शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [तृतीय-पार्वतीखण्ड] – अध्याय 43
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
तैंतालीसवाँ अध्याय
मेना द्वारा शिव को देखने के लिये महल की छत पर जाना, नारद द्वारा सबका दर्शन कराना, शिव द्वारा अद्भुत लीला का प्रदर्शन, शिवगणों तथा शिव के भयंकर वेष को देखकर मेना का मूर्च्छित होना

मेना बोलीं — हे मुने ! मैं पहले गिरिजा के होनेवाले पति को देखूँगी । जिनके लिये उसके द्वारा उत्तम तप किया गया है, उन शिव का रूप कैसा है ? ॥ १ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे मुने ! इस प्रकार अज्ञान के वशीभूत वे मेना शिव का दर्शन करने के लिये आपके साथ शीघ्र ही चन्द्रशाला पर गयीं । हे तात ! उस समय प्रभु शिवजी भी अपने प्रति उनके अहंकार को जानकर अद्भुत लीला करके मुझसे और विष्णु से बोले — ॥ २-३ ॥

शिवमहापुराण

शिवजी ने कहा — हे तात ! आप दोनों मेरी आज्ञा से देवताओं के साथ अलग-अलग पर्वत हिमालय के दरवाजे पर चलें । हमलोग बाद में चलेंगे ॥ ४ ॥

ब्रह्माजी बोले — यह सुनकर विष्णु ने सभी देवगणों को बुलाकर वैसा करने को कहा । उसके बाद सभी देवता शिव में चित्त लगाये हुए उत्सुक होकर चलने लगे ॥ ५ ॥ हे मुने ! उसी समय शिवजी के दर्शन की इच्छा से मेना भी तुमको साथ लेकर महल की अटारी पर चढ़ गयीं । तब तुम उन्हें इस प्रकार दिखाने लगे, जिससे उनका हृदय विदीर्ण हो । हे मुने ! उस समय परम शुभ सेना को देखती हुई मेना सामान्यरूप से हर्षित हो उठीं ॥ ६-७ ॥

सबसे पहले सुन्दर वस्त्र धारण किये हुए, सुभग, शुभ, नाना प्रकार के आभूषणों से विभूषित, विविध वाहनों से युक्त, अनेक प्रकार के बाजे बजाने में तत्पर और विचित्र पताकाओं तथा अप्सराओं को अपने साथ लिये हुए गन्धर्व आये । उस समय मेना गन्धर्वपति परमप्रभु वसु को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुईं और उन्होंने पूछा कि क्या ये शिवजी हैं ? ॥ ८-१० ॥ हे ऋषिश्रेष्ठ ! तब आपने उनसे यह कहा — ये शिवजी के गण हैं, शिवा के पति शंकरजी नहीं हैं ॥ ११ ॥ यह सुनकर मेना ने विचार किया कि जो इनसे भी अधिक श्रेष्ठ है, वह कैसा होगा ॥ १२ ॥

उसी समय जो मणिग्रीव आदि यक्ष थे, उनकी सेना को उन्होंने देखा, जिनकी शोभा गन्धर्वों से दुगुनी थी ॥ १३ ॥ यक्षाधिपति मणिग्रीव को अत्यन्त शोभा से समन्वित देखकर ये शिवास्वामी रुद्र हैं — मेना ने हर्षित होकर ऐसा कहा । हे नारद ! तब तुमने कहा — ये शिवास्वामी रुद्र नहीं हैं, ये तो शिव के सेवक हैं । उसी समय अग्निदेव आ गये । मणिग्रीव की अपेक्षा उनकी दुगुनी शोभा देखकर मेना ने पूछा — क्या ये ही गिरिजा के स्वामी रुद्र हैं ? तब आपने कहा — नहीं ॥ १४-१६ ॥ तत्पश्चात् उनकी भी शोभा से द्विगुणित शोभायुक्त यम आये । उन्हें देखकर प्रसन्न होकर मेना ने कहा — क्या ये रुद्र हैं ? तब आपने उनसे कहा — नहीं, उसी समय उनसे भी द्विगुणित शोभा धारण किये हुए पुण्यजनों के प्रभु शुभ निर्ऋति आये ॥ १७-१८ ॥

उन्हें देखकर मेना ने प्रसन्न होकर कहा — क्या ये रुद्र हैं ? तब आपने उनसे कहा — नहीं । तभी वरुण आ गये । निर्ऋति से भी दुगुनी शोभा उनकी देखकर उन मेना ने कहा — ये गिरिजास्वामी रुद्र हैं ? तब आपने कहा — नहीं ॥ १९-२० ॥ तदनन्तर उनसे भी दुगुनी शोभा धारण किये वायुदेव वहाँ आये । उनको देखकर मेना ने हर्षित होकर कहा — क्या ये ही रुद्र हैं ? तब आपने उनसे कहा — नहीं । उसी समय गुह्यकपति कुबेर उनसे भी दूनी शोभा धारण किये हुए वहाँ आये ॥ २१-२२ ॥ उनको देखकर प्रसन्न हो उन मेना ने कहा — क्या ये ही रुद्र हैं ? तब आपने उनसे कहा — नहीं । इतने में ईशानदेव आ गये ॥ २३ ॥

