शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [तृतीय-पार्वतीखण्ड] – अध्याय 54
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
चौवनवाँ अध्याय
मेना की इच्छा के अनुसार एक ब्राह्मणपत्नी का पार्वती को पातिव्रतधर्म का उपदेश देना

ब्रह्माजी बोले — उसके बाद सप्तर्षियों ने हिमालय से कहा — आज गिरिजा की विदाई के लिये उत्तम मुहूर्त है, अतः आप अपनी पुत्री पार्वती की विदाई कर दीजिये ॥ १ ॥ हे मुनीश्वर ! यह बात सुनकर वे हिमालय पार्वती-वियोग-जन्य दुःख का स्मरणकर कुछ देर के लिये व्याकुल हो गये ॥ २ ॥ फिर कुछ काल के अनन्तर चेतना प्राप्त होने पर ‘ऐसा ही होगा’ — यह कहकर उन्होंने मेना को सन्देश भेजा ॥ ३ ॥

शिवमहापुराण

हे मुने ! शैल का सन्देश सुनकर मेना हर्ष तथा शोक से युक्त हो गयीं और गिरिजा को विदा कराने के लिये उद्यत हो गयीं ॥ ४ ॥ हे मुने ! हिमाचलप्रिया उन मेना ने प्रथम वेद तथा अपने कुल की रीति सम्पन्न की, फिर पार्वती की यात्रा के निमित्त वे नाना प्रकार के मंगलविधान करने लगीं ॥ ५ ॥ उन्होंने पार्वती को अनेक रत्नों तथा श्रेष्ठ वस्त्रों से और राजकुलोचित श्रृंगारों तथा उत्तमोत्तम द्वादश आभरणों से अलंकृत किया । तदनन्तर मेना के मन की बात जानकर एक पतिव्रता ब्राह्मणपत्नी गिरिजा को श्रेष्ठ पातिव्रतधर्म का उपदेश देने लगी — ॥ ६-७ ॥

ब्राह्मणपत्नी बोली — हे गिरिजे ! तुम प्रेमपूर्वक मेरा यह वचन सुनो । मेरे ये वचन स्त्रियों को इस लोक तथा परलोक में सुख देनेवाले हैं तथा इनके सुनने से भी स्त्रियों का कल्याण हो जाता है ॥ ८ ॥ इस जगत् में पतिव्रता नारी ही धन्य है, इसके अतिरिक्त और कोई नारी पूजा के योग्य नहीं है । वह सब लोगों को पवित्र करनेवाली तथा समस्त पापों को दूर करनेवाली है ॥ ९ ॥

हे शिवे ! जो स्त्री अपने स्वामी की परमेश्वर के समान सेवा करती है, वह यहाँ अनेक भोगों को भोगकर अन्त में पति के साथ उत्तम गति को प्राप्त होती है ॥ १० ॥ सावित्री, लोपामुद्रा, अरुन्धती, शाण्डिल्या, शतरूपा, अनसूया, लक्ष्मी, स्वधा, सती, संज्ञा, सुमति, श्रद्धा, मेना और स्वाहा आदि बहुत-सी पतिव्रताएँ हैं, जिन्हें विस्तार के भय से यहाँ नहीं कह रही हूँ ॥ ११-१२ ॥ ये सभी पातिव्रत्यधर्म के प्रभाव से ही जगत् में मान्य तथा पूज्य हुईं । ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर एवं अन्य मुनीश्वरों ने भी इनका सम्मान किया है ॥ १३ ॥

इसलिये तुम्हें अपने पति शंकर की विशेष रूप से सेवा करनी चाहिये; क्योंकि ये दीनों पर अनुग्रह करनेवाले एवं पूज्य होने के कारण सबके सेव्य हैं और सज्जनों के गतिदाता हैं ॥ १४ ॥ पतिव्रताओं का धर्म महान् है, जिसका वर्णन श्रुतियों तथा स्मृतियों में भरा हुआ है । निश्चय ही पातिव्रत्यधर्म जितना श्रेष्ठ है, उतना अन्य धर्म श्रेष्ठ नहीं है ॥ १५ ॥ स्त्री को चाहिये कि जब अपना प्रिय पति भोजन कर ले, तब स्वयं पतिभक्ति में परायण होकर भोजन करे । हे शिवे ! जब पति खड़ा हो, तब साध्वी स्त्री को भी खड़ा ही रहना चाहिये ॥ १६ ॥

