शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [तृतीय-पार्वतीखण्ड] – अध्याय 46
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
छियालीसवाँ अध्याय
नगर में बरातियों का प्रवेश, द्वाराचार तथा पार्वती द्वारा कुलदेवता का पूजन

ब्रह्माजी बोले — तदनन्तर शिवजी प्रसन्नचित्त होकर अपने गणों, देवताओं, दूतों तथा अन्य सभी लोगों के साथ कुतूहलपूर्वक हिमालय के घर गये ॥ १ ॥ हिमालय की श्रेष्ठ प्रिया मेना भी सभी स्त्रियों के साथ उठकर अपने घर के अन्दर गयीं ॥ २ ॥ इसके बाद वे सती शिवजी की आरती के लिये हाथ में दीपक लेकर सभी ऋषियों की स्त्रियों को साथ लेकर आदरपूर्वक द्वार पर आयीं ॥ ३ ॥ वहाँ मेना ने द्वार पर आये हुए, सभी देवताओं से सेवित गिरिजापति महेश्वर शिव को बड़े प्रेम से देखा ॥ ४ ॥

शिवमहापुराण

सुन्दर चम्पक पुष्प के वर्ण के समान आभावाले, पाँच मुखवाले, तीन नेत्रवाले, मन्द मुसकान तथा प्रसन्नतायुक्त मुखवाले, रत्न तथा सुवर्ण आदिसे शोभित, मालती की माला से युक्त, उत्तम रत्नों से जटित मुकुट से प्रकाशित, गले में सुन्दर हार धारण किये हुए, सुन्दर कंगन तथा बाजूबन्द से सुशोभित, अग्नि के समान देदीप्यमान, अनुपम, अत्यन्त सूक्ष्म, मनोहर, बहुमूल्य तथा विचित्र युग्म वस्त्र धारण किये हुए, चन्दन-अगरु-कस्तूरी तथा सुन्दर कुमकुम के लेप से शोभित, हाथ में रत्नमय दर्पण लिये हुए, कज्जल के कारण कान्तिमान् नेत्रवाले, सम्पूर्ण प्रभा से आच्छन्न, अत्यन्त मनोहर, पूर्ण यौवनवाले, रम्य, सजे हुए अंगों से विभूषित, स्त्रियों को सुन्दर लगनेवाले, व्यग्रता से रहित, करोड़ों चन्द्रमा के समान मुखकमलवाले, करोड़ों कामदेव से भी अधिक शरीर की छविवाले तथा सर्वांगसुन्दर — इस प्रकार के अपने जामाता सुन्दर देव प्रभु शिव को अपने आगे स्थित देखकर मेना ने अपना शोक त्याग दिया और वे आनन्द में भर गयीं ॥ ५-११ ॥

वे अपने भाग्य, गिरिजा तथा पर्वत के कुल की प्रशंसा करने लगीं । उन्होंने अपने को कृतार्थ माना और वे बार-बार प्रसन्न होने लगीं ॥ १२ ॥ तब वे सती मेना प्रसन्नमुख होकर आरती करने लगी और आनन्दपूर्वक उन्हें देखने लगीं । वे मेना गिरिजा की कही हुई बात का स्मरणकर विस्मित हो गयीं । उनका मुखकमल हर्ष के कारण खिल उठा और वे अपने मन में कहने लगीं — उस पार्वती ने मुझसे पूर्व में जो कहा था, मैं तो उससे भी अधिक सौन्दर्य परमेश्वर को देख रही हूँ । इस समय महेश्वर का सौन्दर्य तो वर्णन से परे है । इस प्रकार विस्मित हुई मेना अपने घर के भीतर गयीं ॥ १३–१६ ॥

युवतियाँ प्रशंसा करने लगी कि गिरिजा धन्य हैं, धन्य हैं और कुछ कन्याओं ने तो यह कहा कि ये साक्षात् भगवती दुर्गा हैं ॥ १७ ॥ कुछ कन्याएँ तो इस प्रकार कहने लगी कि ये गिरिजा धन्य हैं, जो इन्हें मनोहर पति प्राप्त हुआ । हमलोगों ने तो इस प्रकार के मनोहर वर का दर्शन ही नहीं किया है ॥ १८ ॥ [उस समय] श्रेष्ठ गन्धर्व गाने लगे, अप्सराएँ नृत्य करने लगीं । सभी देवता शंकरजी के रूप को देखकर अत्यन्त हर्षित हो गये ॥ १९ ॥ बाजा बजानेवाले अनेक प्रकार के कौशल से मधुर ध्वनि में आदरपूर्वक अनेक प्रकार के वाद्य बजाने लगे ॥ २० ॥

