शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [चतुर्थ-कुमारखण्ड] – अध्याय 01
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
पहला अध्याय
कैलास पर भगवान् शिव एवं पार्वती का विहार

वन्दे वन्दनतुष्टमानसमतिप्रेमप्रियं प्रेमदं पूर्णं
पूर्णकरं प्रपूर्णनिखिलेश्वर्यैकवासं शिवम् ।
सत्यं सत्यमयं त्रिसत्यविभवं सत्यप्रियं सत्यदं
विष्णुब्रह्मनुतं स्वकीयकृपयोपात्ताकृतिं शंकरम् ॥

वन्दना करने से जिनका मन प्रसन्न हो जाता है, जिन्हें प्रेम अत्यन्त प्रिय है, जो सबको प्रेम प्रदान करनेवाले हैं, स्वयं पूर्ण हैं, दूसरों की अभिलाषा को भी पूर्ण करते हैं, सम्पूर्ण संसिद्ध ऐश्वर्य के एकमात्र स्थान हैं, स्वयं सत्यस्वरूप हैं, सत्यमय हैं, जिनका सत्तात्मक ऐश्वर्य त्रिकालाबाधित है, जो सत्यप्रिय एवं सबको सत्य प्रदान करनेवाले हैं, ब्रह्मा-विष्णु जिनकी वन्दना करते हैं और जो अपनी कृपा से ही विग्रह धारण करते हैं ऐसे नित्य शिव की हम वन्दना करते हैं ॥ १ ॥

शिवमहापुराण

नारदजी बोले — हे ब्रह्मन् ! लोककल्याणकारी शंकर ने पार्वती से विवाह करने के पश्चात् कैलास जाकर क्या किया, उस वृत्तान्त को हमें सुनाइये ॥ २ ॥ जिस पुत्र के निमित्त आत्माराम होते हुए भी उन्होंने पार्वती से विवाह किया, उन परमात्मा शिव को किस प्रकार पुत्र उत्पन्न हुआ ? देवताओं का कल्याण करनेवाले हे ब्रह्मन् ! तारकासुर का वध किस प्रकार हुआ ? मेरे ऊपर कृपाकर यह सारी बात विस्तार से कहिये ॥ ३-४ ॥

सूतजी बोले — नारद के इस प्रकार के वचन को सुनकर प्रजापति ब्रह्माजी ने शिवजी का स्मरणकर प्रसन्न मन से कहा — ॥ ५ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे नारद ! चन्द्रशेखर भगवान् शिवजी के चरित्र को बताता हूँ, आप सुनें, मैं कार्तिकेय की उत्पत्ति की दिव्य कथा तथा उनके द्वारा किये गये तारकासुर के वध का वृत्तान्त भी कहता हूँ ॥ ६ ॥ मैं जिस कथा को कह रहा हूँ, उसे सुनिये, वह कथा समस्त पापों को विनष्ट करनेवाली है, जिसे सुनकर निश्चय ही मनुष्य सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है ॥ ७ ॥ यह आख्यान पापरहित, गोपनीय, परम अद्भुत, पाप-सन्ताप को दूर करनेवाला तथा सभी प्रकार के विघ्नों को विनष्ट करनेवाला है । यह सभी प्रकार के मंगलों का दाता, पुराणों का सारभूत अंश तथा सबके कानों को सुख प्रदान करनेवाला, आनन्द को बढ़ानेवाला, मोक्ष का बीज और कर्ममूल का विनाश करनेवाला है ॥ ८-९ ॥