पति के सो जाने पर स्वयं शयन करे और उसके उठने से पहले स्वयं जाग जाय, पति का सर्वदा छलरहित हो हित करे । हे शिवे ! कभी अलंकार से रहित हो अपने स्वामी के सम्मुख न जाय । जब स्वामी कार्यवश परदेश चला जाय, तो कभी शरीर का संस्कार एवं शृंगार न करे ॥ १७-१८ ॥ पतिव्रता स्त्री को चाहिये कि वह पति का नाम कभी न ले, पति के द्वारा क्रुद्ध होकर कठोर वचन कहने पर भी उसे बुरा वचन न कहे और पति के शासित करने पर भी प्रसन्न रहे । उस समय भी यही कहे कि स्वामिन् ! और अधिक दण्ड देकर मेरे ऊपर कृपा कीजिये ॥ १९ ॥

पति के बुलाने पर घर का सारा कामकाज छोड़कर उनके समीप जाय और शीघ्रता से प्रणामकर हाथ जोड़कर उनसे प्रेमपूर्वक कहे । हे स्वामिन् ! आपने किसलिये बुलाया है, कृपाकर आज्ञा दीजिये, इसके बाद उस आज्ञा को प्रसन्नतापूर्वक सम्पन्न करना चाहिये ॥ २०-२१ ॥ दरवाजे पर खड़ी होकर बहुत काल तक इधर-उधर न देखे और न तो दूसरे के घर जाय । किसी का भेद लेकर किसी अन्य के सामने उसको प्रकाशित न करे ॥ २२ ॥ बिना कहे ही पति के लिये पूजन की सामग्री प्रस्तुत करे और पति के हित के लिये निरन्तर अवसर की प्रतीक्षा करती रहे । पति की आज्ञा के बिना कभी भी तीर्थयात्रा के लिये न जाय और किसी समाज तथा उत्सव को देखने के लिये भी न जाय । जिस स्त्री को तीर्थयात्रा की इच्छा हो, वह अपने स्वामी का चरणामृत लेकर सन्तुष्ट हो जाय; क्योंकि पति के चरणोदक में सभी तीर्थ एवं क्षेत्र निवास करते हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ २३-२५ ॥

पति के भोजन करने के पश्चात् उसका उच्छिष्ट जो भी इष्ट अन्नादि हो, उसे पतिप्रदत्त महाप्रसाद समझकर पतिव्रता स्त्री भोजन करे । देवता, पितर, अतिथि, सेवक, गौ एवं भिक्षुक को बिना दिये अन्न का भोजन न करे ॥ २६-२७ ॥ घर की समग्र सामग्री ठीक तरह से रखे, नित्य उत्साहयुक्त तथा सावधान रहे और अधिक व्यय न करे, इस प्रकार सर्वदा पातिव्रत्यधर्म का पालन करे ॥ २८ ॥ पति की आज्ञा के बिना कोई उपवास तथा व्रत न करे अन्यथा उसका फल नहीं होता और उसे नरक की प्राप्ति होती है । सुखपूर्वक आनन्द से बैठे हुए तथा अपनी इच्छा से रमण करते हुए पति को आवश्यक कार्य आ पड़ने पर भी न उठाये । पति क्लीब, दुर्गति में पड़ा हुआ, वृद्ध, रोगी, सुखी अथवा दुखी चाहे जैसा ही क्यों न हो, उसका अपमान न करे ॥ २९-३१ ॥

