हमलोगों को यह विस्तारपूर्वक बताइये । ये महाबली मैनाक, सह्य तथा मेरु आदि पर्वत अनेक अलंकार धारणकर यहाँ किस उद्देश्य से आये हैं । हे नारद ! आप यह भी बताइये कि पर्वतराज हिमालय का विचार शिवजी को कन्या देने का है या नहीं ? हे तात ! इस समय हिमालय के यहाँ क्या हो रहा है, यह सब विस्तार से कहिये ॥ १९–२१ ॥ हे सुव्रत ! हम देवताओं का मन अनेक प्रकार के सन्देह से ग्रस्त हो रहा है, इसलिये हमलोग आपसे पूछ रहे हैं, आप हमारा सन्देह दूर करें ॥ २२ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे मुने ! उन विष्णु आदि देवताओं का वचन सुनकर विश्वकर्मा की माया से विस्मित हुए आपने उनसे कहा — ॥ २३ ॥ हे मुने ! आप मुझ विष्णु को और सभी देवताओं के ईश्वर शची के पति, पर्वतों के पूर्व शत्रु तथा पर्वतों के पक्ष को काटनेवाले इन्द्र को एकान्त में बुलाकर कहने लगे — ॥ २४ ॥ नारदजी बोले — विश्वकर्मा ने हिमालय के घर जैसी कारीगरी की है, उसे देखते ही सभी देवगण मोहित हो जायँगे । वे हिमालय तो उस कारीगरी के कौशल से सारे देवताओं को प्रेमपूर्वक युक्ति से मोहित करना चाहते हैं ॥ २५ ॥ हे शचीपते ! आपने पूर्वकाल में विश्वकर्मा को भुलावे में डाल दिया था, क्या उसे आप भूल गये हैं ? इसलिये वे आज आपको जीतने की इच्छा से हिमालय के घर में विराजमान हैं । उन्होंने मेरा ऐसा चित्र बनाया है कि उसे देखकर मैं तो मोहित हो गया हूँ । इसी प्रकार उन्होंने विष्णु, ब्रह्मा तथा इन्द्र आदि देवताओं के चित्र का भी निर्माण किया है ॥ २६-२७ ॥ हे देवेश ! अधिक कहने से क्या ! उन विश्वकर्मा ने सभी देवगणों का चित्र इतनी कुशलता से बनाया है कि वह यथार्थ देवताओं के रूप से किंचिन्मात्र भी भिन्न नहीं जान पड़ता । उन्होंने परिहास करने के लिये सभी देवताओं की यह मायामयी चित्ररचना की है, जिससे देवताओं को मोह उत्पन्न हो जाय ॥ २८-२९ ॥ ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार नारद के वचन को सुनकर भय से व्याकुल शरीरवाले देवेन्द्र ने विष्णु की ओर देखकर शीघ्रता से कहा — ॥ ३० ॥ देवेन्द्र बोले — हे देवदेव ! हे रमानाथ ! त्वष्टापुत्र विश्वकर्मा शोक से व्याकुल हो मुझसे द्रोह करता है । कहीं ऐसा न हो कि वह इसी बहाने मेरा वध कर दे ॥ ३१ ॥ ब्रह्माजी बोले — उनका यह वचन सुनकर देवाधिदेव जनार्दन उन्हें समझाते हुए कहने लगे — ॥ ३२ ॥ विष्णुजी बोले — हे शचीपते ! आपके वैरी निवातकवचादि दानवगणों ने महाविद्या के बल से पूर्वसमय में भी आपको मोहित किया था । हे वासव ! इसी प्रकार आपने मेरी आज्ञा से पर्वतराज हिमालय के तथा अन्य दूसरे पर्वतों के पंख का छेदन कर दिया है । इस कारण ये पर्वत भी उसी माया को देखकर तथा सुनकर आपको जीतने की इच्छा करते हैं । ये सभी मूर्ख हैं और पराक्रम नहीं जानते हैं, अतः आप इनसे भयभीत न हों ॥ ३३-३५ ॥ हे देवेन्द्र ! इसमें कोई भी सन्देह नहीं कि भक्तवत्सल भगवान् सदाशिव हम सभी का मंगल करेंगे ॥ ३६ ॥ ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार व्याकुल हुए इन्द्र को देखकर विष्णु ने उन्हें समझाया । तब लौकिक गति का आश्रय लेनेवाले भगवान् शिव उनसे कहने लगे — ॥ ३७ ॥ ईश्वर बोले — हे हरे ! हे सरपते ! आपलोग आपस में क्या विचार-विमर्श कर रहे हैं ? [ब्रह्माजी बोले —] उन दोनों से इस प्रकार कहकर हे मुने ! पुनः उन्होंने आपसे कहा — हे नारद ! महाशैल ने क्या कहा है, आप यथार्थ रूप से सारा वृत्तान्त कहिये, आप उसे गुप्त न रखें ॥ ३८-३९ ॥ आप शीघ्रता से बताइये कि शैलराज की कन्या देने की इच्छा है अथवा नहीं ? हे तात ! आपने वहाँ जाकर क्या देखा और क्या किया ? यह सारा वत्तान्त प्रेमपर्वक कहिये ॥ ४० ॥ ब्रह्माजी बोले — हे मुने ! जब शिवजी ने आपसे यह कहा, तब दिव्य दृष्टिवाले आपने मण्डप में जो कुछ देखा था, वह सब एकान्त में इस प्रकार कहा — ॥ ४१ ॥ नारदजी बोले — हे देवदेव ! हे महादेव ! आप मेरा शुभ वचन सुनें । इस विवाह में किसी प्रकार के विघ्न दिखायी नहीं पड़ते और न तो किसी प्रकार का भय ही है ॥ ४२ ॥ शैलराज निश्चित रूप से आपको ही अपनी कन्या देना चाहते हैं और ये पर्वत इसी निमित्त आपको लेने की इच्छा से यहाँ आये हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४३ ॥ हे सर्वज्ञ ! परंतु एक बात यह है कि कुतूहलवश वहाँ सभी देवताओं को मोहित करने के लिये एक अद्भुत माया रची गयी है । इसके अतिरिक्त वहाँ और किसी प्रकार के विघ्न की सम्भावना नहीं है ॥ ४४ ॥ हे विभो ! महामाया करनेवाले विश्वकर्मा ने हिमालय की आज्ञा से उनके घर में महान् आश्चर्ययुक्त मण्डप की रचना की है । उस मण्डप में विश्वकर्मा ने सारे देवसमाज के चित्र का निर्माण किया है, उसे देखकर मैं मोहित होकर आश्चर्य में पड़ गया हूँ ॥ ४५-४६ ॥ ब्रह्माजी बोले — नारद का वचन सुनकर लोकाचार करनेवाले प्रभु शिवजी विष्णु आदि देवताओं से हँसते हुए कहने लगे — ॥ ४७ ॥ ईश्वर बोले — हे विष्णो ! यदि पर्वत हिमालय मुझे अपनी कन्या देंगे, तो आप यथार्थ रूप से बताइये कि मुझे माया से क्या प्रयोजन है ? ॥ ४८ ॥ हे ब्रह्मन् ! हे शक्र ! हे मुनिगण तथा हे देवताओ ! आपलोग यथार्थ रूप से कहिये कि हिमालय मुझे अपनी कन्या दे रहे हैं, तो माया से मेरा क्या प्रयोजन है ? ॥ ४९ ॥ न्यायशास्त्र के जानकार पण्डितों ने कहा है कि जिस किसी उपाय से अपने साध्य को प्राप्त करना चाहिये । अतः आप सभी विष्णु आदि देवगण इस कार्यसिद्धि की इच्छा से शीघ्र ही चलें ॥ ५० ॥ ब्रह्माजी बोले — देवताओं से इस प्रकार कहनेवाले जितेन्द्रिय भगवान् सदाशिव को कामदेव ने साधारण मनुष्य के समान अपने वश में कर लिया । उसके बाद शिवजी की आज्ञा से विष्णु आदि देवता एवं ऋषिगण भ्रान्त तथा मोहित करनेवाले हिमालय-गृह की ओर गये ॥ ५१-५२ ॥ हे मुने ! उन देवताओं ने आप नारद को तथा उन पर्वतों को आगेकर आश्चर्यचकित हो हिमालय के अपूर्व एवं परम अद्भुत मन्दिर की ओर प्रस्थान किया ॥ ५३ ॥ इस प्रकार हर्ष में भरे हुए विष्णु आदि देवताओं तथा प्रसन्नता से युक्त अपने गणों के साथ वे शिवजी आनन्दित होकर हिमालय के नगर के समीप आ गये ॥ ५४ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के तृतीय पार्वतीखण्ड में मण्डपरचनावर्णन नामक इकतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४१ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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