शिवजी शिवा से विवाहकर कैलास पर आकर अत्यन्त शोभित हुए और देवगणों के कार्यसाधन का विचार करने लगे । उन्होंने तारकासुर के द्वारा दी गयी अपने भक्तजनों की पीड़ा के विषय में भी विचार किया ॥ १० ॥ इधर शिवजी जब कैलास पर पहुँचे, तब उनके गण प्रसन्न होकर उनको नानाविध सुख प्रदान करने लगे ॥ ११ ॥ शिवजी के कैलास पहुँचते ही महान् उत्सव होने लगा । सब देवगण प्रसन्नमन होकर अपने-अपने स्थान को चले गये । इसके बाद महादेव सदाशिव गिरिकन्या शिवा को साथ लेकर महादिव्य, मनोहर एवं निर्जन स्थान में चले गये । वहाँ उन्होंने रति को बढ़ानेवाली शय्या का निर्माणकर उसे पुष्प तथा चन्दन से सुशोभित किया । उस अद्भुत मनोहर शय्या के समीप नाना प्रकार की भोगसामग्री भी स्थापित कर दी ॥ १२-१४ ॥

उसी शय्या पर मान देनेवाले भगवान् शम्भु पार्वती के साथ देवताओं के वर्ष-परिमाण के अनुसार एक हजार वर्ष तक विहार करते रहे । भगवती पार्वती के अंग के स्पर्शमात्र से भगवान् सदाशिव लीलापूर्वक मूर्च्छित हो गये । भगवती पार्वती भी भगवान् शिव के स्पर्श से मूर्च्छित हो गयीं । इस प्रकार उन्हें दिन-रात का ज्ञान नहीं रहा ॥ १५-१६ ॥ हे अनघ ! लोकधर्म का प्रवर्तन करनेवाले शिवजी के भोग में प्रवृत्त होने पर उन दोनों का लम्बा समय भी क्षणमात्र के समान बीत गया ॥ १७ ॥ हे तात ! तब एक समय इन्द्रादि सब देवता मेरु पर्वत पर एकत्र होकर विचार करने लगे ॥ १८ ॥

देवता बोले — यद्यपि शिव योगीश्वर निर्विकार आत्माराम तथा मायारहित हैं, फिर भी हमलोगों के कल्याण के लिये भगवान् शंकर ने विवाह किया है ॥ १९ ॥ किंतु अब तक इनको कोई पुत्र नहीं हुआ, इसका कारण ज्ञात नहीं हो रहा है । वे भगवान् देवेश्वर विलम्ब क्यों कर रहे हैं ? ॥ २० ॥

ब्रह्माजी बोले — इसी बीच देवदर्शन नारद से देवताओं ने शिवा और शिव के परिमित भोगकाल को जाना ॥ २१ ॥ तब उनके भोगकाल को दीर्घकालीन जानकर देवता बड़े चिन्तित हुए, फिर मुझ ब्रह्मा को आगे करके वे विष्णु के समीप गये ॥ २२ ॥ मैंने नारायण को प्रणामकर सारा अभीष्ट वृत्तान्त उनसे निवेदित किया । देवतालोग तो चित्रलिखित पुत्तलिका के समान खड़े रहे ॥ २३ ॥
[हे नारायण !] योगीश्वर शंकरजी देवताओं के वर्ष के परिमाण के अनुसार एक हजार वर्षपर्यन्त विहारपरायण हैं ॥ २४ ॥

भगवान् विष्णु बोले — हे जगत् के विधाता ! चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है । सब कुछ कल्याणकारी ही होगा । हे देवेश ! आप महाप्रभु शंकर की शरण में जाइये ॥ २५ ॥ जो मनुष्य प्रसन्न मन से शंकर की शरण में जाते हैं; हे प्रजापते ! शंकर के उन अनन्य भक्तों को कहीं से कोई भय नहीं होता । हे विधे ! उनके श्रृंगार का रसभंग समय से होगा, अभी नहीं । जो कार्य ठीक समय में किया जाता है, वही सफल होता है, अन्यथा नहीं ॥ २६-२७ ॥ भगवान् शंकर के अभीष्ट को भग्न करने में कौन समर्थ है ? हजार वर्ष पूर्ण होने पर वे स्वयं निवृत्त हो जायँगे ॥ २८ ॥ जो रति को भंग करता है, उसे जन्म-जन्मान्तर में स्त्री तथा पुत्र से वियोग प्राप्त होता है । उस भेदकर्ता पुरुष का ज्ञान नष्ट हो जाता है, कीर्ति नष्ट हो जाती है और वह दरिद्र हो जाता है । अन्त में वह एक लाख वर्ष तक कालसूत्र नामक नरक में रहता है ॥ २९-३० ॥