मासिक धर्म प्राप्त हो जाने पर आरम्भ से तीन रात्रिपर्यन्त अपना मुख पति को न दिखाये और जब तक चौथे दिन स्नान से शुद्ध न हो, अपना शब्द भी न सुनाये ॥ ३२ ॥ ऋतुस्नान करने के पश्चात् पति का ही मुख देखे, कभी अन्य का मुख न देखे अथवा पति के न होने पर पति का ध्यानकर सूर्य का दर्शन करे ॥ ३३ ॥ पति के आयुष्य की इच्छा करनेवाली पतिव्रता स्त्री को हरिद्रा, कुंकुम, सिन्दूर, काजल, कूर्पासक, ताम्बूल, मांगलिक आभूषण, केशों का संस्कार, केशपाश बनाना, हाथ में कंगन एवं कानों में कर्णफूल नित्य धारण करना चाहिये, इसका परित्याग कभी किसी भी अवस्था में न करे ॥ ३४-३५ ॥

धोबिन, वन्ध्या, व्यभिचारिणी, संन्यासिनी अथवा दुर्भाग्ययुक्त स्त्री से कभी मित्रता न करे । जो स्त्री अपने पति से द्वेष करती हो, उससे बातचीत न करे, कभी अकेली न रहे और न नग्न होकर कभी स्नान करे ॥ ३६-३७ ॥ ओखली, मूसल, बुहारी (झाड़), सिल, लोढ़ा तथा देहली पर सती स्त्री कभी न बैठे ॥ ३८ ॥ सहवास के अतिरिक्त और किसी समय पति से धृष्टता न करे । अपना पति जिससे प्रेम करे, उसीसे प्रेम करे ॥ ३९ ॥ पति के प्रसन्न होने पर प्रसन्न रहे, पति के दुखी होने पर दुखी रहे तथा पति के प्रिय में ही अपना प्रिय समझे । इस प्रकार पतिव्रता स्त्री सदैव पति के हित की इच्छा करे ॥ ४० ॥

पतिव्रता स्त्री सदैव सम्पत्ति तथा विपत्ति दोनों अवस्थाओं में एकरूप रहे । विकार उपस्थित होने पर कभी विकृत न हो और सदैव धैर्य धारण करे ॥ ४१ ॥ घी, नमक, तेल आदि के न होने पर भी पतिव्रता स्त्री पति से ‘नहीं है’ — ऐसा न कहे और पति को किसी असाध्य कार्य में नियुक्त न करे । ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव से भी अधिक पति का महत्त्व है । अतः हे देवेशि ! पतिव्रता अपने पति को साक्षात् शिवस्वरूप ही समझे ॥ ४२-४३ ॥

पति की आज्ञा का उल्लंघन करके जो स्त्री व्रत, उपवास तथा नियमादि का आचरण करती है, वह अपने पति की आयु का हरण करती है और मरने पर नरक प्राप्त करती है । जो स्त्री क्रुद्ध होकर पति के कुछ कहने पर उसका प्रत्युत्तर करती है, वह ग्राम की कुतिया अथवा निर्जन वन में शृगाली होती है ॥ ४४-४५ ॥ स्त्री को चाहिये कि वह पति से ऊँचे स्थान पर न बैठे, दुष्टों के समीप न जाय और कभी भी पति से कातर वाक्य न कहे । किसी की निन्दा या आक्षेपयुक्त बात न कहे, दूर से ही कलह का परित्याग करे, गुरुजनों के समीप कभी जोर से न बोले और न जोर से हँसे ॥ ४६-४७ ॥

पति को बाहर से आया हुआ देखकर शीघ्रता से अन्न, जल, भोजन, ताम्बूल, वस्त्र, पादसंवाहन, खेद दूर करनेवाले मीठे वचन के द्वारा जो स्त्री अपने स्वामी को प्रसन्न रखती है, मानो उसने त्रैलोक्य को प्रसन्न कर लिया ॥ ४८-४९ ॥ माता, पिता, पुत्र, भाई तो स्त्री को बहुत थोड़ा ही सुख देते हैं, परंतु पति तो अपरिमित सुख देता है । इसलिये स्त्री को चाहिये कि वह पति का सदैव पूजन करे ॥ ५० ॥ पति ही देवता, गुरु, भर्ता, धर्म, तीर्थ एवं व्रतादि सब कुछ है । इसलिये सब कुछ छोड़कर एकमात्र पति का ही पूजन करे । जो दुष्ट स्त्री अपने पति को छोड़कर एकान्त में दूसरे के पास जाती है, वह वृक्ष के कोटर में रहनेवाली उलूकी होती है ॥ ५१-५२ ॥