कुबेर से भी दुगुनी उनकी शोभा देखकर मेना ने कहा — क्या ये गिरिजापति रुद्र हैं, तब आपने कहा — नहीं ॥ २४ ॥ तदनन्तर उनसे भी दुगुनी शोभा से सम्पन्न, सभी देवताओं में श्रेष्ठ, अनेक प्रकार की दिव्य कान्तिवाले और स्वर्गलोक के स्वामी इन्द्र आये ॥ २५ ॥ उनको देखकर वे मेना बोलीं — क्या ये ही शंकर हैं ? तब आपने कहा — ये देवराज इन्द्र हैं, वे नहीं हैं ॥ २६ ॥ तब उनसे भी दुगुनी शोभा धारण करनेवाले चन्द्रमा आये । उन्हें देखकर मेना बोलीं — क्या ये ही रुद्र हैं ? तब आपने कहा — नहीं । इसके बाद उनसे भी दुगुनी शोभा धारण करनेवाले सूर्य आये । उन्हें देखकर मेना ने कहा — क्या ये ही शिव हैं ? आपने कहा — नहीं ॥ २७-२८॥

इतने में तेजोराशि भृगु आदि मुनीश्वर अपने शिष्योंसहित वहाँ पहुँच गये ॥ २९ ॥ उनके मध्य में बृहस्पति को देखकर मेना बोलीं — ये ही गिरिजापति रुद्र हैं ? तब आपने कहा — नहीं ॥ ३० ॥ उसके बाद तेजों की महाराशि तथा साक्षात् धर्म के पुंज के समान मैं ब्रह्मा स्तुत होता हुआ ऋषियों तथा पुत्रों के सहित उपस्थित हुआ । हे मुने ! मुझे देखकर मेना बहुत प्रसन्न हुईं और उन्होंने कहा — क्या ये ही शिव हैं ? तब आपने उनसे कहा — नहीं ॥ ३१-३२ ॥

इसी बीच सम्पूर्ण शोभा से युक्त, श्रीमान्, मेघ के समान श्याम वर्णवाले, चार भुजाओं से युक्त, करोड़ों कामदेव के समान कमनीय, पीताम्बर धारण किये हुए, अपने तेज से प्रकाशित, कमलनयन, शान्तस्वभाव, श्रेष्ठ गरुड़पर सवार, शंख आदि लक्षणों से युक्त, मुकुट आदि से विभूषित, वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न धारण किये हुए, अप्रमेय कान्ति से सम्पन्न लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु वहाँ आये ॥ ३३–३५ ॥

उनको देखकर उनके नेत्र चकित हो गये और उन्होंने हर्ष से भरकर कहा — ये ही साक्षात् गिरिजापति शिव हैं, इसमें सन्देह नहीं ॥ ३६ ॥ तब मेनका का वचन सुनकर परम कौतुकी आपने कहा — वे शिवापति नहीं हैं, अपितु ये केशव विष्णु हैं ॥ ३७ ॥ ये शंकरजी के समस्त कार्यों के अधिकारी तथा उनके प्रिय हैं, उन पार्वतीपति शिव को इनसे भी अधिक श्रेष्ठ समझना चाहिये । हे मेने ! उनकी शोभा का वर्णन मैं नहीं कर सकता, वे ही समस्त ब्रह्माण्डों के अधिपति, सर्वेश्वर तथा स्वराट हैं ॥ ३८-३९ ॥

ब्रह्माजी बोले — नारद के वचन को सुनकर मेना ने उसको [पार्वती को] महाधनवती, भाग्यवती, तीनों कुलों (पितृकुल, मातृकुल तथा पतिकुल)—को सुख देनेवाली तथा कल्याणकारिणी समझा ॥ ४० ॥ उसके बाद प्रीतियुक्त चित्त से प्रसन्न मुखवाली मेना बार-बार अपने भाग्य की बड़ाई करती हुई कहने लगीं — ॥ ४१ ॥

मेना बोली — पार्वती के जन्म से इस समय मैं सर्वथा धन्य हो गयी, गिरीश्वर भी आज धन्य हो गये, मेरा सब कुछ धन्य हो गया । उत्तम प्रभा से युक्त जिन-जिन देवताओं एवं देवाधिपतियों को मैंने देखा — इन सबके जो स्वामी हैं, वे ही इसके पति होंगे ॥ ४२-४३ ॥ उसके भाग्य का क्या वर्णन किया जाय ! उसके द्वारा भगवान् शिव को पतिरूप में प्राप्त करने के कारण सौ वर्षों में भी पार्वती के सौभाग्य का वर्णन नहीं किया जा सकता ॥ ४४ ॥