इसके बाद हिमालय ने भी प्रसन्न होकर द्वाराचार किया । मेना ने भी आनन्दित होकर सभी स्त्रियों के साथ महोत्सवपूर्वक परिछन किया । फिर वे अपने घर में चली गयीं । इसके बाद शिवजी भी अपने गणों और देवताओं के साथ निर्दिष्ट स्थान पर चले गये ॥ २१-२२ ॥ इसी बीच हिमालय के अन्तःपुर की परिचारिकाएँ दुर्गा को साथ लेकर कुलदेवता की पूजा करने के लिये बाहर गयीं ॥ २३ ॥

वहाँ पर देवताओं ने प्रेमपूर्वक अपलक दृष्टि से नील अंजन के समान वर्णवाली, अपने अंगों से विभूषित, शिवजी के द्वारा आदृत, तीन नेत्रोंवाली, [शिवजी के अतिरिक्त] अन्य के ऊपर से हटे हुए नेत्रवाली, मन्द-मन्द हासयुक्त तथा प्रसन्न मुखमण्डलवाली, कटाक्षयुक्त, मनोहर, सुन्दर केशपाशवाली, सुन्दर पत्र-रचना से शोभित, कस्तूरी-बिन्दुसहित सिन्दूर-बिन्दु से शोभित, वक्षःस्थल पर श्रेष्ठ रत्नों के हार से सुशोभित, रत्ननिर्मित बाजूबन्द धारण करनेवाली, रत्नमय कंकणों से मण्डित, श्रेष्ठ रत्नों के कुण्डलों से प्रकाशित, सुन्दर कपोलवाली, मणि एवं रत्नों की कान्ति को फीकी कर देनेवाली दन्तपंक्ति से सुशोभित, मनोहर बिम्बफल के समान अधरोष्ठवाली, रत्नों के यावक (महावर)-से युक्त, हाथ में रत्नमय दर्पण धारण की हुई, क्रीड़ा के लिये कमल से विभूषित, चन्दन-अगरु-कस्तूरी तथा कुमकुम के लेप से सुशोभित, मधुर शब्द करते हुए घुघरुओं से युक्त चरणोंवाली तथा रक्तवर्ण के पादतल से शोभित उन देवी को देखा ॥ २४-३० ॥

उस समय सभी देवता आदि ने जगत् की आदिस्वरूपा तथा जगत् को उत्पन्न करनेवाली देवी को देखकर भक्तियुक्त हो सिर झुकाकर मेनासहित उन्हें प्रणाम किया ॥ ३१ ॥ त्रिनेत्र शंकर ने भी उन्हें अपने नेत्र के कोण से देखा और सती के रूप को देखकर विरहज्वर को त्याग दिया ॥ ३२ ॥ शिवा पर टिकाये हुए नेत्रवाले शिव सब कुछ भूल गये । गौरी को देखने से हर्ष के कारण उनके सभी अंग पुलकित हो उठे । इस प्रकार काली ने नगर के बाहर जाकर कुलदेवी का पूजनकर द्विजपत्नियों के साथ अपने पिता के रम्य घर में प्रवेश किया ॥ ३३-३४ ॥

शंकरजी भी देवताओं, ब्रह्मा तथा विष्णु के साथ हिमालय के द्वारा निर्दिष्ट अपने स्थान पर प्रसन्नतापूर्वक चले गये ॥ ३५ ॥ वहाँ पर सभी लोग गिरीश के द्वारा नाना प्रकार की सम्पत्ति से सम्मानित होकर शंकरजी की सेवा करते हुए सुखपूर्वक ठहर गये ॥ ३६ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के तृतीय पार्वतीखण्ड में वर के आगमन आदि का वर्णन नामक छियालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४६ ॥

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