जो स्वामी के द्वारा ताड़न करने पर स्वयं भी ताड़न करना चाहती है, वह वृषभभक्षिणी व्याघ्री होती है । जो अपने पति को छोड़कर अन्य से कटाक्ष करती है, वह केकराक्षी होती है । जो अपने पति को बिना दिये मिष्टान्न खा लेती है, वह ग्रामसूकरी अथवा अपनी विष्ठा खानेवाली वल्गु (बकरी) होती है ॥ ५३-५४ ॥ जो अपने पति को ‘तू’ कहकर बोलती है, वह जन्मान्तर में गूंगी होती है और जो अपनी सपत्नी (सौत) से डाह करती है, वह बारंबार विधवा होती है ॥ ५५ ॥ जो अपने स्वामी की दृष्टि बचाकर किसी अन्य पुरुष को देखती है, वह काणी, कुमुखी तथा कुरूपा होती है ॥ ५६ ॥

जैसे जीव के बिना देह क्षणमात्र में अशुचि हो जाता है, उसी प्रकार अपने स्वामी के बिना स्त्री अच्छी तरह स्नान करने पर भी अपवित्र ही रहती है ॥ ५७ ॥ इस लोक में उसकी माता धन्य है और उसके पिता भी धन्य हैं तथा उसका वह पति भी धन्य है, जिसके घर में पतिव्रता स्त्री का निवास होता है ॥ ५८ ॥ पतिव्रता स्त्री के पुण्य से उसके पितृवंश, मातृवंश तथा पतिवंश के तीन-तीन पूर्वज स्वर्ग में सुख भोगते हैं ॥ ५९ ॥ दुराचारिणी स्त्रियाँ अपने दुराचरण के द्वारा माता-पिता तथा पति —इन तीनों कुलों को नरक में गिराती हैं और वे इस लोक तथा परलोक में सदैव दुखी रहती हैं ॥ ६० ॥

पतिव्रता के चरण जहाँ-जहाँ पड़ते हैं, वहाँ-वहाँ की पृथिवी सदा पाप का हरण करनेवाली तथा अत्यन्त पवित्र हो जाती है । सर्वव्यापक सूर्य, चन्द्रमा तथा वायु भी अपनी पवित्रता के लिये ही पतिव्रता का स्पर्श करते हैं, अन्य किसी कारण से नहीं ॥ ६१-६२ ॥ जल तो सदैव पतिव्रता का स्पर्श चाहते हैं, वे कहते हैं कि आज इस पतिव्रता के स्पर्श से हमारी जड़ता नष्ट हो गयी और हमें दूसरे को पवित्र करने की योग्यता प्राप्त हुई । भार्या गृहस्थ का मूल है, भार्या ही सुख का मूल है, धर्मफल की प्राप्ति एवं सन्तानवृद्धि के लिये भार्या की अत्यन्त आवश्यकता है । क्या अपने रूप, लावण्य का गर्व करनेवाली स्त्रियाँ प्रत्येक घरों में नहीं हैं, किंतु विश्वेश्वर में भक्ति करने से ही पतिव्रता स्त्री प्राप्त होती है ॥ ६३-६५ ॥

भार्या के द्वारा ही इस लोक तथा परलोक — दोनों लोकों पर विजय प्राप्त की जा सकती है । देवकर्म, पितृकर्म, अतिथिकर्म तथा यज्ञकर्म बिना भार्या के फलवान् नहीं होता । गृहस्थ उसीको कहते हैं, जिसके घर में पतिव्रता स्त्री का निवास है, अन्य स्त्रियाँ तो प्रतिदिन जरा राक्षसी के समान पुरुष को ग्रसती रहती हैं ॥ ६६-६७ ॥ जिस प्रकार गंगास्नान से शरीर पवित्र हो जाता है, उसी प्रकार पतिव्रता स्त्री के दर्शनमात्र से सब कुछ पवित्र हो जाता है ॥ ६८ ॥ गंगा तथा पतिव्रता स्त्री में कोई भेद नहीं है । वे दोनों स्त्री-पुरुष शिव तथा पार्वती के तुल्य हैं, अतः बुद्धिमान् पुरुष को उनका पूजन करना चाहिये ॥ ६९ ॥