ब्रह्माजी बोले — प्रेम से परिपूर्ण चित्तवाली मेना जब इस प्रकार कह रही थीं, उसी समय सब कुछ करने में सर्वथा समर्थ प्रभु रुद्र अद्भुत वेष धारणकर आ गये ॥ ४५ ॥ हे तात ! उनके गण भी अद्भुत थे, जो मेना के गर्व को दूर करनेवाले थे । उस समय प्रभु रुद्र अपने को माया से निर्लिप्त तथा निर्विकार दिखा रहे थे ॥ ४६ ॥ हे नारद ! हे मुने ! उस समय उनको आया देखकर परम प्रेम से आप शिवा के पति शंकर को दिखाते हुए मेना से कहने लगे — ॥ ४७ ॥

नारदजी बोले — हे सुन्दरि ! आप देखिये, ये ही वे साक्षात् शंकर हैं, जिनके निमित्त वन में पार्वती ने कठिन तप किया था ॥ ४८ ॥

ब्रह्माजी बोले — नारद के वचन को सुनकर मेना हर्षित होकर अद्भुत आकृतिवाले, अद्भुत गणों से युक्त तथा आश्चर्यजनक प्रभु शिवजी को देखने लगीं ॥ ४९ ॥ उसी समय भूत-प्रेत आदि से युक्त तथा नाना प्रकार के गणों से समन्वित अत्यन्त अद्भुत रुद्रसेना आ पहुँची ॥ ५० ॥ उनमें कोई आँधी के समान रूप धारण किये हुए थे, कोई पताका के समान मर्मर शब्द कर रहे थे, कोई वक्रतुण्ड थे तथा कोई विकृत रूपवाले, कोई विकराल थे, कोई बड़ी दाढ़ी-मूंछवाले थे, कोई लँगड़े थे, कोई अन्धे थे, कोई हाथ में दण्ड, पाश तथा कोई मुद्गर धारण किये हुए थे, कोई विरुद्ध वाहन पर सवार थे, कोई शृंगीनाद कर रहे थे, कोई डमरू बजा रहे थे, कोई गोमुख बजा रहे थे, कोई मुखरहित थे, कोई विकट मुखवाले थे, कोई गण बहुत मुखवाले थे, कोई हाथ से रहित थे, कोई विकृत हाथवाले थे, कोई गण बहुत हाथोंवाले थे । कोई नेत्रहीन, कोई बहुत नेत्रवाले, कोई बिना सिर के, कोई विकृत सिरवाले, कोई कर्णहीन तथा कोई बहुत कानवाले थे । सभी गण नाना प्रकार के वेष धारण किये हुए थे । इसी प्रकार और भी विकृत आकारवाले अनेक प्रबल गण थे । हे तात ! वे असंख्य, बड़े वीर और भयंकर थे ॥ ५१-५६ ॥

उसके बाद हे मुने ! आपने मेना को रुद्रगणों को अँगुली से दिखाते हुए कहा — हे वरानने ! आप इन शंकर के गणों को और शंकर को भी देखिये ॥ ५७ ॥

हे मुने ! भूत-प्रेत आदि असंख्य गणों को देखकर वे मेना तत्क्षण भय से अत्यन्त व्याकुल हो गयीं ॥ ५८ ॥ उन गणों के मध्य निर्गुण, परम गुणी, वृषभ पर सवार, पाँच मुख तथा तीन नेत्रवाले, शिवविभूति से विभूषित, जटाजूट से युक्त, मस्तक में चन्द्रकला से शोभित, दस भुजाओं से युक्त, कपाल धारण किये, व्याघ्रचर्म का उत्तरीय धारण किये हुए, हाथ में श्रेष्ठ पिनाक धारण किये हुए, शूल से युक्त, विरूप नेत्रवाले, विकृत आकारवाले, व्याकुल तथा गजचर्म ओढ़े हुए शिव को देखकर पार्वती की माता भयभीत हो उठीं ॥ ५९-६१ ॥

उसके अनन्तर आश्चर्यचकित, काँपती हुई, व्याकुल तथा भ्रमित बुद्धिवाली उन मेना को अँगुली के संकेत से शिवजी की ओर दिखाते हुए आपने कहा — ये ही शिव हैं । आपके उस वचन को सुनते ही वे सती मेना दुःखित होकर वायु के झोंके से गिरी हुई लता के समान शीघ्र ही पृथिवी पर गिर पड़ीं । इस विकृत रूप को देखकर दुराग्रह में फँसकर मैं ठगी गयी — ऐसा कहकर वे मेना क्षणमात्र में मूर्च्छित हो गयीं ॥ ६२-६४ ॥ उसके बाद सखियों के द्वारा अनेक प्रकार के प्रयत्नों से उपचार करने पर हिमालयप्रिया मेना को धीरे-धीरे चैतन्य प्राप्त हुआ ॥ ६५ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के तृतीय पार्वतीखण्ड में शिव की अद्भुत लीला का वर्णन नामक तैंतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४३ ॥

 

 

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