September 9, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [तृतीय-पार्वतीखण्ड] – अध्याय 44 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः चौवालीसवाँ अध्याय शिवजी के रूप को देखकर मेना का विलाप, पार्वती तथा नारद आदि सभी को फटकारना, शिव के साथ कन्या का विवाह न करने का हठ, विष्णु द्वारा मेना को समझाना ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] चेतना प्राप्तकर शैलप्रिया सती मेना अत्यन्त क्षुब्ध होकर विलाप करने लगीं और सबका तिरस्कार करने लगीं । उन्होंने व्याकुल होकर सर्वप्रथम अपने पुत्रों की निन्दा की और इसके बाद वे अपनी पुत्री को दुर्वचन कहने लगीं ॥ १-२ ॥ मेना बोली — हे मुने ! पहले आपने ही कहा था कि यह पार्वती शिव को वरण करेगी । तत्पश्चात् हिमवान् से कहकर आपने उसे तपस्या के कार्य में लगाया ॥ ३ ॥ उसका तो प्रतिकूल एवं अनर्थकारी परिणाम दिखायी पड़ा, यह सत्य है । हे दुष्टबुद्धिवाले मुने ! आपने मुझ अधम को सर्वथा धोखा दिया ॥ ४ ॥ हे मुने ! उसने मुनियों के द्वारा असाध्य परम दुष्कर जो तप किया, उसका यह फल प्राप्त हुआ, जो देखनेवालों को भी दुःख देनेवाला है । अब मैं क्या करूँ और कहाँ जाऊँ ? कौन मेरे दुःख को दूर करेगा, मेरा कुल आदि नष्ट हो गया, मेरा जीवन भी नष्ट हो गया ॥ ५-६ ॥ शिवमहापुराण वे दिव्य ऋषि कहाँ गये ? मैं उनकी दाढ़ी-मूंछ उखाड़ लूँ । जो वसिष्ठपत्नी तपस्विनी है, वह धूर्त यहाँ स्वयं आयी थी ॥ ७ ॥ किनके अपराध से मेरा सब कुछ नष्ट हो गया ऐसा कहकर पुत्री की ओर देखकर वे कटु वचन कहने लगीं ॥ ८ ॥ हे सुते ! हे दुष्टे ! तुमने मुझे दुःख देनेवाला कर्म क्यों किया ? तुझ दुष्ट ने स्वयं सोना देकर काँच ले लिया ! ॥ ९ ॥ चन्दन को छोड़कर तुमने अपने शरीर में कीचड़ का लेप कर लिया ! हंस को उड़ाकर तुमने पिंजड़े में कौआ ग्रहण कर लिया ! ॥ १० ॥ गंगाजल को दूर छोड़कर तुमने कुएँ का जल पी लिया और सूर्य को छोड़कर प्रयत्नपूर्वक जुगनू ग्रहण कर लिया ! ॥ ११ ॥ चावलों का त्यागकर भूसी खा ली और घी को छोड़कर आदरपूर्वक कारण्ड का तेल पी लिया ! ॥ १२ ॥ सिंह की सेवा छोड़कर तुमने शृगाल की सेवा की और ब्रह्मविद्या का त्यागकर तुमने कुत्सित गाथा सुनी ! ॥ १३ ॥ हे पुत्रि ! तुमने घर की परम मांगलिक यज्ञविभूति को छोड़कर अमंगल चिताभस्म को धारण किया ! ॥ १४ ॥ विष्णु आदि परमेश्वरों तथा श्रेष्ठ देवगणों को छोड़कर तुमने कुबुद्धि से शिव के निमित्त ऐसा तप किया ! ॥ १५ ॥ तुम्हें तथा तुम्हारी बुद्धि को धिक्कार है, तुम्हारे रूप तथा आचरण को धिक्कार है, तुम्हें उपदेश देनेवाले को धिक्कार है और तुम्हारी उन सखियों को भी धिक्कार है ! हे पुत्रि ! जो तुमको जन्म देनेवाले हैं — ऐसे हम दोनों को धिक्कार है । हे नारद ! आपकी बुद्धि को धिक्कार है और कुबुद्धि देनेवाले सप्तर्षियों को धिक्कार है ! ॥ १६-१७ ॥ कुल को धिक्कार है, तुम्हारी कार्यकुशलता को धिक्कार है, तुमने जो कुछ किया, उस सबको धिक्कार है, तुमने घर को नष्ट कर दिया, अब तो मेरा मरण ही है ॥ १८ ॥ ये पर्वतराज मेरे निकट न आयें और स्वयं सप्तर्षिगण भी मुझे अपना मुँह न दिखायें ॥ १९ ॥ सब लोगों ने मिलकर यह क्या किया, जिससे मेरा कल ही नष्ट हो गया । मैं वन्ध्या क्यों न हई मेरा गर्भ क्यों नहीं गिर गया । मैं ही क्यों नहीं मर गयी अथवा मेरी पुत्री ही क्यों नहीं मर गयी । आकाश में [ले जाकर] राक्षसों ने उसे क्यों नहीं खा लिया ? ॥ २०-२१ ॥ आज मैं तुम्हारा सिर काट डालूँ, अब मुझे इस शरीर से क्या करना है, किंतु क्या करूँ, तुम्हें त्यागकर भी कहाँ जाऊँ ? हाय ! मेरा जीवन ही नष्ट हो गया ॥ २२ ॥ ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार कहकर वे मेना मूर्च्छित हो पृथिवी पर गिर पड़ीं । वे शोक तथा रोष आदि से व्याकुल होने के कारण पति के पास न जा सकीं ॥ २३ ॥ हे मुनीश्वर ! उस समय सारे घर में हाहाकार मच गया, फिर सब देवता बारी-बारी से वहाँ उनके समीप आये ॥ २४ ॥ हे देवमुने ! पहले मैं स्वयं ही [उनके समीप] आया । तब हे ऋषिश्रेष्ठ ! मुझे देखकर आप उनसे यह वचन कहने लगे — ॥ २५ ॥ नारदजी बोले — [हे मेने!] तुमने शिवजी के वास्तविक सुन्दर रूप को नहीं पहचाना, शिवजी ने यह रूप लीला से धारण किया है, यह उनका यथार्थ रूप नहीं है । हे पतिव्रते ! इसलिये तुम क्रोध छोड़कर स्वस्थ हो जाओ और हठ छोड़कर कार्य करो तथा पार्वती को शंकर के निमित्त प्रदान करो ॥ २६-२७ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे नारद ! तब आपका वचन सुनकर मेना ने आपसे यह वाक्य कहा — तुम बड़े दुष्ट एवं अधम हो, उठो और यहाँ से दूर चले जाओ । उनके इस प्रकार कहने पर समस्त इन्द्रादि देवता तथा दिक्पाल क्रम से आकर मेना से यह वचन कहने लगे — ॥ २८-२९ ॥ देवता बोले — हे मेने ! हे पितृकन्ये ! प्रसन्न होकर तुम हमारी बात सुनो । ये दूसरों को सुख देनेवाले साक्षात् शिवजी हैं । भक्तवत्सल इन भगवान् शिव ने तुम्हारी पुत्री का अत्यन्त कठिन तप देखकर कृपापूर्वक उसे दर्शन देकर वर प्रदान किया ॥ ३०-३१ ॥ ब्रह्माजी बोले — इसके बाद मेना बारंबार बहुत विलाप करके देवताओं से बोली — भयानक रूपवाले शिव को मैं अपनी कन्या नहीं दूंगी ॥ ३२ ॥ आप सभी देवगण किसलिये प्रपंच में पड़े हैं और इसके श्रेष्ठ रूप को व्यर्थ करने के लिये तत्पर हैं ? ॥ ३३ ॥ हे मुनीश्वर ! उनके इस प्रकार कहने पर सभी वसिष्ठादि सप्तर्षि वहाँ आकर उनसे यह वचन कहने लगे — ॥ ३४ ॥ सप्तर्षि बोले — हे पितृकन्ये ! हे गिरिप्रिये ! हम कार्य सिद्ध करने के लिये आये हैं, जो बात ठीक है, उसे हम विपरीत कैसे मान सकते हैं ? यह सबसे बड़ा लाभ है, जो आपको शंकरजी का दर्शन प्राप्त हुआ और वे दान के पात्र होकर आपके घर आये हैं ॥ ३५-३६ ॥ ब्रह्माजी बोले — उनके इस प्रकार कहने पर मेना ने उन मुनियों के वचन को झूठा समझ लिया और वे अज्ञानतावश रुष्ट होकर उन ऋषियों से इस प्रकार कहने लगीं — ॥ ३७ ॥ मेना बोलीं — मैं शस्त्र आदि से उसका वध कर डालूँगी, किंतु शंकर के निमित्त उसे नहीं दूंगी । आप सभी दूर चले जाइये और मेरे पास मत आइयेगा ॥ ३८ ॥ ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार कहकर वे मेना चुप हो गयीं और पुनः विलाप करके अत्यन्त व्याकुल हो उठीं । हे मुने ! उस समय इस समाचार से बड़ा हाहाकार मच गया । तदनन्तर अत्यन्त व्याकुल होकर हिमालय मेना को समझाने के लिये वहाँ आये और तत्त्व की बात कहते हुए प्रेमपूर्वक उनसे कहने लगे — ॥ ३९-४० ॥ हिमालय बोले — हे मेने ! हे प्रिये ! तुम आज व्याकुल क्यों हो गयी, मेरी बात सुनो, तुम्हारे घर कौन-कौन लोग आये हैं, तुम इनकी निन्दा क्यों करती हो ? ॥ ४१ ॥ तुम शंकर को [अच्छी तरह] नहीं जानती हो, अनेक रूप और नामवाले उन शंकर के विकट रूप को देखकर व्याकुल हो गयी हो । उन शंकर को मैं जानता हूँ । वे सबका पालन करनेवाले, पूज्यों के भी पूज्य और निग्रह तथा अनुग्रह करनेवाले हैं ॥ ४२-४३ ॥ हे प्राणप्रिये ! हे पुण्यशीले ! हठ मत करो और दुःख का त्याग करो । हे सुव्रते ! शीघ्रता से उठो, कार्य करो ॥ ४४ ॥ तुम मेरी बात मानो, ये शंकर विकट रूप धारण कर द्वार पर जो आये हैं, वे अपनी लीला ही दिखा रहे हैं ॥ ४५ ॥ हे देवि ! पहले हम दोनों ने उनका श्रेष्ठ माहात्म्य देखकर ही कन्या देना स्वीकार किया था । हे प्रिये ! अब उस बात को सत्यरूप से प्रमाणित करो ॥ ४६ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे मुने ! इस प्रकार कहकर उन पर्वतराज हिमालय ने मौन धारण कर लिया । तब यह सुनकर पार्वती की माता मेना हिमालय से कहने लगीं — ॥ ४७ ॥ मेना बोली — हे नाथ ! मेरी बात सुनिये और आप वैसा ही कीजिये, इस अपनी कन्या पार्वती को पकड़कर कण्ठ में रस्सी बाँधकर निःशंक हो नीचे गिरा दीजिये, किंतु मैं शिव को उसे नहीं दूंगी अथवा हे नाथ ! हे पर्वतराज ! इस कन्या को ले जाकर दयारहित होकर समुद्र में डुबो दीजिये और इसके बाद सुखी हो जाइये । ऐसा करने से ही सुख मिलेगा । हे स्वामिन् ! यदि आप भयंकर रूपवाले रुद्र को पुत्री देंगे, तो मैं निश्चित रूप से शरीर त्याग दूंगी ॥ ४८-५० ॥ ब्रह्माजी बोले — हे नारद ! जब मेना हठपूर्वक यह बात कह रही थीं, उसी समय पार्वती स्वयं आ गयीं और मनोहर वचन कहने लगीं — ॥ ५१ ॥ पार्वती बोलीं — हे मातः ! आपकी बुद्धि विपरीत तथा अमंगलकारिणी कैसे हो गयी ? धर्म का अवलम्बन करनेवाली होने पर भी आप धर्म का त्याग क्यों कर रही हैं ? ये रुद्र सबसे श्रेष्ठ, साक्षात् ईश्वर, सबको उत्पन्न करनेवाले, शम्भु, सुन्दर रूपवाले, सुख देनेवाले तथा सभी श्रुतियों में वर्णित हैं ॥ ५२-५३ ॥ हे मातः ! ये ही महेश कल्याण करनेवाले, सर्वदेवों के प्रभु तथा स्वराट हैं । नाना प्रकार के रूप एवं नामवाले और ब्रह्मा एवं विष्णु आदि से भी सेवित हैं ॥ ५४ ॥ वे सबके कर्ता, हर्ता, अधिष्ठान, निर्विकारी, त्रिदेवेश, अविनाशी तथा सनातन हैं । इन्हीं के लिये सभी देवगण दास के समान होकर तुम्हारे द्वार पर उत्सव करते हुए आये हैं । अब इससे बढ़कर और क्या सुख होगा ? ॥ ५५-५६ ॥ अतः हे मातः ! प्रयत्नपूर्वक उठिये और अपने जीवन को सफल कीजिये, आप इन शंकरजी के निमित्त मुझे प्रदान कीजिये और अपना गृहस्थाश्रम सफल बनाइये । हे जननि ! आज आप मुझे परमेश्वर शंकर के निमित्त प्रदान कीजिये । हे मातः ! मैं आपसे कह रही हूँ, आप मेरी इस प्रार्थना को स्वीकार कीजिये ॥ ५७-५८ ॥ यदि आपने मुझे इनको नहीं दिया, तो मैं किसी दूसरे का पति के रूपमें वरण नहीं करूँगी । परवंचक शृगाल सिंह के भाग को किस प्रकार प्राप्त कर सकता है ? ॥ ५९ ॥ हे मातः ! मैंने स्वयं मन, वचन तथा कर्म से शिवजी का वरण कर लिया है, अब आप जैसा चाहती हैं, वैसा कीजिये ॥ ६० ॥ ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] पार्वती का यह वचन सुनकर पर्वतराज की प्रिया मेना बहुत विलापकर अत्यन्त क्रुद्ध होकर उनके शरीर को पकड़कर दाँतों को कटकटाती हुई व्याकुल तथा रोषयुक्त होकर मुक्के तथा केहुनों से पुत्री को मारने लगीं ॥ ६१-६२ ॥ हे तात ! हे मुने ! तदनन्तर वहाँ पर तुम तथा अन्य जो ऋषि थे, वे मेना के हाथ से पार्वती को छुड़ाकर दूर ले गये । उन सबको वैसा करते देखकर उन्हें बार-बार फटकारकर वे मेना उन्हें सुनाती हुई पुनः दुर्वचन कहने लगीं — ॥ ६३-६४ ॥ मेना बोलीं — हाय ! इस दुराग्रहशील पार्वती का अब मैं क्या करूँ ? अब निश्चय ही या तो इसे तीव्र विष दे दूँगी या कुएँ में डाल दूंगी ॥ ६५ ॥ अथवा अस्त्र-शस्त्रों से काटकर इस काली के टुकड़े-टुकड़े कर डालूँगी अथवा अपनी पुत्री इस पार्वती को समुद्र में डुबो दूंगी । अथवा मैं शीघ्र ही निश्चित स्वयं अपना शरीर त्याग दूंगी, किंतु विकट रूपधारी शिव को अपनी कन्या दुर्गा नहीं दूंगी ॥ ६६-६७ ॥ इस दुष्टा ने यह कैसा विकराल वर पाया है । ऐसा करके इसने मेरा, गिरिराज का तथा इस कुल का उपहास करा दिया ॥ ६८ ॥ इस [शंकर]-के न माता हैं, न पिता हैं, न भाई हैं, न गोत्र में उत्पन्न बन्धु हैं, न तो इसका सुन्दर रूप है, न तो इसमें चतुराई ही है, न इसके पास घर है, न वस्त्र है, न अलंकार है, इसका कोई सहायक भी नहीं हैं, इसका वाहन भी अच्छा नहीं है, इसकी वय भी [विवाहयोग्य] नहीं है । इसके पास धन भी नहीं है । न इसमें पवित्रता है, न विद्या है, इसका कष्टदायक कैसा शरीर है, फिर [इसका] क्या देखकर मैं इसे अपनी सुमंगली पुत्री प्रदान करूँ ? ॥ ६९-७१ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे मुने ! इस प्रकार बहुत विलाप करके दुःख तथा शोक से व्याप्त होकर वे मेना जोर-जोर से रोने लगीं । उसके बाद मैं शीघ्रता से आकर उन मेना से अज्ञान का हरण करनेवाले श्रेष्ठ तथा परम शिवतत्त्व का वर्णन करने लगा ॥ ७२-७३ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे मेने ! आप प्रीतिपूर्वक मेरे शुभ वचन को सुनिये, जिसके प्रेमपूर्वक सुनने से आपकी कुबुद्धि नष्ट हो जायगी ॥ ७४ ॥ शंकर जगत् की सृष्टि करनेवाले, पालन करनेवाले तथा विनाश करनेवाले हैं । आप उनके रूप को नहीं जानती हैं और दुःख क्यों उठा रही हैं ? ॥ ७५ ॥ ये प्रभु अनेक रूप तथा नामवाले, विविध लीला करनेवाले, सबके स्वामी, स्वतन्त्र, मायाधीश तथा विकल्प से रहित हैं । हे मेने ! ऐसा जानकर आप शिवा को शिवजी के लिये प्रदान कीजिये और सभी कार्य का नाश करनेवाले इस दुराग्रह तथा दुर्बुद्धि का त्याग कीजिये ॥ ७६-७७ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे मुने ! मेरे ऐसा कहने पर वे मेना बार-बार विलाप करती हुई शनैः-शनैः लज्जा त्यागकर मुझसे कहने लगीं — ॥ ७८ ॥ मेना बोलीं — हे ब्रह्मन ! आप इसके अति श्रेष्ठ रूप को किसलिये व्यर्थ कर रहे हैं ? आप इस शिवा को स्वयं मार क्यों नहीं डालते ? आप ऐसा न कहिये कि इसे शिव को दे दीजिये, मैं अपनी इस प्राणप्रिया पुत्री को शिव के निमित्त नहीं दूंगी ॥ ७९-८० ॥ ब्रह्माजी बोले — हे महामुने ! तब उनके ऐसा कहने पर सनक आदि सिद्ध आकर [मेनासे] प्रेमपूर्वक यह वचन कहने लगे — ॥ ८१ ॥ सिद्ध बोले — ये परम सुख प्रदान करनेवाले साक्षात् परमात्मा शिव हैं । इन प्रभु ने कृपा करके आपकी पुत्री को दर्शन दिया है ॥ ८२ ॥ ब्रह्माजी बोले — तब मेना ने बार-बार विलाप करते हुए उनसे भी कहा कि मैं भयंकर रूपवाले शंकर को इसे नहीं दूंगी ॥ ८३ ॥ प्रपंचवाले आप सभी सिद्ध लोग इसके श्रेष्ठ रूप को व्यर्थ करने के लिये क्यों उद्यत हुए हैं ? ॥ ८४ ॥ हे मुने ! उनके ऐसा कहने पर मैं चकित हो गया और सभी देव, सिद्ध, ऋषि तथा मनुष्य भी आश्चर्य में पड़ गये । इसी समय उनके दृढ़ तथा महान् हठ को सुनकर शिव के प्रिय विष्णुजी शीघ्र ही वहाँ आकर यह कहने लगे — ॥ ८५-८६ ॥ विष्णुजी बोले — आप पितरों की प्रिय मानसी कन्या हैं, गुणों से युक्त हैं और साक्षात् हिमालय की पत्नी हैं, आपका अत्यन्त पवित्र ब्रह्मकुल है । वैसे ही आपके सहायक भी हैं, इसलिये आप लोक में धन्य हैं, मैं विशेष क्या कहूँ । आप धर्म की आधारभूत हैं, तो आप धर्म का त्याग क्यों कर रही हैं ? ॥ ८७-८८ ॥ भला, आप ही विचार करें कि सभी देवता, ऋषि, ब्रह्माजी तथा मैं विरुद्ध क्यों बोलेंगे ? आप शिवजी को नहीं जानती हैं । वे निर्गुण, सगुण, कुरूप, सुरूप, सज्जनों को शरण देनेवाले तथा सभी के सेव्य हैं ॥ ८९-९० ॥ उन्होंने ही मूल प्रकृति ईश्वरीदेवी का निर्माण किया और उस समय उनके बगल में उन्होंने पुरुषोत्तम की भी रचना की । तदनन्तर उन दोनों से मैं तथा ब्रह्मा अपने गुण तथा रूप के अनुसार उत्पन्न हुए हैं । किंतु वे रुद्र स्वयं अवतरित होकर लोकोंका हित करते हैं ॥ ९१-९२ ॥ वेद, देवता तथा जो कुछ स्थावर-जंगमरूप जगत् दिखायी देता है, वह सब शिवजी से ही उत्पन्न हुआ है । उनके स्वरूप का वर्णन किसने किया है और उसे कौन जान सकता है ? मैं तथा ब्रह्माजी भी उनका अन्त न पा सके ॥ ९३-९४ ॥ ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त जो कुछ जगत् दिखायी देता है, उस सबको शिव समझिये, इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये । अपनी लीला से इस प्रकार के सुन्दर रूप से अवतीर्ण हुए वे [शिव] पार्वती के तप के प्रभाव से ही आपके द्वार पर आये हैं ॥ ९५-९६ ॥ इसलिये हे हिमालयपत्नि ! आप दुःख का त्याग कीजिये और शिवजी का भजन कीजिये, [ऐसा करने से] महान् आनन्द प्राप्त होगा और क्लेश नष्ट हो जायगा ॥ ९७ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे मुने ! इस प्रकार समझाने पर उन मेना का विष्णुप्रबोधित मन कुछ कोमल हो गया ॥ ९८ ॥ किंतु उस समय शिव की माया से विमोहित मेना ने हठ का परित्याग नहीं किया और शिव को कन्या देना स्वीकार नहीं किया ॥ ९९ ॥ पार्वती की माता गिरिप्रिया उन मेना ने विष्णु के मनोहर वचन को सुनकर कुछ उद्बुद्ध होकर विष्णुजी से कहा — यदि वे सुन्दर शरीर धारण करें, तो मैं अपनी कन्या दे सकती हूँ, अन्यथा करोड़ों प्रयत्नों से भी मैं नहीं दूंगी । मैं सत्य तथा दृढ़ वचन कहती हूँ ॥ १००-१०१ ॥ ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] जो सबको मोहनेवाली है, उस शिवेच्छा से प्रेरित हुई धन्य तथा दृढ़ व्रतवाली वे मेना इस प्रकार कहकर चुप हो गयीं ॥ १०२ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के तृतीय पार्वतीखण्ड में मेनाप्रबोधवर्णन नामक चौवालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४४ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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