पति ॐकार है, तो स्त्री श्रुति वेद है, पति तप है, तो स्त्री क्षमा है, स्त्री सत्क्रिया है, तो पति उसका फल है । हे शिवे ! इस प्रकार के दम्पती धन्य हैं ॥ ७० ॥ हे पार्वति ! इस प्रकार से मैंने तुमसे पातिव्रत्यधर्म का निरूपण किया । अब उन पतिव्रताओं के भेद सावधानी के साथ प्रेमपूर्वक सुनो ॥ ७१ ॥

उत्तम आदि के भेद से पतिव्रता स्त्रियाँ चार प्रकार की कही गयी हैं । जिनके स्मरण से पाप नष्ट हो जाते हैं ॥ ७२ ॥ उत्तम, मध्यम, निकृष्ट तथा अतिनिकृष्ट — [ये चार भेद पतिव्रताओं के होते हैं।] अब मैं उनका लक्षण कह रहा हूँ, सावधान होकर उसका श्रवण करो ॥ ७३ ॥ जिसका मन स्वप्न में भी अपने पति को ही देखता है और कभी परपति में नहीं जाता; हे भद्रे ! वह उत्तम पतिव्रता कही गयी है । जो दूसरों के पतियों को पिता, भ्राता तथा पुत्र के समान सद्बुद्धि से देखती है, हे पार्वति ! वह मध्यम पतिव्रता कही गयी है ॥ ७४-७५ ॥

हे पार्वति ! जो स्त्री मन में अपना धर्म समझकर व्यभिचार नहीं करती, वह सुन्दर चरित्रवाली स्त्री निकृष्ट पतिव्रता (अधमा) कही गयी है ॥ ७६ ॥ जो मन में इच्छा रहते हुए भी पति एवं कुल के भय से व्यभिचार नहीं करती, उसको पुरातन लोगों ने अति-निकृष्ट पतिव्रता कहा है ॥ ७७ ॥ हे शिवे ! ये चारों प्रकार की पतिव्रताएँ पापहरण करनेवाली हैं, सम्पूर्ण लोकों को पवित्र करनेवाली हैं और इस लोक एवं परलोक में आनन्द प्रदान करनेवाली हैं ॥ ७८ ॥

पातिव्रत्य के प्रभाव से ही अत्रिप्रिया अनसूया ने तीनों देवताओं की प्रार्थना पर वाराह के शाप से मरे हुए ब्राह्मण को जीवनदान दिया था ॥ ७९ ॥ हे शिवे ! ऐसा जानकर तुमको नित्य प्रेमपूर्वक अपने पति की सेवा करनी चाहिये; क्योंकि हे शैलपुत्रि ! ऐसा करने से तुम्हारे सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण होंगे ॥ ८० ॥ तुम तो साक्षात् जगत् की माता तथा महेश्वरी हो और जगत्पिता महेश्वर तुम्हारे साक्षात् पति हैं । तुम्हारे नाम के स्मरणमात्र से स्त्रियाँ पतिव्रता होंगी ॥ ८१ ॥ हे देवि ! तुम्हारे आगे इस कथन से क्या प्रयोजन ! फिर भी हे शिवे ! संसार के आचरण के अनुसार मैंने तुम्हें यह सब कहा है ॥ ८२ ॥

ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार कहकर वह द्विजपत्नी भगवती को प्रणामकर मौन हो गयी और उस उपदेश के श्रवण से शंकरप्रिया शिवा अत्यन्त प्रसन्नचित्त हो गयीं ॥ ८३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के तृतीय पार्वतीखण्ड में पतिव्रताधर्मवर्णन नामक चौवनवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५४ ॥

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.