शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [तृतीय-पार्वतीखण्ड] – अध्याय 55
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
पचपनवाँ अध्याय
शिव-पार्वती तथा बरात की विदाई, भगवान् शिव का समस्त देवताओं को विदा करके कैलास पर रहना और शिव-विवाहोपाख्यान के श्रवण की महिमा

ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] इस प्रकार ब्राह्मणी ने देवी पार्वती को पातिव्रत्यधर्म का उपदेश देकर मेना को बुलाकर कहा — अब इनकी यात्रा की तैयारी कीजिये ॥ १ ॥

मेना ने भी ‘तथास्तु’ कहा और वे प्रेम से विभोर हो गयीं । तदनन्तर धैर्य धारणकर काली को बुलाकर उसके विरह से व्याकुल हो उठीं, उस समय वे मेना पार्वती को बारंबार गले लगाकर ऊँचे स्वर में रोने लगी और पार्वती भी दीनवचन कहती हुई ऊँचे स्वर से रोने लगीं ॥ २-३ ॥

शिवमहापुराण

शोकव्यथित होकर शैलप्रिया मेना और पार्वती मूर्च्छित हो गयीं । पार्वती के रोने के शब्द से सभी देवपत्नियाँ भी अपनी सुध-बुध खो बैठीं । उस समय सभी देवस्त्रियाँ रोने लगीं तथा अचेत हो गयीं । विदा होते हुए स्वयं योगीश्वर भी रो पड़े, तब दूसरों की क्या बात ! ॥ ४-५ ॥ इसी समय बड़ी शीघ्रता के साथ हिमालय भी अपने सभी पुत्रों, मन्त्रियों तथा अन्य ब्राह्मणों के साथ वहाँ आ पहुँचे । उस समय हिमालय भी पार्वती को गोद में लेकर मोहवश रोने लगे । हे वत्से ! इस घर को शून्यकर तुम कहाँ जा रही हो ? इस प्रकार कह करके वे बारंबार रोने लगे ॥ ६-७ ॥

तब ब्राह्मणों के साथ उनके ज्ञानी तथा श्रेष्ठ पुरोहित ने उनपर कृपाकर अध्यात्मविद्या का उपदेश देकर उन्हें समझाया । महामाया पार्वती ने [विदाई के समय] माता-पिता तथा गुरुजनों को भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और वे लोकाचारवश जोर-जोर से रोने लगीं ॥ ८-९ ॥ पार्वती के रोने से वहाँ उपस्थित सभी स्त्रियाँ, माता मेना, सगे-सम्बन्धी तथा अन्य भी रोने लगे ॥ १० ॥

इस प्रकार पार्वती की माता, सगे-सम्बन्धी तथा अन्य स्त्रियाँ, भाई, पिता तथा सखियाँ अत्यन्त प्रेमवश बार-बार रोते रहे । उस समय ब्राह्मणों ने आकर सबको आदरपूर्वक समझाया और कहा कि यात्रा के लिये सुखदायी लग्नवेला आ गयी है । तब हिमालय ने मेना को धीरज बंधाया और स्वयं विवेकयुक्त होकर पार्वती के चढ़ने के लिये शिविका मँगवायी । तदनन्तर ब्राह्मणस्त्रियों ने पार्वती को पालकी में चढ़ाया और माता-पिता, ब्राह्मण आदि सबने आशीर्वाद प्रदान किया ॥ ११-१४ ॥

मेना और हिमालय ने महारानियों के योग्य उपचार पार्वती को प्रदान किये और अन्यों के लिये सर्वथा दुर्लभ द्रव्यसमूह दिये । हे मुने ! पार्वती ने अपने माता-पिता, गुरुजन, ब्राह्मण, पुरोहित, सम्बन्धी एवं स्त्रियों को प्रणाम करके प्रस्थान किया ॥ १५-१६ ॥ परम बुद्धिमान् हिमालय भी अपने पुत्रों के साथ प्रेम से विभोर होकर पालकी के साथ चले और वहाँ पहुँचे, जहाँ सभी देवता ठहरे हुए थे ॥ १७ ॥ तत्पश्चात् सभी लोगों ने भक्ति से सदाशिव को प्रणाम किया और प्रशंसा करते हुए अपने नगर को चले आये । तब पार्वती के कैलास पहुँचते ही सभी लोगों ने बहुत बड़ा उत्सव किया । [शिवजी ने पार्वती के साथ अपने स्थानपर पहुँचकर कहा — ] हे देवेशि ! मैं तुम्हें पूर्वजन्म का स्मरण करा रहा हूँ और यदि तुम अपनी लीला से उसे स्मरण करती हो, तो बताओ तुम तो आज से नहीं, जन्म-जन्मान्तर से मेरी प्राणप्रिया हो ॥ १८-१९ ॥

ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार अपने स्वामी महेश का वचन सुनकर हँसती हुई शिवप्रिया पार्वती कहने लगीं — ॥ २० ॥

पार्वती बोलीं — हे प्राणेश्वर ! मुझे सभी बातों का स्मरण है, किंतु हे भव ! इस समय आप चुप रहिये और आज जो कार्य उपस्थित है, उसी को शीघ्र कीजिये, आपको नमस्कार है ॥ २१ ॥

ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार प्रिया पार्वती के सैकड़ों सुधाधाराओं के समान वचन को सुनकर विश्वेश्वर प्रसन्न हो गये और लौकिकाचार में संलग्न हो गये ॥ २२ ॥ शिवजी ने अनेक प्रकार की भोजन-सामग्री एकत्रित कर नारायण आदि सभी देवगणों को नानाविध मनोहर भोज्यवस्तुओं का भोजन कराया । उन्होंने अपने विवाह में आये हुए सभी लोगों को यथायोग्य विधिवत् उत्तम रस से सम्पन्न भोजन कराया । तब भोजन करके नाना रत्नों से विभूषित सभी देवताओं ने अपनी स्त्रियों तथा गणों के साथ चन्द्रशेखर को प्रणाम किया ॥ २३-२५ ॥

तदनन्तर उन्होंने प्रिय वचनों द्वारा प्रसन्नतापूर्वक शिवजी की स्तुति करते हुए उनकी परिक्रमा की तथा विवाह की प्रशंसा करते हुए वे सभी अपने-अपने स्थानों को चले गये । हे मुने ! शिवजी ने मुझे तथा विष्णुजी को उसी प्रकार प्रणाम किया, जैसे लोकाचार से विष्णुजी कश्यप को प्रणाम करते हैं ॥ २६-२७ ॥ मैंने उन्हें गले लगाकर उनको आशीर्वाद दिया, फिर शंकर को परब्रह्म जानकर उनके आगे खड़े होकर मैंने उनकी स्तुति की । इसके पश्चात् मैं तथा विष्णु शिवा एवं शिवजी को हाथ जोड़कर प्रणामकर विवाह की प्रशंसा करते हुए अपने-अपने स्थानों को चले गये ॥ २८-२९ ॥

इधर, शिवजी भी पार्वती के साथ आनन्द-विहार करते हुए अपने निवासभूत कैलास में रहने लगे और उनके सभी गण आनन्दपूर्वक प्रेम से शिवा-शिव की आराधना करने लगे । हे तात ! इस प्रकार मैंने शिवा एवं शिव के विवाह का आपसे वर्णन किया, यह विवाह परम मंगलदायक, शोकनाशक, आनन्ददायक तथा धन एवं आयु की वृद्धि करनेवाला है ॥ ३०-३१ ॥

जो पवित्र होकर शिवजी में मन लगाकर नित्य इस विवाहचरित्र को नियमपूर्वक सुनता है अथवा दूसरों को सुनाता है, वह अवश्य ही शिवलोक को प्राप्त कर लेता है । मेरा कहा हुआ यह आख्यान अद्भुत, मंगल का धाम, सभी विघ्नों का नाश करनेवाला, समस्त व्याधियों को दूर करनेवाला, यश देनेवाला, स्वर्ग देनेवाला, आयु प्रदान करनेवाला, पुत्र-पौत्रों को बढ़ानेवाला, सभी कामनाओं को सिद्ध करनेवाला, भोग और मोक्ष देनेवाला, अपमृत्यु को दूर करनेवाला, महाशान्ति प्रदान करनेवाला, कल्याणकारक, समस्त दुःस्वप्नों को शान्त करनेवाला और बुद्धि-ज्ञान आदि की वृद्धि करनेवाला है ॥ ३२-३५ ॥

अपने शुभ की इच्छा रखनेवाले लोगों को सभी कल्याणकारक उत्सवों में प्रयत्नपूर्वक प्रेम के साथ शिव को सन्तुष्ट करनेवाले इस आख्यान का पाठ करना चाहिये ॥ ३६ ॥ विशेष रूप से देवता आदि की प्रतिष्ठा के समय और शिव के सभी कार्यों के प्रारम्भ में प्रेम से इस आख्यान का पाठ करना चाहिये । जो पवित्र होकर शिवा-शिव के इस चरित्र को सुनता है, उसके सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं, यह सत्य है, सत्य है, इसमें संशय नहीं है ॥ ३७-३८ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के ब्रह्मा-नारद-संवाद के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के तृतीय पार्वतीखण्ड में शिवकैलासगमनवर्णन नामक पचपनवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५५ ॥
॥ द्वितीय रुद्रसंहिता का तृतीय पार्वतीखण्ड पूर्ण हुआ ॥

 

 

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