September 11, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [तृतीय-पार्वतीखण्ड] – अध्याय 47 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः सैंतालीसवाँ अध्याय पाणिग्रहण के लिये हिमालय के घर शिव के गमनोत्सव का वर्णन ब्रह्माजी बोले — तदनन्तर शैलराज ने प्रसन्नतापूर्वक बड़े उत्साह से वेदमन्त्रों के द्वारा शिवा एवं शिवजी का उपनयन-संस्कार सम्पन्न कराया । तदनन्तर विष्णु आदि देवताओं एवं मुनियों ने हिमालय के द्वारा प्रार्थना किये जाने पर उनके घर के भीतर प्रवेश किया ॥ १-२ ॥ उन लोगों ने लोक तथा वेदरीति को यथार्थ रूप से सम्पन्नकर शिव के द्वारा दिये गये आभूषणों से पार्वती को अलंकृत किया । सखियों और ब्राह्मणों की पत्नियों ने पहले पार्वती को स्नान कराकर पुनः सभी प्रकार से सजाकर उनकी आरती उतारी । शंकरप्रिया तथा गिरिराजसुता वरवर्णिनी पार्वती उस समय दो नूतन वस्त्र धारण किये हुए अत्यन्त शोभित हो रही थीं ॥ ३-५ ॥ शिवमहापुराण हे मुने ! उन देवी ने अनेक प्रकार के रत्नों से जटित परम दिव्य तथा अद्भुत कंचुकी धारण की, जिससे वे अधिक शोभा पाने लगीं । तदनन्तर उन्होंने दिव्य रत्नों से जड़ा हुआ हार तथा शुद्ध सुवर्ण के बने हुए बहुमूल्य कंकणों को भी धारण किया ॥ ६-७ ॥ तीनों जगत् को उत्पन्न करनेवाली तथा महाशैल की कन्या सौभाग्यवती वे पार्वती मन में शिवजी का ध्यान करते हुए वहीं पर बैठी हुई अत्यन्त शोभित होने लगीं ॥ ८ ॥ उस समय दोनों पक्षों में आनन्ददायक महान् उत्सव हुआ और [उभयपक्ष से] नाना प्रकार के अवर्णनीय दान ब्राह्मणों को दिये गये । इसी प्रकार लोगों को भी अनेक प्रकार के दान दिये गये और वहाँ उत्सवपूर्वक गीत, वाद्य एवं विनोद सम्पन्न हुए ॥ ९-१० ॥ तब मैं ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र आदि सभी देवगण तथा सभी मुनिलोग बड़ी प्रसन्नता के साथ आनन्दपूर्वक उत्सव मनाकर भक्तिपर्वक पार्वती को प्रणामकर तथा शिवजी के चरणकमलों का ध्यानकर हिमालय की आज्ञा प्राप्त करके अपने-अपने स्थान पर बैठ गये । इसी समय वहाँ ज्योतिःशास्त्र के पारंगत विद्वान् गर्गाचार्य उन गिरिराज हिमालय से यह वचन कहने लगे — ॥ ११-१३ ॥ गर्ग बोले — हे हिमालय ! हे धराधीश ! हे स्वामिन् ! हे काली के पिता ! हे प्रभो ! अब आप पाणिग्रहण के निमित्त शिवजी को अपने घर पर ले आइये ॥ १४ ॥ ब्रह्माजी बोले — तत्पश्चात् गर्ग के द्वारा निर्देश किये गये कन्यादान के लिये उचित समय को जानकर हिमालय मन में अत्यन्त प्रसन्न हुए ॥ १५ ॥ हिमालय ने आनन्दित होकर [उसी समय] पर्वतों, द्विजों तथा अन्य लोगों को भी अत्यन्त प्रेम के साथ शिवजी को बुलाने की इच्छा से भेजा । वे पर्वत तथा ब्राह्मण हाथों में सभी मांगलिक वस्तुएँ लेकर महान् उत्सव करते हुए प्रेमपूर्वक वहाँ गये, जहाँ भगवान् महेश्वर थे ॥ १६-१७ ॥ उस समय गीत-नृत्यसहित वाद्यध्वनि तथा वेदध्वनि से महान् उत्सव होने लगा ॥ १८ ॥ वाद्यों के शब्द को सुनकर शंकरजी के सभी सेवक, देवता, ऋषि तथा गण आनन्दित होकर एक साथ ही उठ खड़े हुए और वे हर्ष से परिपूर्ण होकर परस्पर कहने लगे — शिवजी को बुलाने की इच्छा से [गिरिराज के द्वारा भेजे गये] पर्वत यहाँ आ रहे हैं ॥ १९-२० ॥ निश्चय ही पाणिग्रहण का काल शीघ्र उपस्थित हो गया है, अतः सभी का महाभाग्य उपस्थित हो गया है — ऐसा हमलोग मानते हैं । हमलोग विशेष रूप से धन्य हैं, क्योंकि हमलोग संसार के मंगलों के स्थान स्वरूप शिवाशिव के विवाह को अत्यन्त प्रेम से देखेंगे ॥ २१-२२ ॥ ब्रह्माजी बोले — जब आदरपूर्वक उनका यह संवाद हो रहा था, उसी समय गिरिराज के सभी मन्त्री वहाँ आ गये । उन लोगों ने जा करके विष्णु आदि तथा शंकर से प्रार्थना की कि कन्यादान का उचित समय उपस्थित हो गया है, अब आप लोग चलें ॥ २३-२४ ॥ यह सुनकर वे विष्णु आदि सभी देवता मन-ही-मन अत्यन्त प्रसन्न हुए और जोर-जोर से गिरिराज हिमालय की जय-जयकार करने लगे ॥ २५ ॥ इधर, शिवजी भी काली को प्राप्त करने की लालसा से अत्यन्त प्रसन्न हो उठे, किंतु अद्भुत रूपवाले उन शिव ने उसके लक्षण को मन में गुप्त रखा । इसके उपरान्त लोक पर कृपा करनेवाले शूलधारी ने परम प्रसन्न होकर मांगलिक द्रव्यों से युक्त [जल से] स्नान किया ॥ २६-२७ ॥ सभी लोकपालों ने स्नान किये हुए तथा सुन्दर वस्त्र से युक्त उन शिव को चारों ओर से घेरकर उनकी सेवा की तथा उन्हें वृषभ के स्कन्ध पर बैठाया । इसके बाद प्रभु को आगे करके सभी लोग हिमालय के घर की ओर चल पड़े । वे वाद्य बजाते हुए कुतूहल कर रहे थे ॥ २८-२९ ॥ उस समय हिमालय के द्वारा भेजे गये ब्राह्मण तथा श्रेष्ठ पर्वतगण कुतूहल से युक्त होकर शिवजी के आगे-आगे चल रहे थे । मस्तक पर विशाल छत्र लगाये हुए, चँवर डुलाये जाते एवं वितान से युक्त वे महेश्वर अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे । उस समय आगे-आगे चलते हुए मैं, विष्णु, इन्द्र तथा समस्त लोकपाल परम ऐश्वर्य से युक्त होकर सुशोभित हो रहे थे ॥ ३०-३२ ॥ उस महोत्सव में शंख, भेरियाँ, नगाड़े, बड़े-बड़े ढोल तथा गोमुख आदि बाजे बार-बार बज रहे थे ॥ ३३ ॥ सभी गायक भी मंगलगीत गा रहे थे तथा सभी नर्तकियाँ अनेक प्रकार के तालों के साथ नाच रही थीं ॥ ३४ ॥ उस समय इन सभीके साथ जगत् के एकमात्र बन्धु शिव परम तेज से युक्त होकर समस्त हर्षित सुरेश्वरों के द्वारा सेवित होते हुए तथा अपने ऊपर पुष्प विकीर्ण किये जाते हुए चल रहे थे ॥ ३५ ॥ तत्पश्चात् सभी लोगों से भली-भाँति पूजित होकर शम्भु ने यज्ञमण्डप में प्रवेश किया, उस समय सभी लोग उन परमेश्वर की नाना प्रकार के स्तोत्रों से स्तुति कर रहे थे ॥ ३६ ॥ श्रेष्ठ पर्वतों ने शिवजी को वृषभ से उतारा और प्रेम के साथ महोत्सवपूर्वक उन्हें घर के भीतर ले गये ॥ ३७ ॥ हिमालय ने भी देवताओं तथा गणोंसहित आये हुए ईश्वर को विधिवत् भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और उनकी आरती उतारी ॥ ३८ ॥ [इसी प्रकार] उत्साहयुक्त होकर उन्होंने सभी देवताओं, मुनियों तथा अन्य लोगों को प्रणामकर अपने भाग्य की प्रशंसा करते हुए प्रेमपूर्वक उन सबका सम्मान किया ॥ ३९ ॥ वे हिमालय विष्णु और प्रमुख देवसमुदायसहित ईशान को उत्तम पाद्य तथा अर्घ्य प्रदानकर उन्हें अपने घर में ले गये और उन्होंने आँगन में रत्न के सिंहासन पर विशेष-विशेष देवताओं को, मुझे, विष्णु को, ईश को तथा सभी विशिष्ट लोगों को आदरपूर्वक बैठाया ॥ ४०-४१ ॥ मेना ने भी बड़े प्रेम से अपनी सखियों, ब्राह्मणस्त्रियों तथा अन्य पुरन्ध्रियों के साथ मुदित होकर शिवजी की आरती उतारी । कर्मकाण्ड के ज्ञाता पुरोहित ने मधुपर्कदान आदि जो-जो कृत्य था, वह सब महात्मा शंकर के लिये सम्पन्न किया ॥ ४२-४३ ॥ हे मुने ! पुरोहित ने मेरे द्वारा प्रेरित होकर प्रस्ताव के अनुकूल जो मांगलिक कार्य था, उसे किया ॥ ४४ ॥ उसके बाद अन्तर्वेदी में बड़े प्रेम से प्रविष्ट होकर हिमालय वेदी के ऊपर समस्त आभूषणों से विभूषित तन्वंगी कन्या पार्वती जहाँ विराजमान थीं, वहाँ विष्णु तथा मेरे साथ महादेवजी को ले गये । उस समय वहाँ बृहस्पति आदि देवता कन्यादानोचित लग्न की प्रतीक्षा करते हए अत्यन्त आनन्दित हो रहे थे ॥ ४५-४७ ॥ जहाँ घटिकायन्त्र स्थापित था, वहीं पर गर्गाचार्य बैठे हुए थे । विवाह की घड़ी आने तक वे प्रणव का जप कर रहे थे । गर्गाचार्य ने पुण्याहवाचन करते हुए अक्षतों को पार्वती की अंजलि में दिया, तब पार्वती ने प्रेमपूर्वक शिव के ऊपर अक्षतों की वर्षा की । इसके बाद परम उदार तथा सुन्दर मुखवाली उन पार्वती ने दही, अक्षत तथा कुश के जल से शिवजी की पूजा की ॥ ४८-५० ॥ जिनके लिये उन शिवा ने पूर्वकाल से अत्यन्त कठोर तप किया था, उन शम्भु को प्रेमपूर्वक देखती हुई वे अत्यन्त शोभित हो रही थीं । हे मुने ! तदनन्तर मेरे एवं गर्ग आदि मुनियों के कहने पर सदाशिव ने लौकिक विधि का आश्रयणकर पार्वती का पूजन किया । इस प्रकार जगन्मय पार्वती तथा परमेश्वर परस्पर एक-दूसरे का सत्कार करते हुए परम शोभा को प्राप्त हो रहे थे । लक्ष्मी आदि देवियों ने त्रैलोक्य की शोभा से समन्वित होकर एक-दूसरे की ओर देखते हुए उन दोनों की विशेषरूप से आरती उतारी ॥ ५१-५४ ॥ तत्पश्चात् ब्राह्मणों की स्त्रियों तथा नगर की अन्य स्त्रियों ने उनकी आरती की । उस समय शिवा तथा शिव को उत्सुकतापूर्वक देखती हुई वे सब बहुत आनन्दित हुईं ॥ ५५ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के तृतीय पार्वतीखण्ड में हिमालय के घर शिव के गमनोत्सव का वर्णन नामक सैंतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४७ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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