September 11, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [तृतीय-पार्वतीखण्ड] – अध्याय 50 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः पचासवाँ अध्याय शिवा-शिव के विवाह-कृत्य-सम्पादन के अनन्तर देवियों का शिव से मधुर वार्तालाप ब्रह्माजी बोले — हे नारद ! तदनन्तर मैंने शिवजी की आज्ञा से मुनियों के साथ परमप्रीति से शिवा-शिव के विवाह के शेष कृत्यों का सम्पादन किया । उन दोनों के सिर पर आदरपूर्वक मांगलिक अभिषेक हुआ और ब्राह्मणों ने आदर के साथ उन्हें ध्रुवदर्शन कराया ॥ १-२ ॥ हे विप्रेन्द्र ! उसके बाद हृदयालम्भन का कर्म तथा बड़े महोत्सव के साथ स्वस्तिवाचन हुआ ॥ ३ ॥ शिवमहापुराण ब्राह्मणों की आज्ञा से शम्भु ने शिवा की माँग में सिन्दूर लगाया, उस समय गिरिजा अत्यन्त अद्भुत अवर्णनीय रूपवती हो गयीं । तत्पश्चात् ब्राह्मणों की आज्ञा से दोनों एक आसन पर विराजमान हुए और भक्तों के चित्त को आनन्द देनेवाली अपूर्व शोभा से सम्पन्न हो गये ॥ ४-५ ॥ हे मुने ! तदनन्तर अद्भुत लीला करनेवाले उन दोनों ने अपने स्थान पर आकर मेरी आज्ञा से प्रसन्नतापूर्वक संस्रव-प्राशन (अग्नि में घी की आहुति देकर स्रुवा में अवशिष्ट घृत को जलयुक्त प्रोक्षणीपात्र में डालने की विधि है । प्रत्येक आहुति में ऐसा किया जाता है । प्रोक्षणीपात्र में डाले हए घी को ही ‘संस्रव’ कहते हैं । अन्त में यजमान उसे पीता है । इसीको ‘संस्रवप्राशन’ कहा गया है।) किया । इस प्रकार विवाह-यज्ञ के विधिवत् सम्पन्न हो जाने पर प्रभु शिव ने मुझ लोककर्ता ब्रह्मा को पूर्णपात्र का दान किया । तत्पश्चात् शिवजी ने आचार्य को विधिपूर्वक गोदान दिया तथा मंगल प्रदान करनेवाले जो अन्य महादान हैं, उन्हें भी बड़े प्रेम से दिया ॥ ६-८ ॥ उसके बाद उन्होंने बहुत-से ब्राह्मणों को अलग-अलग सौ-सौ स्वर्णमुद्राएँ, करोड़ों रत्न तथा अनेक प्रकार के द्रव्य दिये । उस समय सभी देवगण एवं अन्य चराचर जीव हृदय से अत्यन्त प्रसन्न हुए और जोर-जोर से जयध्वनि होने लगी । सभी ओर मंगल-ध्वनि के साथ गान होने लगा और सबके आनन्द को बढ़ानेवाली रम्य वाद्य-ध्वनि होने लगी । उसके बाद मेरे साथ विष्णु, देवता, मुनिगण तथा अन्य लोग हिमालय से आज्ञा लेकर प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने निवासस्थान को गये ॥ ९-१२ ॥ उस समय हिमालय के नगर की स्त्रियाँ प्रसन्न होकर शिवा एवं शिव को लेकर दिव्य कोहवर-घर में गयीं ॥ १३ ॥ वहाँ पर वे स्त्रियाँ आदर के साथ लौकिकाचार करने लगीं । चारों ओर आनन्द प्रदान करनेवाला महान् उत्साह फैल गया । उसके बाद उन सबने लोगों का कल्याण करनेवाले उन शिव-शिवा को महादिव्य निवासस्थान में ले जाकर प्रसन्नतापूर्वक लौकिकाचार किया ॥ १४-१५ ॥ तत्पश्चात् हिमालय के नगर की स्त्रियाँ समीप में आकर मंगलकर्म करके दम्पती को घर में ले गयीं ॥ १६ ॥ वे जय-जयकार कर ग्रन्थि-बन्धन खोलने लगीं । उस समय वे कटाक्ष करती हुईं मन्द-मन्द हँस रही थीं और उनका शरीर रोमांचित हो रहा था ॥ १७ ॥ वे श्रेष्ठ स्त्रियाँ वासगृह में प्रवेश करते ही मोहित हो गयीं और सुन्दर रूप तथा वेषवाले, सम्पूर्ण लावण्य से युक्त, नवीन यौवन से परिपूर्ण, कामिनियों के चित्त को मोहित करनेवाले, मन्द-मन्द मुसकानयुक्त प्रसन्न मुखमण्डलवाले, कटाक्षयुक्त, अत्यन्त सुन्दर, अत्यन्त सूक्ष्म वस्त्र धारण किये हुए और अनेक रत्नों से विभूषित परमेश्वर को देखती हुईं अपने-अपने भाग्य की प्रशंसा करने लगीं ॥ १८-२० ॥ उस समय सोलह दिव्य नारियाँ बड़े आदर के साथ इन दम्पती को देखने के लिये शीघ्र ही पहुँच गयीं । सरस्वती, लक्ष्मी, सावित्री, जाह्नवी, अदिति, शची, लोपामुद्रा, अरुन्धती, अहल्या, तुलसी, स्वाहा, रोहिणी, वसुन्धरा, शतरूपा, संज्ञा और रति — ये देवस्त्रियाँ हैं । अन्य जो-जो मनोहर देवकन्याएँ एवं मुनिकन्याएँ वहाँ स्थित थीं, उनकी गणना करने में कौन समर्थ है ॥ २१-२४ ॥ उनके द्वारा दिये गये रत्न के आसन पर शिवजी प्रसन्नता के साथ बैठे । इसके बाद सब देवियाँ क्रम से मन्द-मन्द हँसती हुईं उनसे मधुर वचन कहने लगीं — ॥ २५ ॥ सरस्वती बोलीं — हे महादेव ! अब प्राणों से भी अधिक प्यारी सतीदेवी आपको प्राप्त हो गयी हैं । हे कामुक ! इनके चन्द्रमा के समान आभावाले प्रिय मुख को प्रसन्नतापूर्वक देखकर आप सन्ताप को त्याग दीजिये ॥ २६ ॥ हे कालेश ! आप इस सती का आलिंगन करते हुए अपना समय व्यतीत कीजिये । सभी समय आपके आश्रित रहनेवाली इस सखी से आपका वियोग नहीं होगा ॥ २७ ॥ लक्ष्मी बोलीं — हे देवेश ! अब लज्जा का त्यागकर सती को अपने वक्षःस्थल में स्थित कीजिये, जिसके बिना आपके प्राण निकल रहे थे, उसके प्रति कौन-सी लज्जा ! ॥ २८ ॥ सावित्री बोलीं — हे शम्भो ! सती को भोजन कराकर आप भी शीघ्र भोजन कीजिये, किसी बात का खेद मत कीजिये और आचमन करके सती को आदर से कपूरमिश्रित ताम्बूल दीजिये ॥ २९ ॥ जाह्नवी बोलीं — अब इस सुवर्णकान्तिवाली पार्वती के केशों को पकड़कर सँवारिये; क्योंकि कामिनी स्त्रियों का इससे बढ़कर और कोई पति से प्राप्त होनेवाला सौभाग्यसुख नहीं होता ॥ ३० ॥ अदिति बोलीं — हे शिवे ! आप भोजन के पश्चात् मुख शुद्ध करने के लिये शम्भु को अति प्रेम से जल प्रदान कीजिये; क्योंकि दम्पती का परस्पर प्रेम [सर्वथा] दुर्लभ है ॥ ३१ ॥ शची बोलीं — जिसके लिये आप मोहवश विलाप करते-करते [दर-दर] भटक रहे थे, उस शिवा को वक्षःस्थल पर धारण कीजिये, उस प्रिया के प्रति आपको लज्जा क्यों ?॥ ३२ ॥ लोपामुद्रा बोलीं — हे शंकर ! भोजन करके आप वासगृह में जाइये, यह स्त्रियों का व्यवहार है । आप शिवा को ताम्बूल देकर शयन कीजिये ॥ ३३ ॥ अरुन्धती बोलीं — हे शिव ! मेना आपके निमित्त पार्वती को देना नहीं चाहती थीं, किंतु मेरे बहुत समझाने पर उन्होंने पार्वती को देना स्वीकार किया, अब आप इनसे अधिक प्रेम कीजिये ॥ ३४ ॥ अहल्या बोलीं — अब आप वृद्धावस्था को छोड़कर पूर्ण युवा हो जाइये, जिससे कन्या देनेवाली इस मेना को पुत्रीदान से सन्तुष्टि प्राप्त हो जाय ॥ ३५ ॥ तुलसी बोलीं — हे प्रभो ! आपने पूर्वकाल में सती का त्याग किया, उसके बाद कामदेव को जलाया, अब आपने [पार्वती को प्राप्त करने के लिये] हिमालय के घर वसिष्ठ को कैसे भेजा ? ॥ ३६ ॥ स्वाहा बोलीं — हे महादेव ! अब आप स्त्रियों के वचन में स्थिर हो जाइये; क्योंकि विवाह में स्त्रियों की प्रगल्भता एक व्यवहार होता है ॥ ३७ ॥ रोहिणी बोलीं — हे कामशास्त्रविशारद ! अब आप पार्वती की कामना पूर्ण कीजिये, आप स्वयं कामी हैं, अतः कामिनी के कामसागर को पार कीजिये ॥ ३८ ॥ वसुन्धरा बोलीं — हे भावज्ञ ! आप कामार्त स्त्रियों के भाव को जानते हैं । हे शम्भो ! स्त्री अपने स्वामी की ईश्वरभाव से निरन्तर सेवा करती है, वह पति के अतिरिक्त अपनी किसी भी वस्तु की रक्षा करना नहीं चाहती ॥ ३९ ॥ शतरूपा बोलीं — भूख से तड़पता हुआ व्यक्ति दिव्य सुख का भोग किये बिना सन्तुष्ट नहीं होता । अतः हे शम्भो ! जिससे स्त्री को सन्तुष्टि हो, आपको वही करना उचित है ॥ ४० ॥ संज्ञा बोलीं — [हे सखि!] रत्नदीपक जलाकर एकान्त में पलंग बिछाकर और उस पर ताम्बूल रखकर परम प्रीति से शीघ्रतापूर्वक शिवा के साथ शिव को स्थापित करो ॥ ४१ ॥ ब्रह्माजी बोले — स्त्रियों के वे वचन सुनकर निर्विकार एवं महान् योगियों के गुरु के भी गुरु भगवान् शंकरजी उनसे स्वयं कहने लगे — ॥ ४२ ॥ शंकरजी बोले — हे देवियो ! मेरे समीप इस प्रकार के वचन को आपलोग न बोलें, आप सब पतिव्रताएँ एवं जगत् की माताएँ हैं, फिर पुत्र के विषय में इस प्रकार की चपलता क्यों ? ॥ ४३ ॥ ब्रह्माजी बोले — शंकर की यह बात सुनकर सभी देवस्त्रियाँ लज्जित हो गयीं और सम्भ्रम के कारण चित्रलिखित पुतलियों की भाँति चुप हो गयीं ॥ ४४ ॥ तदनन्तर मिष्टान्न ग्रहणकर आचमन कर प्रसन्नचित्त महेश ने पार्वती के साथ कर्पूरयुक्त पान का सेवन किया ॥ ४५ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के तृतीय पार्वतीखण्ड में परिहासवर्णन नामक पचासवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५० ॥ Related