इसी कारण महामुनीन्द्र दुर्वासा को स्त्री से वियोग हुआ । फिर उन्होंने दूसरी मंगलमय करकमलोंवाली स्त्री को प्राप्त करके वियोगजन्य दुःख को दूर किया । घृताची पर आसक्त कामदेव को बृहस्पति के द्वारा मना करने पर बृहस्पति को पत्नी-हरण का दुःख मिला । फिर उन्होंने शिवजी की आराधना कर तारा को प्राप्त किया, जिससे उनकी विरहव्यथा दूर हुई ॥ ३१-३४ ॥ महर्षि गौतम ने मोहिनी में आसक्त चन्द्रमा को वियुक्त किया, इस कारण उनका स्त्री से वियोग हुआ । हालिक को वृषली में कामासक्त देखकर हरिश्चन्द्र द्वारा निषेध किये जाने पर उन्हें विश्वामित्र का कोपभाजन बनना पड़ा और वे स्त्री-पुत्र तथा राज्य से भी च्युत हो गये । फिर उन्होंने शिवाराधनकर इस कष्ट से छुटकारा प्राप्त किया ॥ ३५-३७ ॥

वृषली में आसक्त हुए द्विजश्रेष्ठ अजामिल को तथा उस वृषली को भय के कारण किसी देवता ने भी मना नहीं किया । निषेक (वीर्यसिंचन)-से सब कुछ साध्य है । हे विधे ! निषेक बलवान् है, निषेक ही फल देनेवाला है, उस निषेक का कौन निवारण कर सकता है ? ॥ ३८-३९ ॥ शंकरजी के भोग का वह काल देवताओं के वर्ष से हजार वर्षपर्यन्त का था । हे देवगणो ! एक हजार दिव्य वर्ष पूर्ण हो जाने पर आपलोग वहाँ जाकर इस प्रकार का उपाय करें, जिससे उनका तेज पृथ्वी पर गिरे । उसी तेज से प्रभु शंकर का स्कन्द नामक पुत्र उत्पन्न होगा ॥ ४०-४१ ॥ अतः हे ब्रह्मन् ! इस समय आप इन देवताओं को साथ लेकर अपने स्थान को लौट जायँ और शिवजी एकान्त में पार्वती के साथ आनन्दविहार करें ॥ ४२ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे मुनीश्वर ! इस प्रकार कहकर लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु शीघ्र ही अपने अन्तःपुर में चले गये और मेरे साथ सभी देवता अपने-अपने स्थान पर चले गये । इस प्रकार बहुत दिनों तक शक्ति एवं शक्तिमान् के विहार से भाराक्रान्त यह पृथ्वी शेष एवं कच्छप के धारण करने पर भी काँप उठी ॥ ४३-४४ ॥ तब कच्छप के भार से आक्रान्त सबका आधारभूत पवन स्तम्भित हो गया, जिससे सम्पूर्ण त्रैलोक्य भय से व्याकुल हो उठा । फिर सभी देवता मेरे साथ भगवान् विष्णु की शरण में गये और दुखी मनवाले उन्होंने उस वृत्तान्त को भगवान् विष्णु से निवेदित किया ॥ ४५-४६ ॥

देवता बोले — हे देवदेव ! हे रमानाथ ! हे सर्वरक्षक प्रभो ! हमलोग भय से व्याकुलचित्त हो आपकी शरण में आये हुए हैं । आप हमारी रक्षा कीजिये ॥ ४७ ॥ पता नहीं, किस कारण से तीनों लोकों के प्राणभूत वायुदेव स्तम्भित हो गये हैं तथा मुनि एवं देवगणों के सहित सारा चराचर त्रैलोक्य व्याकुल हो गया है ! ॥ ४८ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे मुनीश्वर ! मेरे साथ गये हुए समस्त देवगण ऐसा कहकर मौन, दुखी तथा दीन होकर भगवान् विष्णुजी के आगे खड़े हो गये ॥ ४९ ॥ इस बात को सुनकर हमें तथा सभी देवताओं को अपने साथ लेकर भगवान् विष्णु बड़ी शीघ्रता से शिव के प्रिय कैलास पर्वत पर गये ॥ ५० ॥ सुरवल्लभ भगवान् विष्णु मुझ ब्रह्मा तथा उन देवताओं के साथ कैलास पहुँचकर भगवान् शिव के दर्शन करने की इच्छा से शिवजी के श्रेष्ठ स्थान पर गये ॥ ५१ ॥ किंतु वहाँ शिवजी को न देखकर देवताओं सहित भगवान् विष्णु आश्चर्य में पड़ गये । फिर उन्होंने वहाँ पर स्थित महेश्वर के गणों से विनयपूर्वक पूछा ॥ ५२ ॥

विष्णु बोले — हे शंकर के गणो ! आप सब बड़े दयालु हैं । आपलोग हम दुखीजनों को कृपापूर्वक बताइये कि सर्वप्रभु शंकर इस समय कहाँ पर हैं ? ॥ ५३ ॥

ब्रह्माजी बोले — देवताओं के सहित भगवान् विष्णु की बात सुनकर शंकरजी के उन गणों ने प्रीतिपूर्वक लक्ष्मीपति विष्णु से कहा — ॥ ५४ ॥

शिवगण बोले — हे हरे ! जो सम्पूर्ण वृत्तान्त है, ब्रह्मा और देवताओं के साथ उसे आप सुनिये, भगवान् शिव में प्रेम के कारण हम यथार्थ रूप में कहते हैं ॥ ५५ ॥ विविध प्रकार की लीलाओं में पारंगत देवाधिदेव महादेव शिव हमलोगों को यहाँ स्थापित करके अत्यन्त स्नेहपूर्वक भगवती पार्वती के आवास-स्थान पर गये ॥ ५६ ॥ हे लक्ष्मीपति ! उस गुहा के भीतर उन्हें बहुत वर्ष व्यतीत हो गये हैं, वहाँ महेश्वर शम्भु क्या कर रहे हैं, इस बात को हम नहीं जानते हैं ॥ ५७ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे मुनिश्रेष्ठ ! उनकी बातों को सुनकर मेरे तथा देवगणों के साथ विष्णु आश्चर्यचकित हो गये और शिवजी के द्वार पर गये ॥ ५८ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! वहाँ देवताओं एवं मुझ ब्रह्मा के साथ जाकर देवताओं के प्रिय भगवान् श्रीहरि ने ऊँचे स्वर में आर्तवाणी से अत्यन्त प्रेमपूर्वक वहाँ स्थित सर्वलोकेश्वर भगवान् शिव की स्तुति की ॥ ५९-६० ॥

विष्णु बोले — हे महादेव ! हे परमेश्वर ! आप गुहा के भीतर क्या कर रहे हैं ? तारकासुर से पीड़ित, आपकी शरण में आये हुए हम सभी देवताओं की रक्षा कीजिये ॥ ६१ ॥

हे मुनीश्वर ! इस प्रकार मुझ ब्रह्मा तथा देवताओं के सहित विष्णु ने शिव की अनेक प्रकार से स्तुति की । उस समय तारकासुर से पीड़ित देवताओंसहित श्रीहरि अत्यन्त विलाप करके रोने लगे ॥ ६२ ॥ हे मुनीश्वर ! तारकासुर से पीड़ित हुए देवताओं के आर्तनाद और शिवजी की स्तुति के मिश्रित होने से उस समय दुःखभरा महान् कोलाहल हुआ ॥ ६३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के चतुर्थ कुमारखण्ड में शिवविहारवर्णन नामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १ ॥

 

 

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